श्रीनगर। 29 फरवरी 2024 को आसिफ सुल्तान की छह वर्षीय बेटी अरीबा ने अपने पिता को पहली बार एक आजाद शख्स के रूप में देखा था जब वह जम्मू एवं कश्मीर और उत्तर प्रदेश के जेलों में 2010 दिन बिताने के बाद घर लौटे थे।
उससे पहले अरीबा ने उन्हें श्रीनगर केन्द्रीय जेल में जालीदार दीवार के पीछे हथकड़ियों में सलाखों के पीछे देखा था। बाद में तो उन्हें उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर जिला जेल और फिर जम्मू के कोट भलवल जेल में ले जाया गया।
आसिफ के 67-वर्षीय पिता मोहम्मद सुल्तान सैयद ने सुल्तान के साढ़े पांच साल बाद घर लौटने वाले दिन के बारे में कहा, “ऐसा लगा कि अरीबा पहली बार अपने पिता को देख रही थी।”
लेकिन, सुल्तान और उनकी बेटी के लिए खोए वर्षों को भुलाकर नई शुरुआत करने की उम्मीदें उस समय टूट गईं जब जम्मू एवं कश्मीर पुलिस ने उन्हें उसी दिन एक पाँच साल पुराने मामले में फिर गिरफ्तार कर लिया।
सैयद, जो कुछ वर्ष पहले एक सरकारी कार्यालय में क्लर्क की नौकरी से सेवानिवृत्त हुए थे, ने कहा, “आसिफ के फिर गिरफ्तार होते ही, अरीबा ने मुझसे पूछा कि वह तो अभी लौटे थे, फिर कहाँ गए? मैंने बताया कि उसने अभी आधी कुरान पढ़ी है, अब वह पूरी पढ़ने गया है। एक छह साल की बच्ची से मैं और क्या कहता? मैं उम्मीद ही कर सकता हूँ कि वह ईद के दिन तक लौट आए।”
ईद आकर चली गई, लेकिन सुल्तान 4 अप्रैल 2019 को श्रीनगर केन्द्रीय जेल के अंदर हुड़दंग की एक घटना से सम्बद्ध यूएपीए मामले में जेल में है।
जम्मू एवं कश्मीर पुलिस ने सुल्तान को उसी दिन गिरफ्तार किया, जिस दिन वह घर लौटे थे। उन्हें अगस्त 2018 के यूएपीए मामले में अप्रैल 2022 में जमानत मिली थी और अगस्त 2019 में जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत हिरासत आदेश 7 दिसम्बर 2023 को रद्द किया गया था।
उत्तर प्रदेश में जेल अधिकारियों ने 78 दिन यानी ढाई महीने से अधिक समय सुल्तान को रिहा करने में लिया। गृह सचिव ने उनके खिलाफ मामले को 15 फरवरी 2024 को स्वीकृति दी, यानी उनके रिहा होने के दो सप्ताह पहले।
जम्मू एवं कश्मीर पुलिस का आरोप था कि सुल्तान हिजबुल आतंकियों के “ओवरग्राउन्ड कार्यकर्ता” (ओजीडब्ल्यू) थे। पुलिस ने उन्हें जुलाई में आतंकियों और सुरक्षा बलों के बीच श्रीनगर में एक गोलीबारी की घटना को लेकर 31 अगस्त 2018 को गिरफ्तार किया था। इसमें एक पुलिसकर्मी की मौत हुई थी।
न्यायाधीश जिन्होंने सुल्तान को 5 अप्रैल 2022 को जमानत दी, कहा था कि कथित अपराधों से सुल्तान को जोड़ने के लिए न तो “प्रत्यक्ष प्रमाण” था और न ही “ठोस सबूत।”
न्यायाधीश ने कहा कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं था जो उनके किसी आतंकी समूह से जुड़े होने का संकेत देता, गवाहों ने उनके खिलाफ कुछ नहीं बोला और सह-आरोपियों उन्हें पहचाना नहीं।
कश्मीर रीडर में सुल्तान के एक पूर्व सहकर्मी ने पहचान गुप्त रखने की शर्त पर कहा, “2018 में आसिफ के मामले के साथ कश्मीर में मीडिया पर शिकंजा कसने की शुरुआत हुई। यह आसिफ के खिलाफ नहीं, कश्मीरी पत्रकारिता के खिलाफ आरोपपत्र था।”
