अचानक, हर कोई भारत से प्यार जता रहा है। लेकिन यह रोमांस है, शादी नहीं। यह टिकेगा या नहीं यह इस सप्ताह के महत्वपूर्ण चुनाव के परिणामों पर निर्भर करेगा। इन चुनावों में भारतीय लोकतंत्र की विश्वसनीयता, और संभवतः एक एकजुट देश के रूप में उसका भविष्य, दांव पर है।
अमेरिका का भारत के साथ प्रणय-निवेदन चीन को रोकने के लिए भारत का इस्तेमाल करने के लिए है। इस कोशिश में वह भारत के साथ गहरे सुरक्षा संबंधों को जोर-शोर से आगे बढ़ा रहा है। यूरोपीय संघ भी एक मुक्त व्यापार समझौते के लिए उत्सुक है। ऑस्ट्रेलिया से लेकर नॉर्वे और संयुक्त अरब अमीरात तक के देशों ने भारत के साथ पहले ही विशेष सौदे कर लिए हैं।
फ़्रांस अपने हथियार निर्माताओं के लिए बढ़ते बाज़ार के रूप में भारत पर पैनी नज़र बनाये हुए है। जर्मनी के लिए, भारत 18 अरब डॉलर के निर्यात की सम्भावना का देश है। भारत की पूर्व औपनिवेशिक शक्ति, ब्रिटेन, भी उसका एक दिलफेंक प्रेमी है। हालांकि उसके रोमांस में निराशाजनक बात यह है कि उसका ‘ब्रेक्सिट’ यानि यूरोपियन यूनियन से तलाक का वादा भी अभी तक ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है।
ऐसा नहीं है कि अकेले पश्चिमी लोकतंत्र ही दिल्ली को लुभाने में लगे हुए हैं। जब यूक्रेन युद्ध के मामले में 2022 में रूस पर प्रतिबंध लगाये गये तो उसने भारत को एक सस्ते तेल सौदे के प्रेमोपहार की पेशकश की। जब व्लादिमीर पुतिन ने पिछले महीने का फर्जी राष्ट्रपति “चुनाव” जीता तो भारत सरकार ने अपनी खुशी जता कर उस खास प्रेमोपहार का बदला चुकाया और जताया कि प्यार की यह आग दोनों तरफ लगी हुई है।
यूक्रेन युद्ध मामले में भारत बेहद अटपटे ढंग से किनारे बैठा हुआ है। वह अपनी स्वतंत्रता के बाद की, गुटनिरपेक्ष विरासत की गठरी दबाये हुए है और शीतयुद्ध काल के सोवियत संबंधों को नहीं भूला है। ‘जी-20’ और एक विस्तारित ‘ब्रिक्स’ संगठन (जिसमें ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका, मिस्र, इथियोपिया, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं) के माध्यम से यह वैश्विक दक्षिण से करीबी बनाये हुए है, जिसका नेतृत्व करने की उसकी तमन्ना है।
भारत की 1.4 अरब लोगों की आबादी, दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी है और इसकी बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था इस समय पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इसने इसे आधुनिक ‘क्लोंडाइक’ में बदल दिया है। ‘क्लोंडाइक’ उत्तर-पश्चिमी कनाडा का वह क्षेत्र था, जहाँ का सोना खोदने वालों के झुंड के झुंड किसी समय दुनिया भर से भाग कर पहुँच रहे थे।
आज उसी तरह सभी देश दिल्ली का ध्यान, प्रभाव, बाज़ार, कौशल और तकनीक पाने की दौड़ में शामिल हैं। कम से कम, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा ही मानते हैं। उनके हिंदू राष्ट्रवादी भक्तों का मानना है कि भारत, जो एक “प्राचीन सभ्यता वाला राज्य” है, मोदी बाबा की ऋषितुल्य, लोकप्रिय छवि के संरक्षण में विश्वगुरु बनने के एक बड़े वैश्विक मिशन पर चल पड़ा है।
