वैसे तो इस समय पूरे देश की निगाह महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव की ओर लगी हुई है। लेकिन इन्हीं के साथ 13 राज्यों में उपचुनाव भी हो रहे हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण उत्तरप्रदेश के उपचुनाव हैं, जिन्हें 2027 के चुनाव का सेमी फाइनल माना जा रहा है। ये चुनाव 13नवंबर को होंगे।
इन उपचुनावों में योगी के “बंटेंगे तो कटेंगे” के जवाब में अखिलेश ने नारा दिया है “जुड़ेंगे तो जीतेंगे”।
उत्तर प्रदेश में वैसे तो 10 सीटों पर उपचुनाव होना है लेकिन अयोध्या लोकसभा के अंदर पड़ने वाली प्रतिष्ठामूलक मिल्कीपुर सीट का चुनाव करवाने से फिलहाल चुनाव आयोग ने इंकार कर दिया है।
उनका तर्क है कि इस पर न्यायालय में मामला लंबित है, इसलिए अभी चुनाव नहीं करवाया जा सकता। लेकिन लोगों का मानना है कि इस सीट पर भाजपा की हार की आशंका के कारण चुनाव टला है।
इस बात को लेकर आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं कि शायद सपा और कांग्रेस में सीट शेयरिंग को लेकर आपसी समझ न बन पाए, लेकिन दोनों ही दलों के नेताओं ने बयान दिए कि गठबंधन intact है और वे मिलकर भाजपा और सहयोगियों को हराएंगे।
उधर लोकसभा चुनाव में मात खा चुकी भाजपा यह माना जा रहा था कि अखिलेश यादव के फॉर्मूले से ही उनकी काट की योजना बना रही है। जिस तरह PDA के आधार पर अखिलेश ने कैंडिडेट खड़े किए थे, माना जा रहा था कि उसी तरह भाजपा भी 9 में से 8 सीटों पर पिछड़ा दलित प्रत्याशी खड़ा करने की योजना बना रही है।
यहां तक कि अखिलेश के अंदाज में सामान्य सीट पर भी दलित पिछड़े उम्मीदवार खड़े किए जा सकते हैं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। भाजपा ने पहले जैसे ही अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं, जिनमें 9 में 3 प्रत्याशी सवर्ण मूल के हैं, तीन पिछड़े समुदाय से और एक अतिपिछड़े समुदाय से हैं, केवल खैर की आरक्षित सीट पर दलित प्रत्याशी हैं।
एक सीट पर उनके गठबंधन में RLD लड़ रही है। इस टिकट बंटवारे से सवाल उठता है कि क्या भाजपा राज्य मशीनरी का इस्तेमाल करके और बहराइच दंगे से पैदा परिस्थिति से जीत को लेकर आत्मविश्वास से भर गई है या अपने सवर्ण जनाधार के नाराज होने से भयभीत है ?
अखिलेश ने पहले गाजियाबाद और अलीगढ़ की खैर सीट छोड़कर बाकी सभी सीटों पर प्रत्याशी घोषित कर दिए थे। चर्चा है कि सपा इन सीटों को कांग्रेस को देना चाहती थी। यहां तक कि फूलपुर सीट पर भी सपा ने मुर्तजा सिद्दीकी को खड़ा कर दिया, जहां कांग्रेस लड़ने की तैयारी में थी।
बताया जा रहा है कि कांग्रेस उक्त दोनों सीटों पर लड़ने से बचना चाहती थी। गाजियाबाद भाजपा का गढ़ है, जहां 2002 के बाद से कांग्रेस कभी नहीं जीती है। इसी तरह खैर सीट पर भी कांग्रेस 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर के बाद से कभी नहीं जीत पाई है।
ऐसे में कांग्रेस ने चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है। ऐसा करके वह आगे के लिए, विशेषकर महाराष्ट्र चुनाव में सपा पर दबाव बनाना और संभवतः बसपा से संपर्क संबंध का रास्ता खुला रखना चाहती है।
यह साफ है कि संघ भाजपा चुनावों को जीतने के लिए इस समय किसी भी हद तक जा सकते है।
बहराइच हिंसा पर जिस तरह भाजपा विधायक सुरेश्वर सिंह ने अपनी ही पार्टी के लोगों पर आरोप लगाया है कि उनकी और उनके बेटे की हत्या के लिए दंगा करवाया गया, वह बेहद संगीन आरोप है।
