वोलोदोमीर जेलेन्स्की के लिए डॉनल्ड ट्रंप ने खतरे की घंटी बजा दी है। उनका यह कहना खोखली धमकी भर नहीं है कि “अगर कोई शांति समझौता नहीं करना चाहता, तो मेरी राय में वह व्यक्ति ज्यादा दिन तक (सत्ता में) नहीं रहेगा।”
(https://x.com/Megatron_ron/status/1896658534533840919)
साफ है कि अमेरिका जाकर सौदेबाजी की कोशिश और ट्रंप को आंख दिखा कर यूक्रेन के राष्ट्रपति ने बहुत बड़ा जोखिम मोल लिया। उसे और आगे बढ़ाते हुए वे यूरोपीय नेताओं के झांसे में आ गए। ह्वाइट हाउस में पहले अपने और फिर जेलेन्स्की के हुए अपमान के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कियर स्टार्मर ने पैंतरेबाजी दिखाई। अमेरिका से लौटेते जेलेन्स्की के लिए ना सिर्फ उन्होंने लाल कालीन बिछाई और उन्हें गले लगाया, बल्कि उनके समर्थन में यूरोपीय संघ एवं कनाडा के नेताओं को आमंत्रित कर एक सम्मेलन आयोजित कर दिया।
सम्मेलन में
- यूक्रेन को अधिक सैनिक मदद देने।
- रूस पर और अधिक प्रतिबंध लगाने।
- तीन साल से जारी युद्ध में यूक्रेन ने जो जमीन गंवाई है, वह उसे वापस दिलवाने।
- और, शांति समझौता हो जाने की स्थिति में यूक्रेन को अधिक हथियार देने का इरादा जताया गया।
स्टार्मर ने यूक्रेन को थल और वायु दोनों क्षेत्रों की रक्षा के लिए सैनिक मदद बढ़ाने का इरादा भी जताया। हैरतअंगेज है कि उनकी बातों को जेलेन्स्की के साथ कई अन्य हलकों में भी गंभीरता से लिया गया है। जबकि ब्रिटेन क्या कर सकने की स्थिति में है, इसकी पोल हफ्ते भर पहले ही ट्रंप ने खोल दी थी। अपनी वॉशिंगटन यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ साझा प्रेस वार्ता में भी स्टार्मर ने कहा था कि ब्रिटेन का हाथ यूक्रेन की पीठ पर है। तब ट्रंप ने व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ उनसे पूछा था कि क्या उन्हें भरोसा है कि ब्रिटेन अकेले रूस को हरा देगा। इस पर स्टार्मर लड़खड़ाए और मुस्करा कर रह गए थे।
हकीकत यह है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद बने यूरोपीय ढांचे में वहां के तमाम देश अपनी सुरक्षा के लिए भी उत्तरोत्तर अमेरिका पर निर्भर होते चले गए हैं। नतीजतन, उनकी अपनी सैनिक तैयारी कितनी सीमित हो गई है, इसे एक ब्रिटिश पॉडकास्टर की ये टिप्पणी जाहिर करती हैः ब्रिटेन के पास बस उतने सैनिक हैं, जो वेम्बले के फुटबॉल स्टेडियम में समा जाएं।
सोशल मीडिया पर आई इस टिप्पणी ने भी उचित ही ध्यान खींचाः कियेव (यूक्रेन की राजधानी) तो दूर, ब्रिटेन केंट (ब्रिटेश शहर) की रक्षा में भी सक्षम नहीं है। गौरतलब है कि साल 1800 में दुनिया के 80 फीसदी से ज्यादा लड़ाकू जहाज ब्रिटेन में बनते थे। आज ये संख्या शून्य प्रतिशत है। नव-उदार की नीतियों पर अमल के बाद पिछले चार-पांच दशक में तो यूरोपीय देशों ने अपनी औद्योगिक उत्पादन क्षमता भी खो दी है। आखिरी किला जर्मनी था, जहां गुजरे तीन साल की कहानी उद्योग धंधों के बंद होने, बढ़ती बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था के मंदीग्रस्त होने रही है।
यह अनुभव-सिद्ध बात है कि मजबूत सेना के लिए मजबूत औद्योगिक क्षमता पूर्व शर्त है। यूरोप में आज इन दोनों पहलुओं का अभाव है।