छह सप्ताह तक चलने वाले चुनाव के दौरान 96 करोड़ लोग मतदान करेंगे, जिसमें मोदी अपने लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए प्रयासरत हैं। अकेले ग़रीब उत्तर प्रदेश राज्य के मतदाताओं की संख्या ब्राजील से भी ज्यादा है। मोदी की सत्तारूढ़ कट्टर-दक्षिणपंथी भाजपा को एक बहुदलीय विपक्षी गठबंधन का सामना करना पड़ रहा है जिसमें एक समय की दमदार पार्टी, कांग्रेस भी शामिल है, लेकिन उनके आसानी से जीतने की भविष्यवाणी की जा रही है।
फिर भी, जरा ठहरिए। इस सारी हलचल और चापलूसी के बीच, कुछ अटपटे सवाल उठते हैं। क्या कोई मोदी-चमत्कार सचमुच मौज़ूद है? या महज एक भ्रम है, जो हवा में छू-मन्तर हो सकता है? मोदी के मुग्ध अनुयायियों के लिए, वह एक प्रेरणादायक, दैवीय रूप से अभिषिक्त व्यक्ति हैं जो फिर से एकजुट हुए हिंदू राष्ट्र को उस गौरव की ओर ले जा रहे हैं जिससे वह लंबे समय से वंचित रहा है।
जबकि उनके विरोधियों के लिए, वह भारत के लोकतंत्र और बहुलवादी, धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक परंपराओं को खत्म करने पर तुले हुए आत्ममुग्ध सत्तावादी हैं।
मोदी की विभाजनकारी नीतियां देश को तोड़ सकती हैं। और दुराग्रही पश्चिम के लिए, परेशान करने वाला एक और बुनियादी सवाल है: क्या मोदी पर भरोसा किया जा सकता है? नई विश्व व्यवस्था को निर्धारित करने के वैश्विक संघर्ष में भारत निश्चित रूप से एक प्रमुख राज्य है। लेकिन वह वास्तव में किसकी तरफ है?
भारत के एक नाममात्र का लोकतंत्र, एक “निर्वाचित तानाशाही” बन जाने का जोखिम अब निर्विवाद है। विपक्षी राजनेता जेल में हैं या अपमानजनक सरकारी धमकी का सामना कर रहे हैं। यहाँ की अदालतें, पुलिस और अखबार अधिकतर सरकारी हुक्म बजा रहे हैं। हुक्म न बजाने के चलते बीबीसी को खुलेआम निशाना बनाया गया है।
क्रेया विश्वविद्यालय के रामचंद्र गुहा ने एक विचारोत्तेजक निबंध में लिखा है, “मोदी ने अपने कार्यालय में पूरी सत्ता को स्तब्धकारी रूप से केंद्रीकृत कर लिया है, न्यायपालिका और मीडिया जैसे सार्वजनिक संस्थानों की स्वतंत्रता को कमजोर कर दिया है, और अपने चारों ओर व्यक्ति-पूजा का एक घेरा बना लिया है।”
“मोदी ने विजय और शक्ति का जो मुखौटा पहन लिया है, वह एक और बुनियादी सच्चाई पर परदा डाल देता है: एक लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत के अस्तित्व का और इसकी हालिया आर्थिक सफलता का, एक प्रमुख स्रोत, इसका राजनीतिक और सांस्कृतिक बहुलवाद रहा है। जबकि बिल्कुल इसी गुण को प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी अब मिटाने की कोशिश में लगे हैं।”
हिंदू बहुसंख्यकवाद के अवतार और उसका सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाले शख्स के रूप में, मोदी की ताकत ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी भी है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देने वाली असहिष्णुता भाजपा की पहचान है। ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ ने उस पर मुसलमानों और अन्य लोगों के साथ “व्यवस्थित भेदभाव करने और उन्हें बदनाम करने” का आरोप लगाया है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी के कार्यकाल में, 2002 में मुस्लिम विरोधी दंगों में सैकड़ों मुसलमान मारे गए थे। मोदी ने शुरू में जिस तरह पिछले साल मणिपुर में ईसाइयों पर हिंदू हमलों को नजरअंदाज किया था, तो फिर से उन्होंने गुजरात की यादें ताजा कर दीं। कश्मीर उनके माथे का एक और कलंक है।
