पीएम मोदी अपने बारे में कहते रहे हैं कि उनके खून में व्यापार है। यह बात जितनी सच है उससे ज्यादा एक दूसरी बात भी सच है जिसे वह नहीं कहते हैं। वह यह कि उनकी राजनीति ही खूनी है। जिसमें नफरत, घृणा, लाश, दंगे और श्मशान हैं। आरएसएस नाम की नफरत की जिस पाठशाला ने अब विश्वविद्यालय का रूप ले लिया है। मोदी उसके प्राथमिक शिष्य होने से लेकर आखिरी डिग्री हासिल करने वाले पीएचडीधारी छात्र हैं। शायद बीजेपी के भीतर मोदी अकेले ऐसे शख्स हों जिनका पूरा पालन पोषण आरएसएस के दफ्तर में हुआ है। दरअसल आरएसएस की शाखाओं में बचपन से ही एक समुदाय के खिलाफ जहर उगला जाता है।
वह कभी शाखा में खेलों के जरिये होता है और कभी कहानियों के जरिये इसको संपादित किया जाता है। स्वाभाविक है कि बचपन में ही अगर एक शख्स के दिमाग में नफरत और घृणा के बीज बोए जाएंगे तो उसके भीतर प्यार और संवेदना के लिए स्थान कम होता जाएगा। और समय बढ़ने के साथ ही यह एक ऐसे विषपुंज में तब्दील हो जाएगा जिसमें नफरत के सिवा कुछ नहीं बचेगा। मोदी जैसे लोग जिनका परिवार से रिश्ता नाम-मात्र का रहा। न तो उन्हें कहीं प्यार मिला और न ही वह कोई रिश्ता जी पाए। उनकी पत्नी की कहानी पूरा देश जानता है। मां के साथ उनका व्यवहार कितना यांत्रिक है। यह हर संवेदनशील इंसान समझ सकता है। जिसमें किसी प्यार, अपनापन और भावना की जगह इस अनमोल रिश्ते को भी अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल कर लेने का पहलू ज्यादा है। और गाहे-ब-गाहे वह देखा जाता रहा है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि बचपन से ही मोदी जी ने आरएसएस में रहते मारकाट और हिंसा की ट्रेनिंग ली है। अजीब विडंबना है कि देश में एक ऐसा भी संगठन है जो दंगों के लिए साजिश रचने का काम करता है। जो चाहता है कि हिंसा हो और उसमें ज्यादा से ज्यादा लोग मारे जाएं। भले ही वो किसी खास समुदाय के ही लोग क्यों न हों। स्वाभाविक है कि इस काम में जो बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेगा वह उसका सबसे बड़ा नेता होगा। और अगर आज मोदी जी सबसे बड़े नेता हैं तो कहने का मतलब कि उन्होंने आरएसएस की उस शर्त को पूरा किया है। 2002 का गुजरात नरसंहार इसका जीता जागता उदाहरण है। यह आरएसएस की ट्रेनिंग और उस पर भरोसे का ही नतीजा था कि मोदी जी गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले लाल कृष्ण आडवाणी के सामने उस विधानसभा चुनाव में पार्टी को फिर से सत्ता में लाने की गारंटी का वचन देते हैं जिसमें कि उसकी फिर से सत्ता में लौटने की संभावना शून्य थी। क्योंकि उसके पहले होने वाले सभी विधानसभा उपचुनावों में बीजेपी लगातार हार रही थी।
और मोदी के कुर्सी पर बैठने के साथ ही न केवल गुजरात में दंगा हुआ बल्कि वह इसी बल पर सतत गुजरात की सत्ता में बने रहे और उसी घृणा और नफरत के मॉडल को आज देश के पैमाने पर बढ़ाकर कभी पुलवामा के जरिये तो कभी किसी और मैनीपुलेशन से वह सत्ता में बरकरार हैं। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में एक काम जो उन्होंने अपने हाथ में लिया है और वह आरएसएस का बुनियादी काम रहा है उसको उन्होंने नहीं छोड़ा है। वह है समाज में सांप्रदायिकता की खाईं को और चौड़ा करना। और इस प्रक्रिया में नफरत और घृणा का लगातार विस्तार करना। वह कभी एनआरसी और सीएए के जरिये किया जाएगा। कभी दिल्ली जैसे दंगों के जरिये या नहीं कुछ मिला तो कोरोना में भी तब्लीगी जमात को ढूंढ लिया जाएगा। यानी नफरत और घृणा के इस इंजेक्शन को लगातार समाज को देते रहना। और उसे सांप्रदायिकता के इस नशे में हमेशा टुन्न रखना मोदी सरकार का प्राथमिक कर्तव्य हो गया है। और कुछ नहीं बचा तो मीडिया के जरिये उसे लगातार बनाए रखना।
