आहत धार्मिक भावनाओं की बात करने का असली हकदार कौन है?

Estimated read time 8 min read

क्या किसी दूसरे धर्म के प्रार्थना स्थल में बेवक्त जाकर हंगामा करना या अपने पूजनीय/वरणीय के नारे लगाना, ऐसा काम नहीं है, जिससे शांतिभंग हो सकता है, आपसी सांप्रदायिक सद्भाव पर आंच आ सकती है? सूबा कर्नाटक की उच्च अदालत की न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना की एक सदस्यीय पीठ का ताज़ा फैसला यही कहता है कि ‘ऐसी घटना से किसी की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती हैं।’ (1)

जाहिर सी बात है कि एक ऐसे समय में जबकि दक्षिणपंथी ताकतें समूचे समाज में विवाद पैदा करने की फिराक में हैं, यह महसूस किया गया कि यह फैसला निश्चित तौर पर ऐसे शरारती तत्वों को मनोबल प्रदान करेगा। (2)

हाल के समय में ऐसी तमाम वारदातें सामने आयी हैं जब ऐसे उग्र तत्वों ने गैरधर्मियों के प्रार्थनास्थलों में जबरन घुस कर विवाद पैदा करने की कोशिश की और कई स्थानों पर जिसकी परिणति सांप्रदायिक हिंसा या दंगों में हुई। (3)

यहां तक कि हाल में बहराइच हिंसा की घटना के लिए भी आततायी तत्वों द्वारा इसी तरह गैरधर्मीयों के धार्मिक झंडा उतारने की घटना को जिम्मेदार माना जा रहा है।

आज की तारीख में जबकि मुल्क के धार्मिक और सामाजिक अल्पसंख्यक हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतों के उभार से पहले से ही घिरा हुआ महसूस कर रहे हैं, जहां सत्ताधारी जमात के लीडरान खुद धर्माधंता फैलाने के लिए, गैरधर्मियों के खिलाफ दुर्भावना का प्रसार करने के लिए मानवाधिकार संगठनों के निशाने पर आए हैं। (4)

इस बात की कल्पना करना मुश्किल नहीं कि ऐसे फैसले असुरक्षा की भावना को बढ़ावा दे सकते हैं, उनके अंदर असहायताबोध पैदा कर सकते हैं। (5)

मालूम हो कि पिछले साल 24 सितम्बर 2023 को कडाबा पुलिस स्टेशन से जुड़े बंतरा गांव के हैदर अली ने थाने में शिकायत दर्ज की कि उसी रात 10.50 पर कुछ अज्ञात लोग मस्जिद में घुस गए और उन्होंने ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाए, उसका यह भी कहना था कि इन आततायियों ने यह धमकी दी कि वह ‘बेअरी लोगों को छोड़ेंगे नहीं’। बेअरी तटीय कर्नाटक में निवास करनेवाला एक मुस्लिम समुदाय का नाम है।

अगले दिन जब पुलिस ने मस्जिद पर लगे सीसीटीवी फुटेज की जांच की तब उन्हें दिखा कि कुछ अज्ञात लोग मस्जिद के इर्द-गिर्द मोटरसाइकिल पर घुम रहे हैं, जिन्होंने बाद में मस्जिद में घुस कर यह शरारत की। बाद में उन्हें पड़ोस के बिलनेली गांव के कीर्थन कुमार /उम्र 28 वर्ष/ और सचिन कुमार / उम्र 26 वर्ष/ के तौर पर चिन्हित किया गया और स्थानीय पुलिस स्टेशन में उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 447 / किसी परिसर में आपराधिक इरादे से घुसपैठ/, धारा 295 ए / ऐसी कार्रवाई जिससे धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती हैं/ और धारा 505 / सार्वजनिक शांति को भंग करने वाली कार्रवाई आदि धारा में मुकदमे दर्ज किए गए।(6)