येल विश्वविद्यालय के सुशांत सिंह लिखते हैं, “प्रधानमंत्री की केंद्रीय वैचारिक परियोजना एक हिंदू राष्ट्रवादी देश का निर्माण है जहां गैर-हिंदू लोग, ज्यादा से ज्यादा, दूसरे दर्जे के नागरिक होंगे।… यह एक बहिष्करणवादी एजेंडा है जो करोड़ों भारतीयों को अलग-थलग कर देगा।” कहा जा रहा है कि ये कोशिशें भारत को एकजुट बनाये रखने वाले तंतुओं को घातक रूप से कमजोर कर रही हैं।
केंद्र द्वारा निर्देशित पक्षपातपूर्ण नीतियां, जो भारत के उत्तर-दक्षिण विभाजन को बढ़ाती जा रही हैं, केरल और तमिलनाडु जैसे विपक्ष द्वारा संचालित राज्यों को नुकसान पहुंचा रही हैं, और संघीय ढाँचे को कमजोर कर रही हैं, उनके चलते अलग-थलग करने की यह प्रक्रिया तेज होती जा रही है। हालांकि, फिर भी दक्षिण भारतीय वोट मोदी की जीत को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इस वजह से दक्षिण के कुछ अधिकारी “अलग राष्ट्र” की बात तक करने लगे हैं।
यदि भारतीय लोग अपनी राष्ट्रीय एकता और अपने लोकतंत्र को ख़त्म करने का जोखिम उठाने का निर्णय लेते हैं, तो यह उनका अपना मामला है। लेकिन इससे पश्चिमी देशों का भारत के प्रति सशर्त प्रेम ख़त्म हो सकता है। पश्चिमी सरकारें चीन और रूस के साथ गतिरोध में भारत को अपने पाले में रखना चाहती हैं।
भारत के साथ व्यवसाय में उनकी दिलचस्पी है। लेकिन इसके साथ ही वे एक सच्चा लोकतांत्रिक साझेदार भी चाहती हैं, श्रेष्ठता की ग्रंथि से ग्रस्त एक और तानाशाह नहीं। उदाहरण के लिए, यदि भारतीय एजेंट इन देशों के क्षेत्राधिकार में जाकर राजनीतिक विरोधियों की हत्या करना जारी रखते हैं, तो वे ज्यादा देर तक नज़रें फेर कर नहीं बैठे रहेंगे।
मोदी के विदेश मंत्री और क़रीबी विश्वासपात्र सुब्रह्मण्यम जयशंकर की हेकड़ी एक नज़ीर है। वह लिखते हैं कि भारत की प्राथमिकताएँ “अमेरिका को फँसाये रखना, चीन को सँभालना, यूरोप को सुधारना, रूस को आश्वस्त करना, जापान को साथ लाना, पड़ोसियों को क़रीब लाना, पड़ोस के दायरे का विस्तार करना और समर्थन के पारंपरिक क्षेत्रों का विस्तार करना” होनी चाहिए।
जयशंकर इसे मल्टी-अलाइनमेंट, यानि “एक साथ कई मोर्चों को ठीक करना” कहते हैं। संक्षेप में, मोदी का यह अति आत्मविश्वासी भारत, एक नव धनाढ्य महाशक्ति, जो एक मनमानी शासन-व्यवस्था की ओर तेजी से बढ़ रहा है, उसका मानना है कि वह खुद ही दुनिया में सबके मर्ज की दवाई बन सकता है, क्योंकि वह हर फन मौला है। यह हर कटोरे की मलाई खाना चाहता है।
यह एक बड़ी गलती है। जीवन की तरह ही, भू-राजनीति में, भी सबसे पहले सिद्धांत महत्वपूर्ण होते हैं। नेताओं और राष्ट्रों को भी अंततः एक उसूल, एक पक्ष चुनना होता है, जहाँ उन्हें साफ-साफ गिना जा सके, अन्यथा वे अंत में सभी के द्वारा नापसंद और तिरस्कृत करके छोड़ दिये जाते हैं।
(साइमन टिस्डल ‘ऑब्जर्वर’ के विदेशी मामलों के टिप्पणीकार हैं। ‘द गॉर्डियन’ से साभार। अनुवाद शैलेश ने किया है।
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