‘बोतल का जिन्न बोतल से बाहर आकर अपने आका को ही खा गया। ‘यह आमजन में प्रचलित एक लोकप्रिय मुहावरा है, परंतु आज अफगानिस्तान की सत्ता पर पुनर्वापसी कर आतंकवादी तालिबान ने उक्त बात को ही गंभीरता से परिपुष्ट किया है। याद करिए यही अमेरिका शीतयुद्ध के जमाने में तत्कालीन सोवियत संघ की सेनाओं से गुरिल्ला युद्ध करके और उसे परेशान करने के लिए जिन मुजाहिद्दीनों को तालिबान के रूप में खड़ा करने के लिए, उन्हें हथियारों, पैसों और प्रशिक्षण दिया था, वही तालिबान अब उसी अमेरिका के साधन-संपन्न और आधुनिकतम कथित बड़ी सेना को नाकों चने चबाने को मजबूर करके अफगानिस्तान से हारकर, अपनी फजीहत कराकर और सारी दुनिया भर में बेइज्जती व जगहंसाई कराकर भाग खड़े होने को मजबूर कर दिया। वियतनाम में अपने मुंह पर कालिख पुतवाने के बाद अब दूसरी बार अफगानिस्तान में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के कर्णधारों के दंभ, आत्ममुग्धता और छद्म दर्प पर एक बार फिर अपमान की कालिख पुत गई है। कितना विस्मय और हतप्रभ करने वाली बात है कि अस्सी के दशक में इसी अफगानी धरती से कथित महाबली सोवियत संघ की सेना बहुत ही बेआबरू होकर निकली थी और अब वही हश्र दुनिया के कथित सबसे सर्वश्रेष्ठ व आधुनिकतम् अमेरिकी सेना का हुआ है।
अफगानिस्तान में अमेरिकी राष्ट्रपति का दावा एकदम खोखला, झूठा और भ्रामक साबित हुआ कि उसकी सेना के अनुभवी प्रशिक्षकों द्वारा तैयार लगभग 3 लाख अफगानी सेना के जवान अपने बेहतरीन प्रशिक्षण और आधुनिकतम हथियारों के बल पर 75 हजार के लगभग तालिबानी आतंकवादी लड़ाकों पर भारी पड़ेंगे और उन्हें मार भगाएंगे, लेकिन जमीनी हकीकत इसके एकदम उलट साबित हुई है, तालिबानी लड़ाकों के साधारण हथियारों के सामने कथित उच्च प्रशिक्षित और आधुनिकतम् हथियारों के साथ अफगानी सेना के सैनिक मिट्टी के शेर साबित हुए हैं, क्योंकि वे तालिबानी लड़ाकों से बगैर किसी लड़ाई किए ही बहुत ही तेजी से कायरतापूर्ण ढंग से हथियार डालते चले गए, हालात यह रहे हैं कि अफगानिस्तान की प्रांतीय राजधानियों के अलावा मजार-ए शरीफ, हेरात, कंधार और जलालाबाद जैसे प्रमुख शहरों तथा अब देश की राजधानी काबुल तक में अफगानी सेना पूर्णतः हथियार डाल चुकी है।
तालिबान लड़ाकों की सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे मात्र दो दिनों में अफगानिस्तान के छः प्रांतों पर बहुत ही आसानी और तेजी से कब्जा जमा लेने में कामयाब रहे हैं। करीब 25 वर्ष पूर्व तालिबानियों ने अपनी हिंसा और छापामार युद्ध के बल पर अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हुए थे, लेकिन अब की बार वे कुशल और व्यवहारिक रणनीति के तहत सफल कूटनीति का सहारा लेते हुए अफगानी प्रशासन और उसकी सेना में अपनी वैचारिक पैठ बढ़ाकर काबुल पर सफलतापूर्वक कब्जा जमाने में पूर्णतः सफल रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह हुई है कि अफगानी सेना में