1857 के महासंग्राम से उभरे मूल्यों को बचाने की चुनौती

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[क्या साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के महान योद्धा, शहीद टीपू सुल्तान और सामाजिक समता के नायक बसवा की धरती कर्नाटक से आज इस फैसलाकुन लड़ाई का विजयी आगाज़ होगा?]

10 मई, 1857, हमारी पहली जंगे-आज़ादी का शुभ दिन!

1857 की स्पिरिट को, हमारे पुरखों के सपनों, उनके आदर्शों, आज़ाद हिंदुस्तान के उनके vision को उस दौर का यह कौमी तराना सबसे सटीक ढंग से व्यक्त कर देता है:

“हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा

पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा

यह है हमारी मिल्कियत हिंदुस्तान हमारा

इसकी रूहानी से रौशन है जग सारा

कितना कदीम, कितना नईम, सब दुनियां से न्यारा”

“करती है जरख़ेज़ जिसे गंगा-जमन की धारा

ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा

नीचे साहिल पर बजता, सागर का नक्कारा

इसकी खानें उगल रहीं सोना हीरा पारा

इसकी शान शौकत का दुनियां में जयकारा”

“आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा

लूटा दोनों हाथ से प्यारा वतन हमारा

आज शहीदों ने है तुमको अहले-वतन ललकारा,

तोड़ो गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा

हिन्दू मुसलमां सिख हमारा भाई प्यारा प्यारा

यह है आज़ादी का झंडा, इसे सलाम हमारा!”

कोई अचरज नहीं कि जिस पत्र ‘पयाम-ए-आज़ादी’ में यह तराना छपा था, 1857 के विद्रोह के बाद जिन-जिन घरों में उसकी प्रतियां मिलीं थीं, अंग्रेजों ने दिल्ली पर फिर कब्ज़ा करने के बाद उन घरों के सभी पुरुषों को सार्वजनिक फांसी दे दी थी।

इस गीत में देशभक्त क्रांतिकारी अपने महान देश के प्रति गौरवबोध से भरे हुए, उसके सौंदर्य और समृद्धि का बखान करते हुए, हमारी अकूत प्राकृतिक संपदा और राष्ट्रीय सम्पत्ति को लूटने वाले अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मुल्क की आज़ादी के लिए देश की सभी धर्मों की जनता से एकताबद्ध होकर जंग में उतरने का आह्वान करते हैं।

यहां हम भ्रूण रूप में ही सही आधुनिक राष्ट्रवाद- आर्थिक राष्ट्रवाद और राजनीतिक आज़ादी- की संकल्पना देख सकते हैं। यह राष्ट्रवाद न किसी संकीर्ण धार्मिक पहचान पर खड़ा था, न दूसरों पर धौंस-धमकी करने वाला अंधराष्ट्रवाद था, यह साम्राज्यवादी लूट और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ प्रगतिशील राष्ट्रवाद था जो आज भी उसके नवउपनिवेशवादी स्वरूप के ख़िलाफ़ उतना ही प्रासंगिक है।

यह हमारे राष्ट्रीय इतिहास की कैसी विराट त्रासदी है कि जहां हमारे पुरखों ने लगभग पौने 2 सदी पहले ऐसे उदात्त राष्ट्रवाद की संकल्पना की थी, वहीं आज राष्ट्रवाद के नाम पर सत्ता पर एक ऐसा गिरोह काबिज़ है जिसके छद्म, विभाजनकारी राष्ट्रवाद ने आधुनिक राष्ट्र के बतौर भारत की संकल्पना (Idea of India) की बुनियाद ही हिला दी है, जिसने गणतांत्रिक भारत के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है, जिसने हमारी गंगा-जमनी तहज़ीब और राष्ट्रीय एकता को आज खतरे में डाल दिया है और हमारे देश की 140 करोड़ जनता के जीवन, आजीविका, अधिकारों सबके लिए अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है।

हाथ से फिसलती सत्ता को बचाने के लिए संघ-भाजपा नफरती खेल में कितने desperate हैं, इसका इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि उन्होंने कर्नाटक में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के वीर नायक टीपू सुल्तान जो अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे, उन्हें भी नहीं बख्शा।

ऐतिहासिक सच के विपरीत मनगढ़ंत कहानियों द्वारा पहले उन्हें हिन्दू-विरोधी साबित करने में लगे रहे, अब आते-आते बिल्कुल कपोल कल्पित गल्प का सहारा लेकर यह अफवाह फैलाने की कोशिश की गई कि वहाँ के प्रभावशाली वोक्कालिगा समुदाय के दो योद्धाओं ने टीपू सुल्तान की हत्या की थी। जाहिर है इस झूठी कहानी का उद्देश्य था हिन्दू विशेषकर वोक्कालिगा समुदाय को मुसलमानों के ख़िलाफ़ खड़ा करना और अपना वोट बैंक बनाना।

बहरहाल वह साजिश नाकाम हो गयी क्योंकि सदियों से मुस्लिम समाज के साथ प्रेम और सौहार्द के साथ रहते आये वोक्कालिगा समुदाय के प्रभावशाली मठों ने इसका जोरदार विरोध किया। नतीजतन इस पर फ़िल्म बनाने की योजना को वापस लेना पड़ा।

ज्ञातव्य है कि इसी तरह UP में गाज़ी मियां और सुहेलदेव के मिथकीय द्वंद्व के बहाने ये अपना नफरती खेल आजमा चुके हैं और उसकी चुनावी फसल काटने में सफल भी रहे हैं। बहरहाल कर्नाटक की विशिष्ट सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में शायद ही इनकी दाल गले।

दरअसल, 1857 ने जिन महान मूल्यों की बुनियाद रखी और जो 1947 तक चले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पुष्पित-पल्लवित होते रहे, तथा अंततः भारत के संविधान के रूप में codified हुए, उनके निषेध पर खड़ी है संघ-भाजपा की राष्ट्रवाद की पूरी समझ!

