पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों का सबक

भारतीय राजनीति में 2022 में पांच राज्यों के हुए चुनाव एक यादगार पल बने रहेंगे। आप पार्टी का पंजाब में जीतकर आना एक भारी उछाल की तरह है। यदि आपको दिल्ली विधानसभा चुनाव याद हो तब आप पार्टी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी। चुनाव जीत जाने के बाद भी खासकर कोरोना महामारी के दौरान आप पार्टी की दिल्ली सरकार की एक स्वतंत्र हैसियत काफी गिर गई। गृहमंत्री अमित शाह ने एक तरह से दिल्ली की कमान संभाल ली थी। अरविंद केजरीवाल की हालत जी हुजूर से ज्यादा नहीं दिख रही थी। इस हाल पर बहुत से बुद्धिजीवियों और पत्रकारों ने सवाल उठाये थे। और, कुछ दिन बीतते-बीतते दिल्ली राज्य सरकार के अधिकार भी कम कर दिये गये। यह एक संवैधानिक मामला था। लेकिन, इसमें पार्टी राजनीति का गहरा असर शामिल था। पंजाब में जीत हासिल कर आप पार्टी आज न सिर्फ अपने अस्तित्व को बचा पाने में सफल हुई है बल्कि खुद को राष्ट्रीय राजनीति में एक दावेदार की तरह पेश कर रही है।

कांग्रेस पंजाब और उत्तराखंड में हारकर नेतृत्व के सबसे भयावह संकट में फंस चुकी है। इन दोनों ही जगहों पर नेतृत्व को लेकर संकट चल रहा था। और, एकदम अंतिम समय में इसे हल किया गया। इन दोनों राज्यों में हार का एक बड़ा कारण नेतृत्व के चुनाव में हुई देरी और आपसी कलह की स्थितियां बतायी जा रही हैं। इसे हल करने का तरीका चाहे जो रहा हो, लेकिन संदेश यही गया कि आलाकमान ही अंतिम निर्णायक है। इस निर्णय पर पंजाब में नवजोत सिद्धू ने मुंह नहीं खोला, लेकिन उनके परिवार वालों ने जमकर बयानबाजी की। नेतृत्व का संकट पंजाब और उत्तराखंड में किये जा रहे वायदों पर भारी पड़ा। कांग्रेस के लिए सबसे बुरा हाल उत्तर प्रदेश में रहा।

यह बात सभी तरफ प्रचारित थी कि कांग्रेस यहां अपना संगठन बना रही है और यह चुनाव वह जीतने के लिए लड़ ही नहीं रही है। जबकि, प्रियंका गांधी ने सबसे अधिक रैलियां और सभाएं यहीं की। चुनाव में मुख्य दावेदार सपा और भाजपा उभर कर आये। बसपा के बारे में अटकलें लगती रहीं कि वह किधर जायेगी। यानी वह भी चुनाव जीतने के लिए नहीं, किसी पार्टी के पक्ष में जाने के लिए लड़ रही है। इस स्थिति को उनके कार्यकर्ताओं की निराशा भरी बातचीत में देखा जा सकता है। इस तरह का वोटों का ध्रुवीकरण बढ़ता गया और विभाजन की स्थितियां कम होती गईं।

भाजपा और खासकर मोदी के लिए यह चुनाव करो या मरो की स्थिति थी। वह चुनाव के ठीक पहले करो या मरो की अतिवादी रणनीति को अपनाने में लग गई थी। धर्म संसद और उसमें मुस्लिम समाज के कत्लेआम का आह्वान भाजपा से दूर हो रहे वोटों को वापस भाजपा की तरफ लाने का आह्वान था। लॉ एण्ड आर्डर की समस्या पर भाषण उच्च जातियों और मध्यवर्ग को सपा से दूर रखने की रणनीति का हिस्सा था। जबकि उन्हें पता था कि लाभार्थियों का बड़ा हिस्सा, जिसमें दलित भी शामिल हैं लाभ को बनाये रखने के लिए और धन्यवाद देने के लिए भी वोट देने के लिए भाजपा की ओर मुड़ेंगे। भाजपा की हिंदू बहुसंख्यक राजनीति का यह गणित जितना सरल दिख रहा है, उतना था नहीं। इसके लिए सबसे जरूरी पक्ष सरकार में होना था। भाजपा ने इन तीनों ही मोर्चों पर सरकार में होने का भरपूर लाभ उठाया। धर्म संसद और काशी कोरीडोर मानों एक ही सिक्के के दो पहलू थे और लोकतंत्र को ताख पर रखे ढि़बरी को जलते रहने के लिए छोड़ दिया गया था।