नब्बे के दशक की शुरुआत से उग्रवाद झेल रहे मुस्लिम बहुल क्षेत्र में 2018 में सुल्तान की गिरफ़्तारी के बाद, कश्मीरी सरकार के बारे में आलोचनात्मक अंदाज में बोलने या लिखने वाले पत्रकारों पर अबाधित हमले शुरू हुए। पत्रकारों के लिए स्थिति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के जम्मू एवं कश्मीर की सीमित स्वायत्तता समाप्त करने और इसे केंद्र शासित प्रदेश बनाने व सीधे केंद्र सरकार के नियंत्रण में लाने के बाद और बिगड़ गई।
आलोचनात्मक खबरों के बारे में सफाई देने के लिए पत्रकारों को बुलाना, उनके घरों की तलाशी लेना, मामले दर्ज करना, गंभीर अपराधों के आरोप लगाना और गिरफ्तारियों ने प्रेस की कमर तोड़ दी, जबकि उससे पहले दुनिया के सबसे ज्यादा सैन्यीकृत ज़ोन में वह मानवाधिकार उल्लंघनों, सरकारी विफलताओं और लोगों के बारे में लिख सकते थे।
ह्यूमन राइट्स वाच के अनुसार 2019 से, कम से कम 35 कश्मीरी पत्रकारों को रिपोर्टिंग के कारण “पुलिसिया पूछताछ, छापों, धमकियों, शारीरिक हमलों, कहीं आने-जाने की आज़ादी पर पाबंदियों, या फर्जी आपराधिक मामलों” का सामना करना पड़ा है। उनमें से कुछ को देश के बाहर जाने नहीं दिया गया, जिनमें सन्ना इरशाद मट्टू शामिल हैं जिन्हें ऑक्टोबर 2022 में फोटोग्राफी के लिए पुलिट्ज़र पुरस्कार लेने जाने से रोका गया।
सुल्तान के मामले के अलावा, पांच अन्य पत्रकारों – फहाद शाह, गौहर जीलानी, मसरत जाहर, मनन गुलजार दर, इरफान मेहराज – पर यूएपीए मामले लगाए गए हैं और तीन पत्रकार फहाद शाह, काजी शिबली, सजाद गुल – पर पीएसए के तहत मामले दर्ज हैं। तीन पत्रकार – सजाद गुल, इरफान महराज और सुल्तान – अब भी सलाखों के पीछे हैं।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की तरफ से प्रकाशित वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स पर भारत 2023 में 161 वें क्रमांक पर था, जो दो दशक में सबसे निचली स्थिति है। सुल्तान का मामला पत्रकारों और प्रेस की आजादी के खिलाफ राज्य उत्पीड़न के बड़े वैश्विक मामलों में से एक बन चुका है।
2019 में यूनाइटेड स्टेट्स नैशनल प्रेस क्लब ने सुल्तान को जॉन ऑबुचान प्रेस फ्रीडम अवॉर्ड दिया। एक बयान में नैशनल प्रेस ने कहा, “सुल्तान का मामला कश्मीर में प्रेस और नागरिकों के लिए बदत्तर होते हालात को प्रतिबिंबित करता है।”
सुल्तान के मामले का जिक्र टाइम पत्रिका के 2019 मई संस्करण में “दुनिया में प्रेस की आजादी को खतरा दर्शाने वाले सर्वाधिक महत्वपूर्ण मामलों में से एक” के रूप में किया।
2020 में कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स ने 400 पत्रकारों और नागरिक समाज सदस्यों के साथ “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आसिफ सुल्तान की “तुरंत और बिना शर्त रिहाई” का अनुरोध किया।”
सुल्तान के एक दोस्त, जो अब भी पत्रकारिता कर रहे हैं लेकिन अधिकारियों का ध्यान आकर्षित करने वाले विषयों पर रिपोर्ट नहीं करते, ने कहा, “सत्ता ने आसिफ और उनके पारिवारिक जीवन के पाँच साल छीन लिए, वह भी सिर्फ उनके अपना काम करने पर।”
“आज, दूसरे पत्रकार आसिफ के मामले को एक भयावह मिसाल के रूप में देखते हैं कि सत्ता किस हद तक जा सकती है।”
फिर से गिरफ़्तारी
सैयद ने बताया सुल्तान 29 फरवरी की दोपहर ही घर पहुंचा था। करीब चार बजे फोन आया, जो उनके भाई ने उठाया। फोन बतमालू पुलिस स्टेशन से था और कहा गया कि आसिफ को कुछ कागजों पर हस्ताक्षर करने हैं क्योंकि उसे जम्मू एवं कश्मीर से बाहर जेल में रखा गया था।