न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना की अदालत के इस फैसले को लेकर एक बड़े तबके में दुख और सदमे की स्थिति है। संवेदनशील लोग इस बात को पूछ रहे हैं कि सीसीटीवी फुटेज में यह दिखने के बावजूद कि वह जोड़ी काफी देर तक मस्जिद के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती रही, रात के अंधेरे में वह बिना वजह उसमें घुस गयी, उन्होंने धार्मिक नारे लगाए और इतना ही नहीं एक खास समुदाय से निपटने की बात कही, अदालत उनकी इस कार्रवाई में इरादा क्यों नहीं ढूंढ़ सकी? कुछ लोगों ने यह भी पूछा कि अगर कल कुछ मुसलमान किसी मंदिर में घुस कर अल्लाहू अकबर का नारा लगाते हैं, तो क्या अदालत का वही रूख होगा! (7)

इसमें कोई दोराय नहीं कि देश के इन्साफपसंद वकील और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता इस फैसले की छानबीन कर रहे होंगे ताकि एक बड़ी पीठ के सामने इसे चुनौती दी जा सके। और इस फैसले ने एक तबके में जो असुरक्षा की भावना पैदा की है, वह दूर हो। वैसे उपरोक्त फैसले के जो अंश अख़बारों में भी प्रकाशित हुए है, वह बताते हैं कि अदालत ने इस मुकदमे को खारिज करने के लिए उच्चतम अदालत के सामने आए ‘महेंद्र सिंह धोनी बनाम येरागुन्टला शामसुंदर’ मामले की नज़ीर पेश की। (8)

अगर बारीकी से देखें तो दोनों मामले अलग हैं। महेंद्र सिंह धोनी मामले में ‘आहत धार्मिक भावनाओं’ का केस तब दर्ज किया गया था जब किसी पत्रिका के कवर पर उन्हें विष्णु के अवतार में चित्रित किया गया था, जिनके हाथ में संभवतः कंपनी के उत्पाद थे। उच्चतम अदालत की त्रि सदस्यीय पीठ ने इस आधार पर खारिज किया कि ‘गैरजानकारी में या लापरवाही से या बिना किसी सचेत इरादे से की गयी कार्रवाई से अगर किसी की भावनाओं को चोट पहुंचती है, तो उसे इस श्रेणी में डाला नहीं जा सकता।’ तय बात है कि मस्जिद में रात में घुस कर नारे लगाना गैर जानकारी या लापरवाही में किया गया मामला नहीं है।

वैसे फिलवक्त जब हम इस फैसले को लेकर उच्चतम अदालत के हस्तक्षेप का या उच्च न्यायालय की बड़ी पीठ के निर्णय का इन्तजार कर रहे हैं -यह रेखांकित करना गैरवाजिब नहीं होगा कि विगत एक दशक से जबसे हमारे न्यू इंडिया में प्रवेश करने की बात चल रही है, तबसे जमीनी स्तर पर कुछ न कुछ बदला है।

केन्द्र में जबसे हिन्दुत्व वर्चस्ववादी जमातों का बोलबाला बढ़ा है, सभी लोग भले ही कानूनन एक समान हों, मगर समां ऐसा बना है कि गाली-गलौज, नफरती नारे यहां तक बहिष्करण का सामना कर रहे धार्मिक और सामाजिक अल्पसंख्यकों के लिए अपनी ‘आहत भावनाओं’ की शिकायत करने में तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दूसरी तरफ, उनके हमलावरों को, उनके उत्पीड़कों को यह पूरी आज़ादी है कि वह अपने पीड़ितों के खिलाफ शिकायत दर्ज करें, उन्हें मारे पीटे। धार्मिक आयोजनों के नाम पर होने वाले कार्यक्रमों में ऐसे तबकों के जनसंहार के ऐलान तक होते हैं, मगर कहीं कुछ पत्ता तक नहीं हिलता।