जेलेन्स्की के अपमान पर विभिन्न यूरोपीय नेताओं ने गहरी नाराजगी जताई है। यूक्रेन के साथ खड़े रहने का एलान किया है। यूरोपियन यूनियन की प्रमुख राजनयिक और एस्तोनिया की पूर्व प्रधानमंत्री काया कलास ने तो यहां तक कह दियाः ‘यूक्रेन ही यूरोप है। हम यूक्रेन के साथ खड़े हैं हम अपना समर्थन बढ़ाएंगे, ताकि यूक्रेन आक्रांता के खिलाफ लड़ाई जारी रख सके। आज यह साफ हो गया है कि फ्री वर्ल्ड को नए नेता की जरूरत है। यह जिम्मेदारी हम यूरोपियन्स की है कि हम इस चुनौती को स्वीकार करें।’
लेकिन जिन्हें हकीकत का अहसास है, उन्होंने ऐसे बड़बोलेपन से बचने की कोशिश की है। नार्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (नाटो) के महासचिव मार्क रूटे ने बीबीसी से बातचीत में जेलेन्स्की को भी हकीकत का अहसास कराने की कोशिश की। कहाः मैंने उनसे (जेलेन्स्की से) कहा कि आपको रास्ता तलाशने की जरूरत है। डियर वोलोदीमीटर, डॉनल्ड ट्रंप और अमेरिकी प्रशासन ने फिर से रिश्ता जोड़िए। आगे जाने के लिए यह महत्त्वपूर्ण है।
जर्मन सेना में काम कर चुके और अब मीडिया स्तंभकार उवे पैरपार्ट ने लिखा हैः ‘अमेरिकी सेना की सहायता और अमेरिकी परमाणु साये के संरक्षण के बिना आज यूरोप के पास इतनी सेना नहीं है, जो रूसी हमले से उसे बचा सके। हथियार ग्रहण करने की फौरी योजना अपनाने पर भी उसके यह क्षमता हासिल करने की संभावना नहीं है। 1980 के दशक में, जब यह स्तंभकार पश्चिम जर्मन सेना में काम करता था और पश्चिमी जर्मनी के पास पांच लाख सैनिक तथा सात हजार टैंक थे, तब भी बिना अमेरिकी मदद के पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा के बारे में नहीं सोचा जाता था। अब तो यह एक खतरनाक कल्पना भर है।’
(https://asiatimes.com/2025/03/europes-dangerous-delusion-of-defense-without-the-us/#)
जर्मनी के मशहूर कियेल इंस्टीट्यूट ने सितंबर 2024 और इस साल फरवरी में यूरोप की सुरक्षा क्षमता के बारे में दो रिपोर्टें जारी कीं। इनमें शामिल सूचनाएं आंख खोल देने के लिए काफी हैः
- फरवरी 2022 (जब यूक्रेन में रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू हुई) के बाद डेढ़ साल तक जर्मनी ने हथियारों की खरीदारी में कोई सार्थक वृद्धि नहीं की।
- 2023 के आखिर में उसने इसकी शुरुआत की, लेकिन 2024 में इसकी जो रफ्तार थी, उसके ही जारी रहने पर तकरीबन 100 साल तक जर्मनी कुछ प्रमुख हथियार प्रणालियों को हासिल नहीं कर पाएगा।
- यूक्रेन से किए गए वायदों को ध्यान में रखें, तो कई मामलों में जर्मनी की क्षमता जवाब दे रही है।
- आज जर्मनी के पास 350 टैंक हैं, जबकि 2004 में ये संख्या 2,398 थी। इसी तरह अब 120 तोपें हैं, जबिक 2004 में ये संख्या 978 थी। आज 218 लड़ाकू विमान हैं- 2004 में ये संख्या 423 थी।
बाकी यूरोपीय देशों का हाल तो इससे भी बदतर है। उनके पास सैनिक और हथियार दोनों की भारी कमी है। इनमें ब्रिटेन भी है। ब्रिटिश रक्षा मंत्रालय की पिछले जुलाई में जारी रिपोर्ट के मुताबिक उसके पास युद्ध के लिए तैयार सैनिकों संख्या थीः थल सेना- 18,398 और वायु सेनाः 21,915.