सैयद और उनके भाई भी आसिफ के साथ पुलिस स्टेशन गए। आसिफ को अचानक चक्कर आने लगे तो वह उन्हें श्री महाराजा हरी सिंह अस्पताल ले गए। एक पुलिसकर्मी उनके साथ था।
जब वह करीब नौ बजे पुलिस स्टेशन लौटे तो पुलिस सुल्तान को रैनवारी पुलिस स्टेशन ले गई। वहां आसिफ को फिर गिरफ्तार कर लिया गया। उस दिन उनके परिवार को पता नहीं चला कि उन्हें क्यों गिरफ़्तार किया गया है।
सुल्तान के वकील आदिल अब्दुलाह पंडित ने कहा कि पुलिस ने अप्रैल 2019 में श्रीनगर केन्द्रीय जेल में हुड़दंग की एक घटना से संबंध यूएपीए के तहत दूसरा केस दर्ज किया है। जब हमने उनसे पिछले सप्ताह बात की, पारिवारिक सदस्यों को मामले के बारे में अधिक जानकारी नहीं थी।
बैरेक में हुड़दंग
यह अफवाह फैलने के बाद कि लॉकअप परिसर में मरम्मत कार्य के कारण कैदियों को घाटी से बाहर ले जाया जाएगा, 04 अप्रैल 2019 को श्रीनगर जेल के कैदियों की स्टाफ सदस्यों के साथ झड़प हुई। उसी दिन श्रीनगर की रैनावारी पुलिस स्टेशन में यूएपीए की धारा 13 और रणबीर दंड संहिता (अब भारतीय दंड संहिता) की “दंगा करने”, “घातक हथियार से लैस होकर दंगा करने” , “जान जोखिम में डालने”, “संपत्ति को नुकसान पहुँचने”, “सरकारी कर्मचारी को नुकसान पहुंचाने” और “हत्या के प्रयास” जैसे आरोपों में नौ धाराओं के तहत एक प्राथमिकी दर्ज की गई।
पुलिस के अनुसार, पुलिस ने मरम्मत के तौर पर बैरेक के एक हिस्से को हटा दिया था, जो कैदी “भारत-विरोधी/गैरकानूनी गतिविधियों” को अंजाम देने के लिए कर रहे थे, जिसके बाद आसपास के बैरकों के कैदियों ने भारत विरोधी नारेबाजी की, तालों के हत्थे, दरवाजे, खिड़कियों और वेंटीलेटर तोड़े। फिर मजदूरों और जेल स्टाफ पर पथराव किया।
पुलिस ने कहा कि कैदियों ने कैदियों की कैन्टीन से सात गैस सिलेंडर भी हथियाए और मुख्य दरवाजे के निकट समेत जेल के विभिन्न हिस्सों में, उनमें आग लगा दी। बत्तियाँ तोड़ी गईं, सीसीटीवी कैमरे तोड़े गए और नई बनी दीवार तोड़ दी।
तत्कालीन पुलिस व जेल महानिदेशक दिलबाग सिंह ने कहा था कि कैदियों ने जेल में एक ढांचे को भी जला दिया था। हालांकि, कथित रूप से केन्द्रीय जेल में हंगामे के दिन शूट किए वीडियो में दर्शाया गया है कि कुछ और ही हुआ था।
संभवत: एक कैदी की आवाज (कैमरे पर चेहरा नहीं है) के अनुसार जेल अधिकारियों ने “कुरान की बेअदबी की थी और कैदियों ने उसके खिलाफ विरोध किया था।”
सुल्तान के वकील पंडित ने श्रीनगर के सत्र न्यायालय में 1 मार्च 2024 को जमानत अर्जी दाखिल की।
जमानत का विरोध करती अपनी अर्जी में सरकार ने – हंगामे के लगभग पांच साल बाद – आरोप लगाया कि 26 आरोपी कैदियों में सुल्तान ने एक और कैदी के साथ मिलकर “मुख्य आरोपी” और “उकसाने वाले” की भूमिका निभाई।
सरकार का यह भी आरोप है कि सुल्तान ने जेल के बैरकों को आग लगाने में, “सरकारी कर्मचारियों पर हमले”, “हत्या के प्रयास”, “राष्ट्र विरोधी नारे लगाने” और “राष्ट्रीय अखंडता के खिलाफ द्वेष फैलाने” में “मुख्य भूमिका” निभाई थी।
यह दावा करते हुए कि सुल्तान में “राष्ट्र-विरोधी रुझान” हैं और “अमन व चैन को प्रभावित करने” की दिशा में केंद्रित है, पुलिस ने कहा है कि सुल्तान में “आतंकवादी तत्वों से जुड़ने या ऐसे आतंकवादी संगठनों की मदद करने” की सोच है।
