Saturday, April 27, 2024

स्पीकर के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे उद्धव ठाकरे, हाईकोर्ट पहुंचा शिंदे गुट

महाराष्ट्र में शिवसेना पर अधिकार की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। एक ओर जहां उद्धव ठाकरे पार्टी पर अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए हैं, वहीं दूसरी ओर एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने राहुल नार्वेकर के निर्णय को बॉम्बे हाईकोर्ट में सोमवार (15 जनवरी) को चुनौती दी है।

उद्धव ठाकरे ने पार्टी के अधिकार पर महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर के फैसले को गलत करार देते हुए दावा किया है कि उनकी शिवसेना ही असली शिवसेना है। वहीं एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने उद्धव गुट के विधायकों की सदस्यता समाप्त न करने के स्पीकर के फैसले को चुनौती दी है।

दरअसल शिंदे गुट की चुनौती को मामले को क़ानूनी दांवपेंच और हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के बीच अनंत काल तक लटकाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। उद्धव ठाकरे की याचिका में कोर्ट से शिवसेना पर स्पीकर के फैसले को रद्द करने और उद्धव गुट को असली शिवसेना करार देने की अपील की गई है। कोर्ट में मामले की सुनवाई के लिए तारीख तय नहीं हुई है।

महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर और बीजेपी नेता राहुल नार्वेकर ने कई साल बाद हाल में अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि 22 जून, 2022 को पार्टी के भीतर प्रतिद्वंद्वी गुट उभरने पर एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाला गुट ही असली शिवसेना है।

स्पीकर ने शिंदे और उद्धव के नेतृत्व वाले दोनों गुटों के किसी भी सदस्य को अयोग्य ठहराने से भी इनकार कर दिया था। उद्धव गुट ने स्पीकर से शिंदे गुट के 16 विधायकों को अयोग्य घोषित करने की मांग की थी, जिसे स्पीकर ने खारिज कर दिया।

स्पीकर राहुल नार्वेकर ने माना था कि बगावत के समय एकनाथ शिंदे गुट को पार्टी के 54 विधायकों में से 37 विधायकों का समर्थन था। बीते साल चुनाव आयोग ने अपने एक फैसले में पार्टी के नाम और चिन्ह पर शिंदे गुट का अधिकार माना था।

सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में उद्धव ठाकरे ने स्पीकर के फैसले को सुप्रीम कोर्ट का अपमान बताया है और कहा है कि स्पीकर कोर्ट के फैसले को नहीं समझ सके। याचिका में कहा गया है कि यह मामला विधायकों की अयोग्यता का था, लेकिन स्पीकर ने अपने हिसाब से फैसला सुनाया है।

गौरतलब है कि महाराष्ट्र में खासा प्रभाव रखने वाली शिवसेना को बालासाहेब ठाकरे ने बनाया था। राज्य में 2022 में शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की एमवीए सरकार के दौरान उद्धव के करीबी रहे एकनाथ शिंदे कई विधायकों और सांसदों को लेकर बीजेपी शासित असम के होटल चले गए थे।

कई दिन की रस्साकशी के बाद विधायकों के साथ मुंबई लौटे शिंदे ने शिवसेना पर दावा कर दिया और उद्धव ठाकरे को पार्टी से बेदखल करने की भी कोशिश की। इसी दौरान एकनाथ शिंदे ने बीजेपी के साथ मिलकर राज्य में सरकार बना ली और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए।

जून 2022 में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना में विभाजन हो गया था। इसके बाद शिंदे बीजेपी के समर्थन से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए। फिर शिवसेना पर शिंदे और उद्धव ठाकरे गुट ने दावा किया तो मामला चुनाव आयोग पहुंचा। आयोग ने शिंदे गुट को असली शिवसेना बताया।