पिछले साल की बात है, उत्तराखंड के एक दलित युवक पर मंदिर अपवित्राीकरण का केस पुलिस ने दर्ज किया। (9 ) मामले की शिकायत करने वाले कथित ऊंची जाति के कुछ लोग थे। दरअसल यह वही लोग थे जिन्होंने चंद रोज पहले दलित युवक को मंदिर प्रवेश से रोका था और बुरी तरह पीटा था, जिसके चलते उन सभी पर अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून 1989 के तहत केस दर्ज हुए थे। उधर दलित युवक अस्पताल में भर्ती था और इन वर्चस्वशाली लोगों ने पुलिस और अदालत में अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके उसके खिलाफ यह झूठा केस दर्ज किया। वैसे यह एक बहुचर्चित और बार-बार आजमाया जाने वाला हथकंडा है, जो दबंग जातियां इस्तेमाल करती आयी हैं।

पीड़ित युवक के करीबी लोगों ने पत्रकारों से एक ही सवाल पूछा कि ‘दलितों की गरिमा, उनका सम्मान इस कदर हल्का क्यों है?’ आजादी के पचहत्तर साल बाद आखिर कितनी आसानी से अस्पृश्यता निवारण अधिनियम के तहत दर्ज मामले को हल्का किया जा सकता है और किस तरह दलितों के वास्तविक अपमान को दबंगों के झूठे अपमान से कमजोर किया जा सकता है।

वैसी ही आवाज़ें विगत साल सूबा पंजाब के पटियाला से भी सुनाई दी, जब गुरुद्वारे में शाम के वक्त़ अकेली बैठी पैंतालीस साल की एक महिला को देख कर वहां दर्शन के लिए गए दूसरे शख्स ने उस पर बाकायदा गोली चला दी और उस महिला ने वहीं दम तोड़ दिया। पता चला कि हत्यारे की भावनाएं यह देख कर ‘आहत’ हो गयी थीं, जब कथित तौर पर उसने यह देखा कि वह महिला शराब का सेवन कर रही है। गौर करने वाली बात है कि न शराब पीना अपने आप में गैरकानूनी है और अगर कोई चीज़ गैरकानूनी है तो आप उसकी शिकायत कर सकते है, और फिर अदालत उसमें फैसला दे सकती है। जाहिर है ऐसा कुछ नहीं हुआ। (10 )

गौर करने वाली बात यह थी कि धर्म के अलम्बरदारों ने भी मृतक महिला के प्रति कोई सहानुभूति नहीं प्रगट की, न यह सवाल पूछा कि आखिर किसी प्रार्थनास्थल के अंदर ऐसे हथियार कैसे आसानी से जा सकते हैं, उन्होंने गोया हत्या को औचित्य प्रदान करते हुए महिला के व्यवहार को सूबे में बेअदबी की घटनाओं के संगठित प्रयास का हिस्सा घोषित किया और कहा कि ऐसी घटनाओं को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। उनके नुमाइंदे बाकायदा हत्यारे के घर पहुंचे और उन्होंने उसके माता पिता को ‘सरोपा’ भेंट किया, गोया हत्या पंथ के लिए उसने कोई महान काम किया हो।

स्टैंण्ड अप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी को जिस तरह उस जोक के लिए जेल भेजा गया, जो उन्होंने कार्यक्रम में सुनाया तक नहीं गया, वह घटना तो आप जानते ही हैं (11)

वैसे ‘आहत भावनाओं के हालिया उभार के इस दौर में हम चाहें तो दुनिया के इस हिस्से में ‘आहत भावनाओं’ के लंबे इतिहास पर और उसकी गहरी सामाजिक जड़ों पर भी निगाह डाल सकते हैं।

सुश्री नीति नायर की एक किताब आयी है जिसका शीर्षक है ‘Hurt Sentiments & Secularism and Belonging in South Asia’ -Harvard University Press] 2023 हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की तरफ से प्रकाशित इस किताब में वह भारत, पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश की राज्य विचारधाराओं पर निगाह डालती हैं और अलग अलग किस्म के राजनीतिक कारकों द्वारा इस्तेमाल किए गए आहत भावनाओं के तर्क की विवेचना करती है, फिर चाहे गांधी की हत्या के लिए औचित्य प्रदान करने के लिए नाथुराम गोडसे के तर्क हों या पाकिस्तान के निर्माताओं के तर्क हों। /पेज 4/