पुलिस ने कहा, “यदि आरोपी को जमानत पर रिहा किया गया तो मामले में प्रमाण से छेड़छाड़ और मामले को प्रभावित करने की संभावना है।”
वकील ने 19 मार्च 2024 को आर्टिकल 14 से कहा, “मुझे विश्वास है कि इस मामले में सही समय पर हमें कुछ सकारात्मक हासिल होगा।”
पत्रकारिता को चुनना
जो सुल्तान को जानते हैं, वह उसे खाँटी पत्रकार बताते हैं, जो परंपरागत पहनावा पहनता था, धीमे बोलता था और अपना काम चुपचाप और बेहतरीन तरीके से करता था। वह ज्यादा बोलते नहीं थे और कार्यालय की राजनीति या गॉसिप में हिस्सा नहीं लेते थे।
मीडिया एजुकेशन रिसर्च सेंटर (एमईआरसी) में उनके सहपाठी और अब वरिष्ठ पत्रकार ने गोपनीयता की शर्त पर बताया, “यह सही है कि बिरादरी से वह कम ही संवाद करते थे, लेकिन वह जेन्टलमैन थे, जो अपने काम से मतलब रखते थे और पत्रकारीय सर्कल में कम ही शामिल रहते थे।”
एक पूर्व स्वास्थ्य कर्मचारी के बेटे के रूप में, सुल्तान को अपने अभिभावकों की इच्छा पूरी करते हुए चिकित्सा करिअर में जाना था। लेकिन, तीन बच्चों में सबसे छोटे, सुल्तान में कम उम्र में ही लिखने का जुनून पैदा हुआ और शैक्षणिक वर्षों के दौरान उन्होंने इसे निखारा।
अपने पिता की अपेक्षानुसार उन्होंने श्रीनगर के श्री प्रताप कॉलेज से माइक्रोबाइलॉजी में अन्डरग्ग्रेजुएट पाठ्यक्रम लिया। 2008 में यह पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद सुल्तान ने कश्मीर विश्वविद्यालय में पत्रकारिता, लायब्रेरी विज्ञान और माइक्रोबाइलॉजी में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए आवेदन किया, जो स्वीकार किया गया।
लेखन के प्रति अपने जुनून को पूरा करने और अपने पिता की आकांक्षाओं को पूरा करने के संघर्ष के बीच सुल्तान ने पत्रकारिता को चुना। लेकिन, इस निर्णय पर उन्हें उनके पिता से कश्मीर जैसे संकटग्रस्त क्षेत्र में पत्रकारिता करने के खतरों के प्रति चेतावनी भी मिली। वह अपने परिवार में पत्रकार बनने वाले पहले सदस्य थे।
सुल्तान के बचपन के मित्र नाम न बताने की शर्त पर बताते हैं, “उन्होंने पत्रकारिता के बेसिक्स सीखने में अपना जी-जान लगा दिया। वह बहुत अनुशासित, धार्मिक और ईमानदार हैं। इसका सवाल ही नहीं उठता कि उन्होंने पेशे के मूल्यों से कभी समझौता किया होगा।”
एक छात्र के रूप में सुल्तान कश्मीर विश्वविद्यालय के मीडिया एजुकेशन रिसर्च सेंटर (एमईआरसी) विभाग से जुड़े, जहां किस्मत ने शौकत मोत्ता से मिलाया जो उसी विभाग से कभी जुड़े रहे थे और श्रीनगर में मासिक पत्रिका कन्वेयर के संपादक थे। उन्होंने सुल्तान को उनके प्रोफेसर की सिफारिश पर इन्टर्नशिप का प्रस्ताव दिया।
2009 में सुल्तान कन्वेयर में नियुक्त हुए। पत्रिका में राजनीति, मानवाधिकार और पर्यावरण का कवरेज होता था। यहां उन्होंने 2012 तक कार्य किया। पत्रिका घाटे में चलने के कारण बंद हो गई।
मई 2012 में सुल्तान कश्मीर रीडर और फिर 2015 में कश्मीर नैरेटर से जुड़े। 4 अप्रैल 2018 को, सुल्तान (अब बंद हो चुके) कश्मीर नैरेटर में सहायक संपादक थे, उन्होंने “जब शोपीयां कचदूरा में एक मरते हुए बागी ने अपने खून से कलीमा लिखा” शीर्षक से एक रिपोर्ट दी। उसके साथ दीवार पर लिखी इबारत की तस्वीर थी।