संविधान की दसवीं अनुसूची जिसमें दल-बदल विरोधी कानून शामिल है, राजनीतिक रूप से नियुक्त स्पीकर को निर्णय लेने की शक्ति सौंपने में निहित है। दसवीं अनुसूची के तहत न्यायाधिकरण के रूप में कार्य करते हुए स्पीकर से उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता से ऊपर उठने की उम्मीद करना लगभग असंभव है। इसीलिए सत्तारूढ़ दल अपना चहेता स्पीकर चुनता है और गठबंधन सरकार में भी स्पीकर की नियुक्ति को लेकर शामिल दलों की सौदेबाजी देखने को मिलती है।

देश में जबसे संसदीय लोकतंत्र है तबसे आज तक सत्तारूढ़ दल (गठबंधन) के किसी सदस्य के खिलाफ स्पीकर के फैसले का कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता। इस पृष्ठभूमि ने सम्भवतः सुप्रीम कोर्ट को 2020 के एक फैसले में संसद को यह सिफारिश करने के लिए प्रेरित किया कि दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता के मामलों का निर्णय स्पीकर के बजाय एक निष्पक्ष न्यायाधिकरण द्वारा किया जाना चाहिए। हालांकि इसे क्रियान्वित नहीं किया गया क्योंकि सत्ता दल को यह स्वीकार नहीं रहा चाहे किसी भी दल की सत्ता हो।

महाराष्ट्र स्पीकर के निर्णय का मूल आधार यह तथ्य है कि शिंदे गुट को शिवसेना के अधिकांश विधायकों का समर्थन प्राप्त है। स्पीकर ने यह अभिनिर्धारित करने के बाद कि न तो पार्टी के संविधान और न ही 2018 के नेतृत्व ढांचे ने यह तय करने के लिए विश्वसनीय मापदंड पेश किए कि वास्तविक शिवसेना पार्टी कौन है, विधायी बहुमत की कसौटी से पीछे हट गए।

दरअसल 21 जून, 2022 को प्रतिद्वंद्वी गुटों के उभरने पर शिंदे गुट के पास 55 में से 37 विधायकों का भारी बहुमत था, स्पीकर ने उन्हें वास्तविक शिवसेना पार्टी घोषित करने के लिए आगे बढ़े। यह एक भ्रामक तर्क है जो दसवीं अनुसूची के अक्षर और भावना के खिलाफ है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट में मामला जाने के बाद जस्टिस सूर्यकान्त की अवकाशकालीन पीठ ने एक के बाद एक याचिकाओं को 11 जुलाई 22 को पोस्ट करना शुरू किया और महाराष्ट्र में उद्धव सरकार गिरने से लेकर स्पीकर के चुनाव तक सारा राजनितिक कर्मकांड सम्पन्न हो गया और बाद में सुप्रीम कोर्ट अपने आदेशों से यथास्थितिवाद को कायम रखा।

दसवीं अनुसूची के अनुसार विधानसभा के सदस्य को “उस राजनीतिक दल, यदि कोई हो, से संबंधित माना जाएगा, जिसके द्वारा उसे ऐसे सदस्य के रूप में चुनाव के लिए उम्मीदवार के रूप में स्थापित किया गया था।” यह दसवीं अनुसूची के दूसरे पैराग्राफ के स्पष्टीकरण (ए) के अनुसार है।

यदि उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना पार्टी द्वारा 2019 के चुनावों के लिए शिंदे समूह के विधायकों को उम्मीदवार के रूप में स्थापित किया गया तो उन्हें दसवीं अनुसूची के उद्देश्यों के लिए ठाकरे के नेतृत्व वाली पार्टी के मूल सदस्यों के रूप में माना जाएगा। यह तथ्यात्मक पहलू यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या कोई सदस्य राजनीतिक दल से अलग हो गया है।

यही नहीं दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता के खिलाफ असंतुष्ट समूह के लिए एकमात्र बचाव किसी अन्य राजनीतिक दल के साथ विलय है। ‘विभाजन’ की अवधारणा को अब दसवीं अनुसूची के तहत मान्यता नहीं दी गई है। मान लीजिए, शिंदे समूह का किसी अन्य राजनीतिक दल में विलय नहीं हुआ है और यह स्वतंत्र समूह बना हुआ है।