हालांकि अब वे सफाई दे रहे हैं कि महराजगंज में जो हुआ उसके बारे में वे नहीं कह रहे हैं, बल्कि बहराइच में मोर्चरी पर जो हुआ उसके बारे में कह रहे हैं। बहरहाल भाजपा विधायक के बयान ने संघ भाजपा जो नैरेटिव बनाने का प्रयास कर रहे थे, उसकी हवा एक हद तक निकाल दी।
उससे भी चौंकाने वाला खुलासा एक अखबार के स्टिंग ऑपरेशन में हुआ कि दंगाइयों को दो घंटे की खुली छूट दी गई थी।
इस समय दोनों ही गठबंधनों में जगह-जगह बगावत के सुर सुनाई पड़ रहे हैं। कांग्रेस के प्रयागराज गंगापार के अध्यक्ष सुरेश यादव ने बगावत करते हुए फूलपुर से निर्दलीय पर्चा भर दिया है। दरअसल उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने खुद न लड़कर सभी सीटों पर समाजवादी पार्टी को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है।
अब पार्टी ने सुरेश यादव को उनके पद से हटा दिया है और उनसे नामांकन वापस लेने को कहा है। पार्टी अध्यक्ष अजय राय ने उन्हें ऐसा न करने पर दल से निष्कासित करने की चेतावनी दी है।
उधर निषाद पार्टी के नेता संजय निषाद भाजपा से नाराज बताए जा रहे हैं। दरअसल पिछले विधानसभा चुनाव में निषाद पार्टी मझवा और कटेहरी दो सीटों पर लड़ी थी, जिसमें मझवा में वह जीत गई थी और कटेहरी में वह हार गई थी।
इस बार वह दोनों सीटें लड़ना चाहती थी लेकिन भाजपा ने उसे कोई सीट नहीं दी। मझवा सीट संभवतः भाजपा उन्हें देने को तैयार थी लेकिन अपने सिंबल पर चुनाव लड़ने का दबाव बना रही थी।
इसी बीच निषाद पार्टी के एक नेता ने आरोप लगाया है कि टिकट के लिए संजय निषाद उनसे दो करोड़ रु मांग रहे थे। उसमें से कुछ लाख उन्होंने दिए भी थे। लेकिन उन्होंने आरोप लगाया कि इसके बावजूद उन्हें टिकट नहीं मिला। उन्होंने भाजपा नेता सुनील बंसल से मिलने की भी बात की, लेकिन इसके बावजूद उन्हें निराशा हाथ लगी।
दरअसल टिकटों की खरीद बिक्री की तो एक आम राजनीतिक संस्कृति बन गई है और इसमें तमाम पार्टियां लिप्त रही हैं। इसलिए टिकट के लिए किसी दल के नेता द्वारा पैसे की मांग अब कोई आश्चर्य जनक बात नहीं मानी जाती।
बहरहाल यह भी चर्चा है कि भाजपा से नाराज संजय निषाद के बारे में यह बात एक खास समय पर सार्वजनिक करके उनकी छवि खराब की जा रही है ताकि वे भाजपा को अपनी नाराजगी से कोई खास नुकसान न पहुंचा सकें।
उत्तरप्रदेश के उपचुनाव न सिर्फ भाजपा और इंडिया गठबंधन के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि भाजपा के अंदरूनी समीकरणों को भी प्रभावित करने वाले होंगे। लोकसभा चुनावों के धक्के के बाद दिल्ली के इशारे पर योगी को मुख्यमंत्री पद से हटाने का एक गंभीर प्रयास छिड़ा।
ऐसा लगता है कि RSS के हस्तक्षेप से तात्कालिक तौर पर योगी को राहत मिली। लेकिन उपचुनाव के नतीजों के बाद फिर नए सिरे से बिसात बिछ सकती है। अगर उपचुनाव के नतीजे कुल मिलाकर भाजपा के पक्ष में जाते हैं तो योगी के सर पर लटकती तलवार उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव 2027 तक के लिए हट सकती है।
लेकिन अगर उपचुनाव के नतीजे भाजपा के खिलाफ गए तो फिर योगी को हटाने की मुहिम को बल मिल सकता है। सबसे बड़ी बात यह कि अगर सरकार रहते और बहराइच कांड के बाद भी भाजपा अच्छे परिणाम नहीं हासिल कर पाती तो इसका अर्थ होगा कि वह इंडिया गठबंधन के PDA , जाति जनगणना और संविधान रक्षा जैसे मुद्दों की काट नहीं कर पा रही है।