खबर 1 अप्रैल 2018 को दक्षिणी कश्मीर के शोपीयां जिले के गांव कचदूरा में एक मुठभेड़ पर आधारित थी, जिसमें सुरक्षा बलों ने पाँच उग्रवादियों को मार गिराया था। इस घटना में तीन सैनिक और तीन नागरिक भी मारे गए थे।
कश्मीर नैरेटर के एक पूर्व कर्मचारी ने गोपनीयता की शर्त पर बताया कि खबर प्रकाशित होने के बाद अखबार के मालिक और संपादक शौकत मोत्ता को सीआईडी से फोन आया और दोनों पर उग्रवाद को महिमामंडित करने का आरोप लगाया गया।
उक्त कर्मचारी के अनुसार, “एक ईमानदार पत्रकार के रूप में आसिफ, जो ऑनलाइन डेस्क संभालते थे, हर तरह की खबर करते थे, जिनमें पथराव समेत अन्य घटनाओं की खबरें होती थीं। उनके लिए यह घटनाएं महज खबरें होती थीं। सरकार आसिफ के विविधिकृत रिपोर्टिंग पोर्टफोलियो नहीं देख सकी जिसमें राजनीति, पर्यावरण, शिक्षा और सामाजिक मुद्दों पर रिपोर्टिंग शामिल थी।”
कर्मचारी के अनुसार, उस समय पुलिस ने सुल्तान के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की लेकिन वह अधिकारियों की नजर में आ गए।
कर्मचारी ने बताया, “आज, भले आसिफ पर बेतुके आरोपों में मामले चल रहे हों या गिरफ़्तारी पर गिरफ़्तारी हो रही हो, यह सब उसी खबर से शुरू हुआ था।”
कचदूरा घटना पर खबर छपने के दो महीने बाद आसिफ ने दो साल पाले मारे गए हिजबुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वाणी (जिसके बाद कश्मीर में अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन हुए थे जिनमें लगभर 100 नागरिक मारे गए थे) पर एक खबर दी। कश्मीर नैरेटर ने वाणी पर 1 जुलाई 2018 को एक लेख प्रकाशित किया। 4000 शब्दों की खबर का शीर्षक था, “राइज़ ऑफ बुरहान वाणी”।
पूर्व ओजीडब्ल्यू, युद्ध विशेषज्ञों और पुलिस सूत्रों से साक्षात्कार पर आधारित खबर मारे गए कमांडर के जीवन की गहरी पड़ताल करती है और सवाल पूछती है, “जीते-जी बुरहान के मुकाबले कब्र में बुरहान क्यों घातक साबित हो रहा है?”
ओजीडब्ल्यू यानी ओवरग्राउन्ड वर्कर्स वह लोग हैं जो उग्रवादियों को मदद, नकदी और शरण मुहैया कराते हैं लेकिन अपना घर या गाँव छोड़कर हथियार नहीं उठाते।
सुल्तान के एक पूर्व सहकर्मी ने बताया, “आसिफ बुरहान वाणी के उग्रवादी कमांडर के रूप में जीवन को एक नए एंगल से टटोलना चाहते थे। उन्होंने कुछ पूर्व ओजीडब्ल्यू से एक्सक्लूसिव बातचीत की जो कभी वाणी के नेटवर्क का हिस्सा थे। खबर में एक्सक्लूसिव विवरण के साथ कुछ ऐसी तस्वीरें भी थीं जो पहले कभी नहीं देखी गई थीं।”
खबर कई दिनों तक कश्मीर में चर्चा का विषय बनी और अधिकारियों का ध्यान खींचा।
कर्मचारी के अनुसार खबर प्रकाशन के कुछ दिन बाद पुलिस ने कश्मीर नैरेटर पर “पत्रकारीय मूल्यों को तोड़ने” और “आतंकवादी को रोमांटेसाइज़ करने” का आरोप लगाया और संपादक से सफाई मांगी गई कि खबर क्यों प्रकाशित की गई।
हालांकि, मामले ने तुरंत तूल नहीं पकड़ा। लगभग दो महीने बाद, 27 अगस्त को पुलिस ने सुल्तान के घर छापा मारा और उन पर आतंकी मामला दर्ज किया और तीन दिन बाद गिरफ्तार किया।
गिरफ़्तारी
सुल्तान के खिलाफ मामला 12 अगस्त 2018 को दर्ज किया गया था। उस दिन सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों के एक समूह के छिपे होने की सूचना के बाद श्रीनगर के बतमलू इलाके में एक घर को घेर लिया था।