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज के मुताबिक इस वर्ष मध्य तक रूस के प्रशिक्षित सैनिकों की संख्या 15 लाख पार कर जाएगी। इसे देखते हुए कियेल इंस्टीट्यूट का अनुमान हैः
- रक्षा की बदहाल स्थिति में सुधार की शुरुआत करने के लिए जरूरी है कि यूरोप तुरंत तीन लाख अतिरिक्त सैनिकों की भर्ती करे और रक्षा खर्च में 250 बिलियन डॉलर की बढ़ोतरी करे।
इन दोनों लक्ष्यों- खासकर सैनिकों की संख्या जुटाना, फिलहाल बेहद कठिन दिखता है। फिर यह भी अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि फिलहाल नाटो में नियोजन, समन्वय और बड़ी संख्या में बहुराष्ट्रीय सेना जुटाने की पूरी जिम्मेदारी अमेरिका ने संभाल रखी है। इसके अलावा खुफिया सूचनाएं जुटाना भी मुख्य रूप से उस पर ही निर्भर है। यूरोप चाहे भी तो इसकी वैकल्पिक व्यवस्था करने में उसे वर्षों लग जाएंगे।
उवे पैरपार्ट ने लिखा हैः ‘यूक्रेन में शांति कायम होने के बाद ही यूरोप रणनीतिक स्वायत्तता का सपना देख सकेगा। फिलहाल, उसके पास ट्रंप की शांति योजना की अनदेखी करने की सैनिक या अन्य क्षमताएं नहीं हैं।’
इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि तमाम जुबानी बहादुरी दिखाने के बाद लंदन सम्मेलन में अंततः यही फैसला हुआ कि रूस के साथ शांति के लिए अपना फॉर्मूले यूरोपीय देश अमेरिका को बताएंगे। वे ट्रंप प्रशासन से अनुरोध करेंगे कि वह उनके सूत्रों को भी अपनी शांति वार्ता में शामिल करे।
मगर ऐसा होने की संभावना नहीं है। ट्रंप प्रशासन ने आरंभ से ही यूरोप को हाशिये पर रख कर रूस के व्लादीमीर पुतिन प्रशासन से सीधी वार्ता की राह अपनाई है। इस सिलसिले में पहले सऊदी अरब के रियाद और फिर तुर्किये के इस्तांबुल में अमेरिकी और रूसी पक्ष के बीच बातचीत हो चुकी है। उधर पुतिन प्रशासन भी स्पष्ट कर चुका है कि इस वार्ता में यूरोप की कोई भूमिका नहीं है।
डॉनल्ड ट्रंप इस बात से बेहतर वाकिफ हैं कि पूर्व जो बाइडेन प्रशासन ने रूस को यूक्रेन में विशेष सैनिक कार्रवाई के लिए मजबूर कर गलत दांव खेला। यह दांव अमेरिकी और यूरोपीय थिंक टैंक एवं मीडिया के बनाए इस निराधार नैरेटिव पर आधारित था कि,
- रूस कमजोर एवं भ्रष्ट देश है।
- रूस की अर्थव्यवस्था पतनशील है।
- इसलिए रूस लड़ाई में पश्चिमी मदद से तैयार यूक्रेन की सेना का मुकाबला नहीं कर पाएगी।
विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू होने के बाद पश्चिम ने कथानक पेश किया कि
- पश्चिमी प्रतिबंधों से रूसी अर्थव्यवस्था ढह जाएगी, जिससे जन असंतोष उपजेगा और पुतिन के शासन का अंत हो जाएगा।
- यूक्रेन में विशेष सैनिक कार्रवाई को पश्चिम ने छोटे देश की संप्रभुता पर हमला बताया और उम्मीद जोड़ी कि इस प्रचार से प्रभावित ग्लोबल साउथ में रूस अलग-थलग पड़ जाएगा।
- उसे भरोसा था कि नाटो के बेहतर हथियारों के कारण लड़ाई में रूस की निर्णायक हार होगी।
लेकिन इनमें से एक भी धारणा सही साबित नहीं हुई है। इसीलिए ट्रंप प्रशासन ने रूस के सामने शांति का प्रस्ताव रखा है। ट्रंप की इस सोच से सहज ही सहमत हुआ जा सकता है कि यही प्रस्ताव यूक्रेन के सामने उपलब्ध सर्वोत्तम विकल्प है। हर व्यावहारिक रूप में यूक्रेन की पराजय तो पहले ही हो चुकी है, अब अगर पुतिन प्रशासन ने पूर्ण युद्ध छेड़ा, तो यूक्रेन के लिए अपना अस्तित्व बचाना भी मुश्किल हो सकता है। अब चूंकि अमेरिका ने यूक्रेन के लिए हर तरह की सैनिक मदद रोक दी है, तो रूस का काम और आसान हो गया है।
इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यही कहा जाएगा कि यूरोपीय नेताओं ने बड़बोलापन दिखा कर ना सिर्फ उस भ्रम को उजागर किया है, जिसमें वे जी रहे हैं, बल्कि उन्होंने जेलेन्स्की या यूक्रेन का भी भला नहीं किया है। उधर जेलेन्स्की ने उन पर भरोसा कर घोर नासमझी का परिचय दिया है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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