क्या भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के बीच कोई अंत:सलिला बहती है? क्या सचमुच कहीं कोई जुगलबंदी है?
यह सवाल अचानक तब उभरा जब बीते बुधवार को प्रधानमंत्री औचक प्रधान न्यायाधीश के निवास पर पहुंचे और गणेशोत्सव में शामिल होकर समवेतरूप से गौरी-गणेश की पूजा की। यों तो यह ऊपरी तौर पर किसी व्यक्ति के लिए सामान्य घटना लग सकती है। लेकिन इस सामान्यता के भीतर ढेर सारी असामान्यताएं छिपीं हैं और उसके बहुस्तरीय खतरे हैं।
शायद, इसीलिए मीडिया, खासकर सोशल मीडिया में एक प्रतिकार का शोर उठ रहा है। और, सत्ता पक्ष यानी भाजपा और विपक्ष के कुछ दलों-मसलन कांग्रेस और शिवसेना के बीच एक तरह की जुबानी जंग छिड़ गई है।’ विपक्ष ने खुले तौर पर आरोप लगाया है कि इसमें सांविधानिक मर्यादाओं की ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघी गई है। न्यायपालिका और कार्यपालिका के प्रमुखों के निजी क्षणों का ऐसा ‘’सार्वजनिक प्रदर्शन’’ कई तरह के संदेहों और खतरों को जन्म दे रहा है।
शिवसेना (यूबीटी) के सांसद संजय राउत ने यह सवाल उठाया है कि प्रधानमंत्री का प्रधान न्यायाधीश के घर पर अचानक पहुंचने का एक ही मतलब है कि प्रधानमंत्री (मोदी) शीर्ष अदालतों में चल रहे कुछ मामलों में अपने लिए ‘दबाव’ बनाना चाहते हैं। राउत ने कहा कि कुछ मुकदमों में स्वयं प्रधानमंत्री, पक्षकार हैं। ऐसे में क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ निष्पक्ष रह पाएंगे। इसके उलट, भाजपा के नेता और केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने राउत का प्रतिवाद करते हुए कहा है कि राउत जैसे विपक्ष के नेता हिंदू भावनाओं और हिंदू उत्सवों पर प्रहार कर रहे हैं।
महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भी इस मामले में विपक्ष की प्रतिक्रिया को ‘’हिंदुत्व के प्रति घृणाभाव’ करार दिया है। उन्होंने यह भी कहा है कि जब पूर्व प्रधान न्यायाधीश बालाकृष्णन तत्कालीन प्रधानमंत्री के इफ्तार पार्टी में शामिल हुए थे, तब किसी ने ऐतराज नहीं किया था।
मगर, इस घटनाक्रम में पक्ष और विपक्ष की क्रिया-प्रतिक्रिया को थोड़ी देर के लिए किनारे फेंक कर यह जानना जरूरी है कि वास्तव में माजरा क्या है? दो सवाल प्रमुख रूप से उभर रहे हैं। पहला, क्या प्रधान न्यायाधीश ने प्रधानमंत्री को अपने घर पूजा में शामिल होने की दावत दी थी? दूसरा, क्या प्रधानमंत्री खुद ही प्रधान न्यायाधीश के ‘निजी पूजा-कक्ष’ में दाखिल हुए थे? चूंकि, इन सवालों के जवाब में दोनों पक्ष अर्थपूर्ण चुप्पी साधे हुए हैं, इसलिए इस पर दिमाग खपाना व्यर्थ है।
क्या प्रधानमंत्री, प्रधान न्यायाधीश पर किसी किस्म का ‘दबाव’ बना रहे हैं? क्या प्रधान न्यायाधीश, प्रधानमंत्री के किसी अनुचित दबाव में आ जाएंगे ? इन सवालों के जवाब अभी भविष्य के गर्भ में हैं। यह इस पर निर्भर करेगा कि आने वाले समय में तमाम मुकदमों के सिलसिले में प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का रवैया क्या रहता है।
लेकिन जिस सवाल का जवाब अभी और यहीं मिलना चाहिए, वह यह है कि प्रधानमंत्री (जो खुद को प्रधान सेवक) भी मानते हैं, अचानक, क्यों और किस कारण प्रधान न्यायाधीश के पूजा-घर में गौरी-गणेश की आरती उतारने पर विवश हुए या उन्हें किस चीज ने ऐसा करने के लिए उकसाया? वह कौन-सी डोर है, जो न्यायपालिका और कार्यपालिका के प्रमुखों को जोड़ती है। और, जिससे शक्ति पाकर प्रधानमंत्री, प्रधान न्यायाधीश के साथ पूजा-पाठ करने के लिए खुद को अधिकारी समझे होंगे।
इसकी तह में जाना जरूरी है। ज्यादा वक्त नहीं हुआ है और यह सर्वविदित है कि जनवरी 2024 में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ अपनी पत्नी के साथ गुजरात के कुछ मंदिरों की तीर्थ-यात्राएं की थीं। इन यात्राओं में सोमनाथ मंदिर और द्वारकाधीश मंदिर भी शामिल थे। उस मंदिर-दर्शन में दो बातें खासतौर से चर्चा में रही थीं। एक- न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने भगवा वेश धारण कर रखा था और उस पूजा-पाठ की तस्वीरें उतारी गई थीं, जिन्हें अखबारों में और मीडिया में प्रचारित किया गया था।