जब उन्होंने घर की तलाशी शुरू की, अंदर से आतंकवादियों ने गोलियां चलानी शुरू कीं, जिसमें चार सुरक्षा बल कर्मी घायल हो गए। उनमें से एक, जम्मू एवं कश्मीर पुलिस से सम्बद्ध, की मौत हो गई। आतंकवादी भागने में सफल रहे।
घर जहां आतंकवादियों ने शरण ली थी मोहम्मद शफीक भट्ट का था, जो एक पूर्व आतंकवादी था, बतमलू के दियारवानी इलाके से था। सुल्तान का घर इस घटनास्थल से एक किलोमीटर से ज्यादा दूर है।
उसी दिन, पुलिस ने बतमलू पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज किया और भट्ट को “घर में आतंकवादियों को छिपाने और शरण देने” के आरोप में गिरफ्तार किया।
पुलिस ने उसी इलाके से 30 वर्षीय वसीम अहमद खान को भी “सक्रिय आतंकियों को सहायता देने उनके साथ षड्यन्त्र रचने..” को लेकर गिरफ्तार किया।
पुलिस के 6 फरवरी 2019 को दाखिल आरोपपत्र के अनुसार भट्ट ने तीन आतंकियों की शिनाख्त की जो उसके घर पर रह रहे थे और जो उन्हें वहाँ लाए थे। आरोपपत्र ने तीन अन्य की शिनाख्त बिलाल अहमद भट्ट, शाज़िया याकूब और आसिफ सुल्तान – सह-षड्यंत्रकारियों और आतंकियों के सहयोगियों के रूप में की।
जहां, सह-आरोपी बिलाल और शाज़िया 23 अगस्त को गिरफ्तार किया गया था, वहीं सुल्तान को उनके घर से चार दिन बाद उठाया गया और उनकी औपचारिक गिरफ़्तारी तक कथित रूप से अवैध हिरासत में रखा।
सुल्तान के खिलाफ आरोपपत्र के अनुसार वह मारे गए हिजबुल मुजाहिदीन आतंकवादी अब्बास शेख को “शरण देने और सहायता करने” और “उसकी श्रीनगर शहर में आतंकी गतिविधियों को बढ़ाने” में संलिप्त थे।
आरोपपत्र में पुलिस ने दावा किया कि सुल्तान प्रतिबंधित आतंकी समूह हिजबुल मुजाहिदीन के लिए काम करते थे और सुल्तान के घर से गिरफ़्तारी के समय आतंकी संगठन के लेटरहेड के 17 पन्ने बरामद किए गए थे। आरोपपत्र में आरोप था कि सुल्तान अपने फेसबुक अकाउंट से हिजबुल मुजाहिदीन के संदेशों का “वितरण, पोस्टिंग और प्रचार” करते थे।
बाद में, सुल्तान पर छह यूएपीए अपराधों और आईपीसी की पाँच धाराओं के तहत आरोप लगाए गए जिनमें हत्या, हत्या का प्रयास, खतरनाक हथियारों से गंभीर चोट पहुंचना, आपराधिक षड्यन्त्र और अन्य कइयों के साथ मिलकर संयुक्त इरादे से अपराध में लिप्त होने के आरोप शामिल थे।
सुल्तान के खिलाफ यूएपीए आरोप “आतंकवादी गतिविधि”, “षड्यन्त्र” “किसी आतंकी गिरोह और आतंकी संगठन का सदस्य होना”, “किसी आतंकवादी संगठन की सदस्यता” और “किसी आतंकवादी संगठन की सहायता “ थे।
मुकदमा 2019 में शुरू हुआ और अभी तक चल रहा है। सुल्तान ने 4 सितंबर 2018 को जमानत के लिए आवेदन किया और 5 अप्रैल 2022 को उन्हें जमानत मिली।
प्रमाण नहीं
राष्ट्रीय जांच एजंसी (एनएआई) अदालत के न्यायाधीश मंजीत सिंह मनहास ने सुल्तान को जमानत दी क्योंकि “जांच एजंसियाँ उनके किसी आतंकी समूह से संबंध स्थापित करने में विफल रहीं।”
5 अप्रैल 2022 के आदेश में विशेष अदालत ने कहा कि मामले में पुलिस के दर्शाये गवाहों ने “आरोपी के खिलाफ़ ऐसा कुछ भी नहीं कहा” जो सुल्तान को कथित अपराधों से जोड़ पाता।
यूएपीए की धारा 39, जो सुल्तान के खिलाफ घर से “पुलिस द्वारा बरामद” हिजबुल मुजाहिदीन के लेटरहेड को लेकर लगाई गई थी, पर सवाल उठाते हुए न्यायाधीश मनहास ने कहा कि किसी गवाह ने “न तो लेटर पैड की शिनाख्त की और न ही अभियोजन पक्ष की तरफ से वह इग्ज़िबिट किए गए ताकि अदालत के समय शिनाख्त की जा सके कि वह आसिफ सुल्तान के घर से बरामद किए गए थे।”