दरअसल दक्षिण एशिया के इस हिस्से में आहत भावनाओं की यह रेलमपेल अर्थात प्रचुरता की जड़ें हमारे आकलन से भी बहुत गहरी हैं। वह मेकॉले को उद्धृत करती हैं, कि उसने 19 वीं सदी की शुरुआत में तत्कालीन ब्रिटिश भारत को किस तरह देखा था:

यह विचार कि भारतीय लोग भावनाओं के ‘‘आहत’’ होने या घायल होने को लेकर अत्यधिक सचेत रहते हैं, इस बात को पहली दफा ईस्ट इंडिया कंपनी के कानून सदस्य थॉमस बॅबिंग्टन मेकॉले ने, भारतीय दंड विधान 1837 के लिए तैयार अपने मसविदा नोट में लगभग दो सदी पहले दर्ज किया था जब उसने रेखांकित किया था कि ऐसा कोई मुल्क नहीं है ‘जहां सरकार को लोगों की धार्मिक भावनाओं के उत्तेजित होने को लेकर इतना सचेत रहना पड़ता है।’
(“The idea that Indians were especially predisposed to having their sentiments Þhurtß or wounded was first elaborated upon by the Law Member in the East India Company] Thomas Babington Macaulay] in his draft note on the Indian Penal Code in 1837] almost two centuries ago- Macaulay held that there was Þno country in which the Government has so much to apprehend from religious eÛcitement among the people-“)

दरअसल यह एहसास कि भावनाओं को भड़काने या ‘‘दुश्मनी या नफरत की भावनाओं’ को हवा देने से अलग अलग समुदायों में तनाव बन सकता है, इसके चलते ही भारतीय दंड विधान की धारा 153 /ए/ का निर्माण उन्हीं दिनों हुआ, जिसने विवादास्पद भाषण या लेखन का अपराधीकरण किया या बीसवीं सदी की शुरूआत में भारतीय दंड विधान की धारा 295 ए का निर्माण हुआ था जिसके तहत ‘‘धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर अपमानित करने की कार्रवाइयों का’’ अपराधीकरण किया गया था।

बांगलादेश की एक अग्रणी पत्रकार ने महज एक साल पहले अपने एक तीखे आलेख में यही सवाल बिल्कुल सीधे तरीके से पूछा था जब बांगलादेश के नारैल नामक स्थान पर अल्पसंख्यक हिन्दू हमले का शिकार हुए थे, जब किसी हिन्दू युवक के फेसबुक पोस्ट के चलते बहुसंख्यक इस्लामिस्ट उग्र हुए थे। अपनी ‘आहत भावनाओं’ की प्रतिक्रिया में एक संगठित हिंसक भीड़ ने उनकी बस्ती पर हमला किया था।

अगर आप बांगलादेश के अख़बारों के उन दिनों के विवरण पढ़ेंगे तो वह विवरण उसी किस्म के होंगे जैसी ख़बरें पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान या अपने मुल्क से आती है। कई लोग घायल हुए, महिलाओं को असम्मानित किया गया, मकानों और घरों को लूटा गया, जलाया गया ; हमलावरों में अच्छा खासा हिस्सा अगल बगल के गांव का ही था और जिनमें कई परिचित चेहरे भी शामिल थे। और पुलिस हमेशा की तरह यहां भी मूकदर्शक बनी रही। (12)

पत्रकार के लिए यह सोचना भी कम तकलीफदेह नहीं था कि किस तरह धर्म के नाम पर अपराधों का शिकार होने वाले लोग, समुदायों को आतंकित करने वाली घटनाओं के भुक्तभोगी लोग-ऐसी घटनाएं जो आप को बेहद असुरक्षित और निराश कर देती हैं – इतना सा दावा भी नहीं कर सकते कि वे बुरी तरह, बेहद बुरी तरह अपमानित, घायल हुए हैं।

और फिर उसने सवाल पूछा कि ‘आखिर आहत धार्मिक भावनाओं’ की बात करने का असली हकदार कौन है ? (Who is entitled to hurt religious sentiments?) बिना कुछ इधर उधर की बात किए उसने उस पहेली की बात की थी जो कोई सुलझाना नहीं चाहता था।