यह अनायास नहीं है कि संघ के बुद्धिजीवी 1857 के बारे में वही मूल्यांकन करते हैं जो अंग्रेज़ों ने किया। वे इसे ईसाई मिशनरियों और कम्पनी के अधिकारियों के हिन्दू धर्म और संस्कृति पर हमले के खिलाफ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लड़ाई मानते हैं, ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेज़ इसे चर्बी वाली कारतूस के खिलाफ उन सिपाहियों का ग़दर (mutiny) साबित करते रहे, जिनकी धार्मिक भावनाएं उससे आहत हुई थीं।

यहां तक कि सावरकर की भी 1857 के बारे में बुनियादी समझ यही थी, जिनके बारे में अमित शाह यह कहते नहीं थकते कि वे न होते तो दुनिया 1857 को आज़ादी की लड़ाई के रूप में जान ही न पाती। (हालांकि यह संघी झूठ मशीन द्वारा गढ़ा गया एक और झूठ है, उत्पीड़ित मानवता के नेता कार्ल मार्क्स सावरकर के जन्म से भी पहले, 1857 की लड़ाई के दौरान ही, इसे भारत की राष्ट्रीय क्रांति- आज़ादी की पहली लड़ाई- बता चुके थे।)

यह अनायास नहीं है कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगने के बाद अपने अगले अवतार में two-nation theory गढ़ कर देश के भावी बंटवारे की नींव रख दी। उसी सावरकर को संघ-भाजपा अपना सबसे बड़े idealogue मानते हैं!

इतिहास के साथ कैसा क्रूर मजाक है कि यह विभाजनकारी धारा अपने को राष्ट्रवाद और अखंड भारत का एकमात्र अलम्बरदार मानती है तथा बाकी सबको देशद्रोही और टुकड़े-टुकड़े गैंग कहती है!

दरअसल 1857 की चट्टानी हिन्दू-मुस्लिम एकता से घबड़ाये अंग्रेजों ने जब एक सुचिंतित नीति के तहत हिन्दू मुस्लिम हितों को परस्पर असमाधेय ( irreconcilable ) ही नहीं, बल्कि शत्रुतापूर्ण (antagonistic) घोषित करते हुए “सभ्यता संघर्ष” का हौवा (bogey) खड़ा किया, तब हिंदुत्व के आदि सिद्धांतकारों ने, जो स्वयं अंग्रेजों के Divide and Rule के इसी औपनिवेशिक प्रोजेक्ट के प्रोडक्ट थे, उनके इस मनगढ़ंत सिद्धांत को लपक लिया, यह उनके अपने आर्य श्रेष्ठता के पूर्वाग्रहों और पेशवाई की पुनर्वापसी के सपनों से मेल खाता था।

आज संघ-भाजपा के वर्चस्व वाला नया भारत (new india) अंग्रेजों की रीति-नीति पर ही गढ़ा जा रहा है और उन्हीं के मॉडल की नकल जैसा लगता है- न सिर्फ साम्राज्यवादी वैश्विक पूँजी और कॉरपोरेट के हाथों राष्ट्रीय सम्पदा की वैसी ही लूट और ब्रिटिश राज की याद दिलाने वाला भयानक दमन-चक्र, बल्कि वैसा ही मुस्लिम-द्रोह और चरम विभाजनकारी, नफरती अभियान जो और कुछ नहीं फासीवाद का भारतीय संस्करण है।

आज हालत यहाँ तक पहुंच गई है कि उनके सुप्रीम लीडर प्रधानमंत्री पद की सारी गरिमा और संवैधानिक दायित्व भूलकर एक झूठी मनगढ़न्त नफरती फ़िल्म का प्रचार कर रहे हैं और फ़िल्म के बहाने अपनी विशुद्ध नफरती राजनीति का प्रचार कर रहे हैं।  जो केरल मानव विकास सूचकांक में देश का सिरमौर है, जो देश में सर्वाधिक अल्पसंख्यक आबादी के बावजूद साम्प्रदायिक सौहार्द और अमन का मॉडल है, उसे ISIS भर्ती का हब और ticking time bomb बना दिया गया!

इतना ही नहीं वे सरे-आम चुनाव आचार संहिता की धज्जियां उड़ाते हुए चुनाव रैली में धार्मिक नारे लगवा रहे हैं और बजरंगबली के नाम पर वोट मांगते हुए लोगों की धार्मिक आस्था और लोकतन्त्र के मूल्यों, दोनों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।

1857 से 1947 तक चले आज़ादी के महासंग्राम से उभरे अपने प्यारे देश को, धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणतंत्र भारत को फासीवादी गिरोह के हाथों बर्बाद होने से बचाने की चुनौती आज इतिहास द्वारा देशभक्त हिंदुस्तानियों की वर्तमान पीढ़ी के सामने दरपेश है।

क्या हम इसके लायक सिद्ध होंगे?

क्या साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के महान योद्धा, शहीद टीपू सुल्तान और सामाजिक समता के नायक बसवा की धरती कर्नाटक से आज इस फैसलाकुन लड़ाई का विजयी आगाज़ होगा?

1857 के रहनुमा बहादुर शाह जफर की यह ललकार हमारा मार्गदर्शन करे!

गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की

तख्ते-लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की!

पहली जंगे-आज़ादी के महान शहीदों को नमन!

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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