अपने राष्ट्रपति अशरफ गनी के प्रति वफादारी का पूर्णतया अभाव था। एक रक्षा विशेज्ञ का कथन है कि ‘युद्ध हथियारों से नहीं अपितु हिम्मत और दृढ़ जज्बे से जीता जाता है’ अफगानिस्तान में यह सिद्धांत अक्षरतः सत्य साबित हुआ है। अफगानिस्तान का चुना हुआ राष्ट्रपति अशरफ गनी अपने उपराष्ट्रपति सहित राष्ट्रपति भवन छोड़कर पड़ोसी देश ताजिकिस्तान में भागकर शरण लेने को बाध्य हो गया है। कितने दुःख और अफसोस की बात है कि कथित महाबली अमेरिका को अफगानिस्तान के 3 करोड़ तीस लाख वाशिंदों को अपने हालात पर बेसहारा छोड़कर केवल अपने दूतावास के कर्मचारियों की जान-माल की सुरक्षा के लिए 5 हजार की एक अमेरिकी सैन्य टुकड़ी को काबुल बुलानी पड़ी है।
पश्तो भाषा में तालिबान का अर्थ छात्र होता है, लेकिन व्यवहार में ये तालिबानी छात्र सामान्य छात्रों की तरह नहीं हैं, अपितु ये कट्टरपंथ में प्रशिक्षित दुर्दांत आतंकवादी हैं, जो अफगानिस्तान में कट्टरपंथी इस्लाम शरिया सरकार को स्थापित करना चाहते हैं, जो साहित्यकारों, कलाकारों की सरेआम हत्या कर देना चाहते हैं, लड़कियों और स्त्रियों को एक भोग-विलास की वस्तु समझकर, उन्हें शिक्षा और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की पहुंच से एकदम अलग-थलग कर देना चाहते हैं। इस दुनिया में नैतिकता, दया, करूणा, ऊँच-नीच के भेदभाव को पूर्णतः समाप्त कर समानता और भाई-चारा स्थापित करने वाले मानवता के अग्रदूत भगवान बुद्ध के बामियान स्थित 140-150 फुट दुनिया की सबसे ऊँची मूर्ति को तोप के गोलों से मटियामेट कर देने वाले नर पिशाचों के एक समूह मात्र हैं।
भारत के संबंध में सबसे दुःखद बात यह हुई है कि दुनिया भर के देश यथा ईरान, रूस, चीन, यूरोपीय संघ और अमेरिका तक अफगानिस्तान की बदली हुई परिस्थिति का कयास लगाकर तालिबान नेताओं से खुलकर बात-चीत कर रहे थे, चीन तो कुछ तालिबान नेताओं को अपने यहाँ आमंत्रित करके उनसे ये आश्वासन लेने में कामयाब रहा है कि तालिबान चीन के उइगर मुसलमान उग्रवादियों को अफगानिस्तान में घुसकर अपने पैर पसारने नहीं देगा, लेकिन भारत के रणनीतिकार इस ममाले में चूक गए हैं, अब भारत द्वारा अफगानिस्तान में अरबों रुपये के प्रोजेक्ट्स बन्द करने और उसमें कार्यरत मजदूरों, टेक्नीशियनों और इंजीनियरों को वापस अपने वतन बुलाने के भारत के पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है।
कितनी क्षुब्ध और दुःखी कर देने वाली बात है कि इक्कीसवीं सदी में सामंती, लोकतांत्रिक और साम्यवादी शासन व्यवस्थाओं के बाद इस आधुनिक दुनिया में फिर से एक पुरातनकालीन, दकियानूसी, क्रूर, बर्बर, कबीलाई, आतंकवादी, धार्मिक उग्रवादियों द्वारा संचालित एक संगठन द्वारा एक देश की सत्ता पर अधिकार होने जा रहा है। आतंकी संगठन तालिबान के चीफ मुल्ला बरादर अब अफगानिस्तान का संभावित राष्ट्रपति हो सकता है।
(निर्मल कुमार शर्मा पर्यावरणविद हैं और आजकल गाजियाबाद में रहते हैं।)