उन्होंने कहा, “इसके अलावा, अभियोजन पक्ष ने न तो लेटरहेड की छपाई के बारे में जांच की और न वह प्रिंटर बरामद किया, जिस पर लेटर पैड छपे थे।”
अदालत ने बरामदगी पर ध्यान खींचते हुए कहा कि आरोपी शाज़िया ने बताया था कि उसने हिजबुल मुजाहिदीन के लेटरहेड आसिफ सुल्तान को दिए थे लेकिन तस्वीर शिनाख्त परेड के अनुसार… शाज़िया याकूब ने स्पष्ट रूप से कहा, “वह तस्वीर क्रमांक 6 (जो आसिफ सुल्तान की है) के बारे में नहीं जानती।
फिर से गिरफ्तार
हालांकि, जब तक सुल्तान को पहले यूएपीए मामले में अप्रैल 2022 में जमानत मिलती, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को कश्मीर की सीमित स्वायत्तता वापस लिए दो साल से अधिक समय बीत चुका था और यह सीधे नई दिल्ली के नियंत्रण में आ चुका था और घाटी में प्रतिरोध के खिलाफ हमला तीव्र हो चुका था।
कश्मीर का विशेष दर्जा निरस्त करने के बाद, सरकार ने जन सुरक्षा अधिनियम, 1978 (पीएसए) का इस्तेमाल प्रतिरोध को दबाने के लिए करना शुरू किया, जो जम्मू एवं कश्मीर में प्रशासनिक हिरासत का कानून था और जिसे ऐमनेस्टी इंटरनेशनल “कानूनविहीन कानून” करार था। इसके तहत एक व्यक्ति को “राज्य की सुरक्षा को खतरे में डालने या कानून व्यवस्था बनाए रखने” के खिलाफ कार्य करने से रोकने के लिए हिरासत में लिया जा सकता है।
पीएसए लोगों को बिना कोई औपचारिक आरोप लगाए या मुकदमे के दो साल तक हिरासत में रखने की इजाजत देता है। यह उस व्यक्ति पर भी लगाया जा सकता है जो पहले से पुलिस हिरासत में है, जिसे अदालत से जमानत मिली हो, या भले जिसे अदालत ने बरी कर दिया हो।
5 अगस्त 2019 के बाद से नई दिल्ली द्वारा नियुक्त जम्मू एवं कश्मीर प्रशासन ने इस कानून का इस्तेमाल आलोचकों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ किया है, उन्हें जेल से बाहर निकलने न देने के लिए। सुल्तान भी उनमें से एक थे।
इससे पहले कि उन्हें रिहा किया जाता, राज्य ने उन पर पीएसए लगाया और श्रीनगर केन्द्रीय जेल से 245 किलोमीटर दूर जम्मू के कोट बलवल जेल में भेजा जो उनके श्रीनगर स्थित घर से 250 किलोमीटर दूर था।
सुल्तान के पीएसए में निम्नलिखित आरोप शामिल थे : वह लेखों के जरिए अलगाववाद के विचार की पैरोकारी कर रहे थे।”
पीएसए डोजीयर के अनुसार, “आपकी हर खबर का शीर्षक उस प्रचार को दर्शाता है, जो आप फैलाना चाहते हैं। आपका तरीका भारत विरोधी भावनाओं को दर्शाने वाले पीड़ित नैरेटिव पर आधारित खबरें करने का है।”
राज्य ने यह भी दावा किया कि वह आतंकी संगठन अंसार गजवा उल हिन्द के लिए ओजीडब्ल्यू के रूप में कार्यरत थे। यह भी कहा गया कि सुल्तान, जो एक ओजीडब्ल्यू थे, ने अपने इलाके में “युवाओं को गैरकानूनी गतिविधियों में शामिल होने के लिए उकसाया था।” और “आतंकी संगठनों द रेज़िस्टन्स फ्रन्ट और जैश-ए-मोहम्मद की गतिविधियों” में मदद की थी।
आदेश निरस्त
1 मई 2022 को सुल्तान को जम्मू के कोट बलवल जेल से उत्तर प्रदेश के आगरा में अंबेडकर नगर जेल में भेजा गया जो उनके घर से 1500 किलोमीटर दूर था। यहाँ उन्हें 22 महीने यानि तब तक रखा गया, जब तक कि जम्मू एवं कश्मीर एवं लद्दाख उच्च न्यायालय के न्यायाधीश विनोद चटर्जी कौल ने 7 दिसंबर 2023 को वह आदेश निरस्त नहीं कर दिया।