यदि उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना पार्टी द्वारा 2019 के चुनावों के लिए शिंदे समूह के विधायकों को उम्मीदवार के रूप में स्थापित किया गया तो उन्हें दसवीं अनुसूची के उद्देश्यों के लिए ठाकरे के नेतृत्व वाली पार्टी के मूल सदस्यों के रूप में माना जाएगा। यह तथ्यात्मक पहलू यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या कोई सदस्य राजनीतिक दल से अलग हो गया है।

यही नहीं दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता के खिलाफ असंतुष्ट समूह के लिए एकमात्र बचाव किसी अन्य राजनीतिक दल के साथ विलय है। ‘विभाजन’ की अवधारणा को अब दसवीं अनुसूची के तहत मान्यता नहीं दी गई है।

शिंदे समूह का किसी अन्य राजनीतिक दल में विलय नहीं हुआ है और यह स्वतंत्र समूह बना हुआ है। यदि दसवीं अनुसूची के तहत विभाजन को मान्यता नहीं दी जाती है तो यह मायने नहीं रखता कि विभाजित समूह के पास विधायक दल में बहुमत है या नहीं।

दसवीं अनुसूची के पैराग्राफ 2 जिसमें कहा गया है कि स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोड़ना या पार्टी व्हिप के खिलाफ काम करने के तहत निषिद्ध कार्यों में लिप्त होने पर, उन्हें दल-बदल विरोधी कानून के तहत अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए।

दसवीं अनुसूची कहीं भी “विधायी बहुमत” की अवधारणा को मान्यता नहीं देती है, क्योंकि एकमात्र बचाव दूसरे दल के साथ विलय है। स्पीकर ने यह ठहराने के लिए परिपत्र तर्क का उपयोग किया कि शिंदे समूह ही वास्तविक पार्टी है, क्योंकि उनके पास विधायी बहुमत है। यहां एकमात्र परीक्षा जो मायने रखती थी, वह यह थी कि क्या विधायक 2019 के चुनावों के लिए उन्हें स्थापित करने वाली मूल पार्टी से भटक गए।

इस परीक्षण को लागू करने के बजाय स्पीकर ने असंतुष्ट समूह को मूल पार्टी घोषित किया, केवल इसलिए कि उनके पास उनके साथ बहुमत वाले विधायक थे। यह दसवीं अनुसूची को दरकिनार करने के बराबर है, जो विभाजित समूह को स्वीकार नहीं करता है।

स्पीकर के तर्क का एक परिणाम यह है कि यदि अधिकांश विधायक अलग होने का फैसला करते हैं तो विधायी शाखा मूल पार्टी का अपहरण कर सकती है। इस तर्क की बेतुकी बात और खतरा तब स्पष्ट हो जाएगा, जब कोई ऐसी स्थिति की कल्पना करे जब मुख्य राष्ट्रीय विपक्षी दल के अधिकांश सांसद सत्तारूढ़ राष्ट्रीय दल के साथ हाथ मिला लें।

क्या इसका मतलब यह है कि मुख्य राजनीतिक दल का खुद ही सफाया हो गया, क्योंकि उसके कुछ सांसदों ने सत्तारूढ़ दल के साथ मिलीभुगत से काम किया?

इस संबंध में शिवसेना मामले में मई 2023 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि “विधायक दल” का “राजनीतिक दल” से कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधायक दल के स्वतंत्र अस्तित्व को विलय का बचाव पेश करने की सीमित सीमा तक ही मान्यता दी जाती है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी पुष्टि की कि विधायक दल को व्हिप नियुक्त करने का कोई अधिकार नहीं है, यह देखते हुए कि अगर ‘राजनीतिक दल’ शब्द को ‘विधायक दल’ के रूप में पढ़ा जाता है तो दसवीं अनुसूची ‘अव्यवहारिक’ हो जाएगी। फैसले में उन संभावित खतरों के बारे में बताया गया, जो विधायक दल को व्हिप नियुक्त करने की शक्ति प्रदान करने पर उत्पन्न होंगे।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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