Friday, April 26, 2024

न्यायपालिका में SC-ST, OBC, अल्पसंख्यक तथा महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए संविधान में कोई फ्रेमवर्क नहीं

यह स्वीकार करते हुए कि न्यायपालिका में अनु.जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक तथा महिलाओं, की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए संविधान में कोई फ्रेमवर्क नहीं है, तत्कालीन चीफ जस्टिस रमना ने देश के 25 उच्च न्यायालयों के सभी मुख्य न्यायाधीशों से इस बात पर चर्चा की थी कि उच्च न्यायालयों की कॉलेजियम को जजों की नियुक्ति की सिफारिश करते समय अनु.जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक तथा महिलाओं की भागीदारी पर ध्यान देना जरुरी है। जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली पर न्यायपालिका के खिलाफ मोदी सरकार ने हल्ला बोल रखा है और सेलेक्टेड लीक कर रही है।

न्याय विभाग की तरफ से संसदीय समिति को पिछले 5 साल के दौरान हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति को लेकर विस्तृत जानकारी दी गई है जिसमें कहा गया है कि पिछले पांच वर्षों में हाईकोर्टों में नियुक्त जजों में से 1.3 % जज अनुसूचित जनजाति, 2.8 % अनुसूचित जाति, 11 % ओबीसी से थे,लेकिन यह नहीं बताया गया है कि विभिन्न हाईकोर्ट ने मूलतः कितने नामों की सिफारिश की जिनमें से नियुक्ति की क्राईटेरिया और आईबी रिपोर्ट के तहत कितने नाम चयनित करके सुप्रीमकोर्ट कॉलेजियम को भेजे गये और काटे गये नाम में कितने प्रतिशत ओबीसी और दलित वर्ग के लोगों के थे।

देश में जूडिशरी में नियुक्तियों को लेकर संसदीय समिति के सामने अहम जानकारी सामने है। न्याय विभाग की तरफ से संसदीय समिति को पिछले 5 साल के दौरान हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति को लेकर विस्तृत जानकारी दी गई है।इसमें सामने आया है कि जजों की नियुक्ति में समावेशी और सामाजिक विविधता की कमी है।

न्याय विभाग ने कहा कि जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका की प्रधानता के तीन दशकों के बाद भी यह समावेशी और सामाजिक रूप से विविध नहीं बन पाया है। विभाग ने साथ ही कहा कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति के प्रस्तावों की शुरुआत कॉलेजियम द्वारा की जाती है, इसलिए अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अल्पसंख्यक और महिलाओं के बीच से उपयुक्त उम्मीदवारों के नामों की सिफारिश करके सामाजिक विविधता के मुद्दे को हल करने की प्राथमिक जिम्मेदारी उसकी बनती है।

विभाग ने कहा कि वर्तमान प्रणाली में, सरकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों के जजों के रूप में नियुक्त कर सकती है, जिनकी शीर्ष अदालत के कॉलेजियम द्वारा सिफारिश की जाती है। न्याय विभाग ने इस पर चुप्पी साध ली है कि हाईकोर्ट से नाम जाने के पहले चयन मापदंड में किस तरह कमजोर वर्गों के नाम काटे जाते हैं।

न्याय विभाग ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता एवं बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी की अध्यक्षता वाले कार्मिक, लोक शिकायत, कानून एवं न्याय पर संसद की स्थायी समिति के समक्ष एक विस्तृत प्रस्तुति दी। विभाग ने इसमें कहा, ‘न्यायपालिका को संवैधानिक अदालतों में जजों की नियुक्ति में प्रमुख भूमिका निभाते लगभग 30 साल हो गए हैं। हालांकि, सामाजिक विविधता की आवश्यकता पर ध्यान देते हुए उच्च न्यायपालिका को समावेशी एवं प्रतिनिधिक बनाने की आकांक्षा अभी तक हासिल नहीं हुई है।’

विभाग ने कहा कि सरकार हाईकोर्टों के मुख्य जजों से अनुरोध करती रही है कि जजों की नियुक्ति के लिए प्रस्ताव भेजते समय, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यकों और महिलाओं से संबंधित उपयुक्त उम्मीदवारों पर उचित विचार’ किया जाए ताकि ‘हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति में’ सामाजिक विविधता सुनिश्चित की जा सके।

न्याय विभाग द्वारा साझा किए गए विवरण के अनुसार, 2018 से 19 दिसंबर, 2022 तक, हाईकोर्टों में कुल 537 न्यायाधीश नियुक्त किए गए, जिनमें से 1.3 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति, 2.8 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 11 प्रतिशत ओबीसी वर्ग और 2.6 प्रतिशत अल्पसंख्यक समुदायों से थे।

विभाग ने कहा कि इस अवधि के दौरान 20 नियुक्तियों के लिए सामाजिक पृष्ठभूमि पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं। प्रस्तुति के दौरान, विभाग ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के बारे में भी बात की और कहा कि इसने दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों को इसके सदस्यों के रूप में प्रस्तावित किया, जिनमें एक अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग समुदाय या अल्पसंख्यकों या एक महिला से नामित किया जाएगा। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने एनजेएसी को “असंवैधानिक और अमान्य” घोषित कर दिया।

उच्च और उच्चतम न्यायालयों में आरक्षण की अनदेखी से राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग चिंतित है। आयोग ने इस विषय पर अपनी रपट में चिंता व्यक्त की थी । उसके अनुसार, न्यायपालिका का वर्तमान ढांचा, सामाजिक समानता और न्याय के राष्ट्रीय उद्देश्य को परा नहीं करता। आयोग के अनुसार, ‘दुर्भाग्य से, अधिकांश न्यायाधीशों को समाज के उन्हीं वर्गों से लिया जाता है जो युगों पुराने सामाजिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। अधिकांश मामले में ऐसे न्यायाधीशों के वर्ग हित और सामाजिक अवरोध, उनके द्वारा बौद्धिक ईमानदारी और सत्यनिष्ठा से अपने निर्णय सुनाने में बाधक बनते हैं। न्यायिक संस्थानों में नियुक्तियों में जातिवाद का प्रभाव नहीं पड़े, इसके लिए आयोग ने यह अनुशंसा की है कि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में जजों की नियुक्ति के लिए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के व्यक्तियों को अंतिम रूप से अस्वीकार करने से पहले उन्हें अस्वीकार करने के कारणों का रिकार्ड रखा जाये। निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए परीक्षा संचालित की जानी चाहिए तथा साक्षात्कार की वीडियोग्राफी की जानी चाहिए।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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