अब अगर एक शख्स जिसका पूरा दिमाग नफरत और घृणा से भरा हो क्या उससे आप किसी प्रेम, भावना और संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद कर सकते हैं? दरअसल मोदी जी जानते ही यही भाषा हैं। उसके अलावा उन्हें कुछ नहीं आता। इसीलिए आज जब देश में कोरोना का महासंकट जारी है। और लोग अपनों को अपनी आंखों के सामने जाते हुए बेबसी से देख रहे हैं। तो वहां एक गार्जियन के तौर पर उनके साथ खड़े होने या फिर उनके लिए जरूरी उपायों को सुनिश्चित करने की जगह मोदी के एजेंडे में बंगाल की सत्ता है।
दरअसल इस सत्ता का पूरा वजूद ही बुनियादी तौर पर कुछ गलत प्रस्थापनाओं पर खड़ा हो गया है। जिसमें सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी लोगों की सेवा करना और उनको सुविधाएं मुहैया कराना नहीं बल्कि एक समुदाय विशेष को टाइट करना है। यानी किसी भी देश में और खास कर एक लोकतंत्र में किसी एक सरकार का जो बुनियादी कर्तव्य होता है उस कर्तव्य से ही इस सरकार ने निजात पा ली है। और इस कड़ी में इसने समाज के भीतर एक ऐसी जमात खड़ी कर ली है कि अगर मोदी जी कुछ न करें और उसका सब कुछ छीन लें फिर भी वह उनका साथ देगी। बस उसकी पहली और आखिरी शर्त यह है कि अल्पसंख्यक विरोधी मोर्चे पर वह ‘ईमानदारी’ से डटे रहें। यहीं पर आकर कल्याण का एजेंडा दोयम दर्जा हासिल कर लेता है। या कहें बिल्कुल हाशिये पर चला जाता है। और मोदी जी भी इस बात को जानते हैं इसीलिए किए गए बड़े-बड़े वादों को पूरा न कर पाने के बावजूद भी वह सत्ता में आये हैं और उनके समर्थकों को उससे रत्तीभर भी गुरेज नहीं है। और इस बात को वह और भी अच्छे से महसूस करते हैं कि अगर वह कुछ नहीं किए तो भी अगले चुनाव में वह किसी और नफरती एजेंडे के साथ जनता के सामने आ जाएंगे और जनता खुशी-खुशी उन्हें सत्ता सौंप देगी। चुनाव जीतना ही अगर सफलता की पहली और आखिरी गारंटी है तो मोदी किसी भी हालत में उसको सुनिश्चित करना चाहते हैं।
और जहां तक रही लाशों को देख कर पसीजने की बात तो मोदी जी इसके आदी हो चुके हैं। या फिर कहिए कि वह उसी माहौल की पैदाइश हैं। इतना ही नहीं वह उसको बनाए रखना चाहते हैं। और उससे भी आगे बढ़कर कहें तो मोदी को उसमें जीना अच्छा लगता है। इसीलिए संघियों के लिए दंगा एक उत्सव होता है। उसमें होने वाली मौतों से पीड़ा और दुख की जगह उन्हें एक तरह की खुशी मिलती है। अनायास नहीं किसान आंदोलन में 300 से ज्यादा मौतें हो गयीं लेकिन मोदी ने एक शब्द भी कहना जरूरी नहीं समझा। इसलिए जिन लोगों को लगता है कि मोदी जी केवल एक समुदाय के प्रति ही संवेदनहीन हैं तो वो लोग गलतफहमी में हैं। घृणा-नफरत के माहौल में रहते-रहते उनकी पूरी जेहनियत ही इन तत्वों से भर गयी है। जिसमें न तो संवेदना है, न प्यार। भाईचारा का तो कोई सवाल ही नहीं उठता है। ऐसे में देश ने एक ऐसे शख्स को सत्ता के शीर्ष पर बैठा दिया है जिसका शरीर तो हाड़-मांस का बना है और जो देखने में इंसान जैसा लगता है लेकिन उसके बुनियादी तत्व उसके भीतर से नदारद हैं। संक्षेप में कहें तो एक मुकम्मल नफरती पुतला। जिसे सत्ता की भूख है और उसे हासिल करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है।
और अगर संक्षेप में कहें तो मोदी एक बीमारी का नाम है। और यह बीमारी पूरे समाज में फैलती जा रही है। इस कड़ी में उसने समाज के एक बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया है। मसलन बंगाल में जिस सांप्रदायिकता के एजेंडे पर यह शख्स चुनाव लड़ रहा है और लोगों को यह ख्वाब दिखा रहा है कि वह मुसलमानों को दुरुस्त करेगा और इससे हिंदुओं का लाभ होगा। वह न सिर्फ खोखला है बल्कि हकीकत के बिल्कुल उलट है। सच्चाई यह है कि उसी शख्स के कर्मों के चलते देश में सबसे ज्यादा हिंदू मारे जा रहे हैं। लेकिन अपने इस नुकसान को नजरंदाज कर लोग अगर दूसरों को नुकसान पहुंचाने के गरज से वोट कर रहे हैं तो समझा जा सकता है कि हमने कैसा परपीड़क समाज खड़ा कर लिया है। जिसमें दूसरों के गम पर खुद की खुशी तलाशने का एजेंडा देश का राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडा बन गया है। अब इन परिस्थितियों में कैसा देश बनेगा और कैसा समाज। यह सोचकर ही शरीर में सिहरन हो उठती है।
(जनचौक के संपादक महेंद्र मिश्र का लेख।)
+ There are no comments
Add yours