फैसले में कहा गया कि अधिकारियों ने सुल्तान को हिरासत में रखने के लिए प्रक्रियागत आवश्यकताओं का पालन नहीं किया।
न्यायाधीश कौल ने अपने आदेश में कहा कि ऐसा लगता है कि अधिकारियों ने सुल्तान को पीएसए में हिरासत में लेते हुए यूएपीए के तहत मामले को ध्यान में रखा था। लेकिन हिरासत आदेश यह नहीं दिखाता कि अधिकारियों ने सुल्तान को एफआईआर की प्रतियां या अपराध प्रक्रिया की धारा 161 के तहत दर्ज बयानों की प्रतियां दीं।
न्यायाधीश कौल ने अधिकारियों को सुल्तान को रिहा करने का निर्देश देते हुए लिखा, “हिरासत में लेने वाले अधिकारियों की तरफ से हिरासत आदेश के समय निर्भर सामग्री की आपूर्ति कैदी को करने में विफलता हिरासत आदेश को गैरकानूनी और न टिकने वाला बनाती है। यदि वह किसी और मामले में आवश्यक नहीं है तो रिहा किया जाए।” लेकिन न्यायाधीश कौल के आदेश के बावजूद, राज्य ने आसिफ सुल्तान को रिहा करने में 78 दिन लिए/।
जेल अधिकारियों ने कहा कि देरी का कारण उन्हें कश्मीर में अधिकारियों से “क्लियरेन्स पत्र” प्राप्त करना था।
अब भी सलाखों के पीछे
परिवार की यह उम्मीद कि अब आजादी लंबे समय तक रहेगी, जल्द ही टूट गई जब जम्मू एवं कश्मीर पुलिस ने सुल्तान को जेल हुड़दंग मामले में फिर से गिरफ्तार कर लिया।
उनकी नियति ने उनके पत्रकार दोस्तों को बेचैन कर दिया है, जिन्होंने या तो पेशा ही छोड़ दिया था या फिर “वैसी” खबरें कवर करना छोड़ दिया था।
कश्मीर नैरेटर अनुच्छेद 370 हटाने के बाद से ही बंद है। सितंबर 2021 में पुलिस ने सुल्तान के पूर्व संपादक शौकत मोत्ता और तीन अन्य पत्रकारों – हिलाल मीर, शाह अब्बास और अज़हर कादरी के घरों पर छापे मारे।
छापे 2020 में श्रीनगर के कोठी बाग पुलिस थाने में “अज्ञात लोगों” के खिलाफ यूएपीए की धारा 13 और आईपीसी की धारा 506 के तहत दाखिल मामले में मारे गए थे। यूएपीए की धारा 13 ऐसे संदिग्धों को लेकर है जो, “किसी भी गैरकानूनी गतिविधि को अंजाम देने की पैरोकारी करते हैं, मदद करते हैं, सलाह देते हैं या उकसाते हैं” जबकि आईपीसी की धारा 506 “आपराधिक धमकी” से सम्बद्ध है।
आर्टिकल 14 ने सुल्तान के पूर्व सहकर्मियों और दोस्तों से बात की, जिनका यही कहना था: “सुल्तान को उनकी पत्रकारिता के कारण निशाना बनाया गया।”
कश्मीर नैरेटर में उनके सहकर्मी के अनुसार, राज्य ने आसिफ को एक “आसान लक्ष्य” के रूप में इस्तेमाल किया उन लोगों के लिए मिसाल पेश करने के लिए जो “सरकारी लाइन पर नहीं चलते।” सहकर्मी के अनुसार, “यह स्पष्ट था कि उनकी आलोचनात्मक पत्रकारिता राज्य की आँखों में कांटे की तरह चुभ रही थी और वह कश्मीर में इस तरह की पत्रकारिता को समाप्त करना चाहते थे। वह ऐसा करने में सफल भी रहे। उनकी गिरफ़्तारी के बाद राज्य के खिलाफ लिखने की हिम्मत करने वालों को प्रताड़ित किया जाता है और फर्जी आरोपों में मुकदमे किए जाते हैं।” सहकर्मी ने कहा कि, “उनके लिए, कश्मीर को “संघर्ष” से जोड़ने वाली कोई भी आलोचनात्मक जानकारी राष्ट्र विरोधी है।”
सुल्तान की बेटी अरीबा को जब बताया गया था कि उसके पिता कुरान पढ़ने गए हैं, दो महीने बीत चुके हैं। सुल्तान के पिता पूछते हैं, “अरीबा को हम ऐसी कहानियाँ कब तक सुना सकते हैं।”
(तस्वीर और रिपोर्ट आर्टिकल 14 से साभार)
+ There are no comments
Add yours