इसका निहितार्थ यह होगा कि वह सवर्ण मूल के अपने वर्तमान नेतृत्व के बल पर वह 2027 में UP फतह नहीं कर सकती। दरअसल उपचुनाव की सीटें प्रदेश के सभी अंचलों में फैली हुई हैं। इसलिए उपचुनाव के नतीजे किसी एक इलाके का नहीं बल्कि पूरे प्रदेश की जनता का मूड बताएंगे।
वैसे तो उपचुनाव में स्थानीय मुद्दे हावी होते हैं, लेकिन जिस राजनीतिक परिदृश्य में यह चुनाव हो रहे हैं उसमें बड़े राजनीतिक मुद्दों की छाया मौजूद रहना तय है। भाजपा अपने कथित विकास और ध्रुवीकरण के नारे पर चुनाव लड़ेगी।
दरअसल उपचुनाव लोकसभा चुनाव से भिन्न एक अलग राजनीतिक परिवेश में हो रहे हैं। लोकसभा चुनाव में दलितों ने बड़े पैमाने पर एकजुट होकर संविधान की रक्षा के नाम पर इंडिया गठबंधन के पक्ष में मतदान किया था। लेकिन इसी बीच उच्चतम न्यायालय का दलितों के बीच उप-वर्गीकरण का जो फैसला आया है, उसने एक नई परिस्थिति पैदा कर दी है।
इससे निश्चित रूप से दलितों के वंचित हिस्से के अंदर भाजपा के पक्ष में माहौल बना है। दरअसल उनका बड़ा हिस्सा 2024 लोकसभा चुनाव के पहले तक, मसलन 2019 के लोकसभा चुनाव और 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ ही था।
2024 के चुनाव में भाजपा के नेताओं ने संविधान बदलने की बात जब की और इंडिया गठबंधन ने जाति जनगणना और आरक्षण से जोड़ते हुए जब संविधान की रक्षा को प्रमुख सवाल बना दिया तथा प्रत्याशियों के चयन में सटीक सोशल इंजीनियरिंग की तब गैर जाटव दलितों का बड़ा हिस्सा भाजपा से अलग होकर इंडिया गठबंधन के पक्ष में आ गया।
लेकिन अब ऐसा लगता है कि उपवर्गीकरण के मुद्दे के उठने के बाद उसका एक हिस्सा फिर भाजपा की ओर वापस लौट सकता है। उधर बसपा जो आम तौर पर उपचुनाव नहीं लड़ती, वह इस बार सभी सीटों पर लड़ रही है। इससे जाटव मतदाताओं का बड़ा हिस्सा उसके साथ जा सकता है।
हरियाणा का चुनाव इस लिहाज से एक संकेतक है, जहां उपवर्गीकरण के प्रभाव में वंचित दलित भाजपा के साथ चले गए। उधर जाटव मतदाताओं में बसपा और चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी ने सेंधमारी कर दी। कुमारी शैलजा हुड्डा विवाद से इसके लिए और उर्वर जमीन मुहैया हो गई।
संविधान बदलाव का मुद्दा लोकसभा चुनाव की तरह इस समय सरगर्म नहीं है, हालांकि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का सवाल आज और महत्वपूर्ण हो गया है। RSS जो मूलतः संविधान विरोधी संगठन है और जिसका राजनीतिक मंच आज देश पर शासन कर रहा है, उस के शताब्दी वर्ष में धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय के लिए चुनौती कई गुना बढ़ गई है।
यह हाल के दिनों में UP से बिहार तक उनके नेताओं के प्रोवोकेटिव नारों और बयानों तथा संघ नेतृत्व के वक्तव्यों से स्पष्ट हैं।
आम जनता के मुद्दे महंगाई, बेरोजगारी आदि जस के तस हैं। उत्तर प्रदेश में पुलिस कितनी बेलगाम और क्रूर हो गई है, यह हाल ही में लखनऊ में पुलिस लॉक अप में नौजवान मोहित पांडे और उसके चंद रोज पहले उसी तरह की एक और हिरासत मौत से स्पष्ट है।
जाहिर है, विपक्ष अगर इन सवालों को मुद्दा बना सका, तो भाजपा को लोकसभा चुनाव की तरह फिर करारी शिकस्त दे सकता है।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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