यह बात भी सामने आ रही थी कि न्यायमूर्ति ने छायाकारों को तस्वीर खींचने की अनुमति स्वेच्छा से दी थी। इस संदर्भ में यह तथ्य भी उल्लेखनीय था कि ये तीर्थयात्राएं तब की गई थीं, जब अयोध्या में राम मंदिर उद्धाटन में दस-बारह दिन शेष थे। उस समय न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपनी यात्रा को लेकर जो टिप्पणी की थी, उसकी सार्वजनिक हलकों में तीखी आलोचना हुई थी।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपनी टिप्पणी में कहा था, ‘’मैं आज सुबह द्वारकाधीश जी में ‘ध्वजा‘ से प्रेरित हुआ, जो कि उसी ध्वज के समान है, जो मैंने जगन्नाथपुरी में देखा था। लेकिन, हमारे देश की परंपरा की इस सार्वभौमिकता को देखिए, जो हम सभी को बांधती है। इस ध्वज का हमारे लिए विशेष अर्थ है। और ध्वज, हमें जो अर्थ देता है, वह है -वकील, न्यायाधीश, नागरिक के रूप में हम सभी के ऊपर कोई एकजुट करने वाली शक्ति है। और वह एकीकृत शक्ति हमारी मानवता है, जो कानून के शासन और भारत के संविधान द्वारा शासित होती है।‘’
इसी टिप्पणी में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह भी कहा था कि उन्होंने न्यायपालिका के सामने आने वाली चुनौतियों को समझने और उनके समाधानों की शिनाख्त करने के लिए महात्मा गांधी के जीवन और आदर्शों से प्रेरित होकर विभिन्न राज्यों का दौरा शुरू किया था। कहने की जरूरत नहीं कि इतिहासकार रामचंद्र गुहा से लेकर कई प्रगतिशील और उदारचेता विद्वानों ने न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की टिप्पणी और उनके निजी तीर्थ-यात्रा को सावर्जनिक ढंग से पेश करने के तरीके की कड़ी आलोचना की थी। लोगों ने यह भी कहा कि भारत के सेवारत प्रधान न्यायाधीश द्वारा अपने मंदिर दौरे को इतना सार्वजनिक करने का तरीका परेशान करने वाला है।
प्रधान न्यायाधीश ने जब हिंदू परंपरा और भारतीय संविधान के बीच निरंतरता के रूपक को सराहा तो कई विद्वानों ने उनकी बौद्धिक कुशलता को प्रश्नांकित करने की कोशिश की थी। रामचंद्र गुहा ने (टेलीग्राफ, कलकत्ता) यह सवाल भी उठाया था कि न्यायमूर्ति जिस हिंदू परंपरा की बात कर रहे हैं, उसमें महिलाओं और दलितों के साथ बहुत भेदभाव किया गया है। यहां तक कि 1988 की एक रिपोर्ट में पुरी के शंकराचार्य ने सती प्रथा का बचाव किया था और महिलाओं और दलितों को वेद-पाठ और उनकी व्याख्या करने के लिए अपात्र, अनाधिकारी बताया था।
कहना जरूरी है कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ इसके बाद जुलाई, 2024 के पहले हफ्ते में अयोध्या में राममंदिर दर्शन के लिए भी गए थे। उनकी यह यात्रा भी कोई एकांतिक तीर्थयात्रा न होकर सार्वजनिक तौर पर ही प्रचार-प्रसार पाती रही है।
इस संबंध में उल्लेखनीय तथ्य यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों को कैमरों के बीच संपन्न करते-कराते रहे हैं। वे एक राजनीतिक व्यक्ति हैं, और स्वाभाविक तौर अगर वे उससे लोक-लाभ लेना चाहते हैं तो, कुछ हद शायद वह स्वीकारणीय या क्षम्य हो सकता, लेकिन प्रधान न्यायाधीश के अपनी निजी और गोपन क्षणों को कैमरे में उतारने की प्रक्रिया शुरू से ही चौंकाने वाली रही है।
अब अगर, भारत जैसे महादेश के दो प्रमुख स्तंभों- न्यायपालिका और कार्यपालिका के प्रमुखों का एक ही पूजा-घर में आरती-पूजा करने के कुछ ‘’अलग अर्थ’’ तलाशे जा रहे हैं, तो इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। बल्कि, इस मामले को अनदेखा करेंगे, तो यह ज्यादा अचंभा होगा। दोनों महाप्रमुखों के आचरण की मर्यादा और पवित्रता अक्षुण्ण होनी चाहिए। इससे कम पर कुछ भी इस देश को मंजूर नहीं होना चाहिए।
(राम जन्म पाठक जनसत्ता में वरिष्ठ पद पर काम कर चुके हैं।)