लाभार्थी एक सरकारी योजना थी जिसे लागू करना ही था। और, लॉ एण्ड आर्डर के मसले पर चुनाव के दौरान ही किसानों की हत्या के आरोपी को बेल पर बाहर आने दिया गया। इससे संदेश निहित था कि यह समस्या जाति आधारित है और यह समस्या ऊपरी जातियां नहीं पैदा करती हैं बल्कि अन्य जातियां करती हैं। यह योगी नीति की क्रमबद्धता थी। वहीं बहन बेटियों की इज्जत, रात में सुरक्षित निकलकर घर जाने आदि मसले को एक मर्दवादी नजरिये से पेश किया गया। प्रियंका गांधी का लड़की हूं लड़ सकती हूं, का कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक सशक्त नजरिया भाजपा की मर्दवादी दावों में दबकर रह गया। अब देखना है कि कांग्रेस और प्रियंका गांधी इस नारे को कितना आगे बढ़ाती हैं। इस नारे में निश्चित ही एक अपील है और समाज में एक अच्छा हस्तक्षेप भी होगा। यह भारतीय समाज में मर्दवादी संरचना में दखल देने की राजनीति होगी। यह वोट की राजनीति में कितना बदलाव लायेगा कहना मुश्किल है लेकिन यदि इसे संगठित तरीके से आंदोलन की तरह चलाया जाये तो इसके राजनीतिक असर से इंकार नहीं किया जा सकता।

बूथ तक पहुंचने और उस पर नियंत्रण बनाने की कला में भाजपा आज सबसे आगे है। लेकिन, इससे भी अधिक भाजपा को सबसे अधिक लाभ मंदिरों, मठों से लेकर स्कूल, जाति सभाओं से लेकर कल्याण योजनाओं का जाल एक ऐसे नेटवर्क का जाल है जिसे सुलझा पाना इतना आसान नहीं है। इनके साथ सरकारी योजनाओं का सम्मिलन इसकी ताकत को कई गुना बढ़ा देता है। हम गरीबी में उलझे लोगों के बारे में अनुमान लगा रहे हैं कि वे इधर जायेंगे या उधर, जबकि हम यह भी जानते हैं कि यही उलझन उन्हें एक ऐसे नेटवर्क की तरफ भी ले जा रही है जहां उसे अभी और फंसे रहना है।

अब रह गई बात विचारधारा की। यह एक ऐसी शब्दावली है जिसका अर्थ आज एक निहायत ही तंग गली तक सीमित रह गया है। आप उसमें घुसेंगे तो वहां इसकी गूंजें आपको मिलेंगी। जिस तरह शेयर मार्केट जब उठता है या गिरता है, तो उसकी अंतिम व्याख्या अर्थशास्त्र के नियमों से ही होता है। भारतीय राजनीति में भी यह नियम लागू होता है। विचारधारा का प्रयोग अंतिम व्याख्या के लिए किया जाता है। आज जहां श्रम कराकर वेतन भुगतान का निहायत पूंजीवादी नियम की जगह मुफ्त अनाज बांटने की नीति लागू हो, जहां धार्मिक आयोजनों के लिए पैसे उगाही के लिए खुली छूट हो और इसमें सरकारें भी शामिल हों, बैंकों में जमा पूंजी को कर्ज के नाम पर लूट ले जाने का खेल चल रहा हो और सरकार खुद जमीन और मकान के कारोबार में उतरकर उससे पैसे बनाने में लग जाये, ….वहां पर बुर्जुआ विचारधारा तक का टिके रहना भी मुश्किल है। कम्युनिस्ट होना और भी मुश्किल है। समाज बदलने की बात उससे भी मुश्किल है। लेकिन इससे भी मुश्किल है विचारधारा पर बने रहना और तंग गलियों से निकलकर लोगों के बीच बाहर आना। अपनी विचारधारा के साथ वहां वापस लौटना जहां से हम आये थे। हां, जड़ों की ओर वापसी।

ऊपर के दिये ये सारे तर्क एक बार में ही खारिज हो जाते, यदि चुनाव के नतीजे अलग होते। लेकिन, जो घटना घट चुकी होती है उसके बारे में यह कहना कि यह होता तो वह होता…, विश्लेषण के लिए ठीक नहीं है। अब जो है, वह है। लेकिन, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि वोट की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आ रहा है। उत्तर प्रदेश के संदर्भ में कुछ बातें कही जा सकती हैं। कांग्रेस क्लाइंट पोलिटिक्स में अब भी फंसी हुई है। बसपा और सपा गांव-गांव में हर सदस्य तक पहुंचने की राजनीति से दूर हुई है।

(जयंत कुमार लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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