‘आखिर एक अदद फेसबुक पोस्ट पर-जिसकी सत्यअसत्यता की पड़ताल भी नहीं हुई है-एक व्यक्ति को गिरफ़्तार करने के लिए अपनी प्रचंड सक्रियता दिखाने वाली पुलिस मशीनरी आखिर उस वक्त़ कहां विलुप्त हो जाती है जब अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा को अंजाम देने वालों की गिरफ़्तारी का वक्त़ आता है, उसे अचानक कैसे लकवा मार जाता है? कानून के रखवाले या तो गैरहाजिर होते हैं या तब तक निष्क्रिय बने रहते हैं, जब तक पूरी तरह से तबाही मचा कर हमलावर लौट न जाएं।’

इन छिटपुट उदाहरणों को देख कर भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ऐसे मुददों की कोई कमी इस उपमहाद्वीप में नहीं है जिसके आधार पर बहुसंख्यकवादी जन ‘अन्यों’ को लांछन लगाने या उनका अपराधीकरण करने में संकोच करते हों।

वैसे घटाटोप के इस माहौल में सुकून देने वाली बात यह ढूंढ़ी जा सकती है कि जगह जगह आवाज़ें उठ रही है किसी बहुआस्थाओं वाले मुल्क में आहत होने के दोहरेपन को प्रश्नांकित करती दिख रही हैं और अल्पसंख्यक पर होने वाले हमलों के मामलों में बहुसंख्यकों के विराट मौन को भी प्रश्नांकित करने को तैयार हैं।

बांगलादेश के ही एक अन्य लेखक ने नारैल की घटनाओं के दिनों में ही लिखा था कि किस तरह ऐसा मौन समाज में विभिन्न तबकों की हिंसा का सामान्यीकरण कर देता है और इस बात की भी चीरफाड़ की थी कि ऐसा मौन एक तरह से एक ‘झुंडवाद’ का नतीजा है – जिसके तहत लोग अपने समूह या अपने समुदाय के प्रति जबरदस्त एकनिष्ठा का प्रदर्शन करते हैं (13 )

लेख के अंत में लेखक ने मौन बहुमत को अपनी चुप्पी तोड़ने का आवाहन किया था और आखिर में 13 वी सदी के महान कवि दान्ते अलिगिअेरी (Dante Alighieri ) की रचना डिवाइन कॉमेडी के इस बात को उद्धृत किया था ‘The hottest places in hell are reserved for those who, in times of great moral crisis, choose to maintain their neutrality.”
‘(नरक की सबसे गर्म जगहें उन लोगों के लिए आरक्षित हैं, जिन्होंने बड़े नैतिक संकट के दिनों में भी तटस्थता का रास्ता चुना’)

(सुभाष गाताडे , लेखक, अनुवादक और वामपंथी कार्यकर्त्ता, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से सम्बद्ध हैं। )

1. https://muslimmirror.com/shouting-jai-shri-ram-inside-mosque-does-not-outrage-religious-feelings-karnataka-high-court/

2. https://www.thehindu.com/news/national/kerala/legal-sanctity-for-jai-shri-ram-in-mosques-muslim-jamaat-warns-of-serious-consequences/article68761585.ece

3. https://www.etvbharat.com/en/!state/ram-mandir-inauguration-right-wingers-saffron-flag-mosque-uttar-pradesh-agra-enn24012301099 ; https://www.etvbharat.com/english/bharat/miscreants-hoist-saffron-flag-atop-mosque-in-bihars-muzzafarpur-case-registered/na20220412113718899 ; https://www.thequint.com/news/india/kolhapur-vishalgad-fort-communal-riots-mosque-attack-illegal-encroachment-hindutva-mob-sambhaji-raje ; https://www.thenewsminute.com/karnataka/miscreants-hoist-saffron-flag-atop-mosque-belagavi-case-registered-163859

4. https://www.thehindu.com/news/national/pm-modi-made-islamophobic-remarks-in-110-campaign-speeches-human-rights-watch/article68524165.ece ; https://www.jurist.org/news/2024/08/india-pm-modi-used-hate-speech-to-fuel-his-2024-political-campaign-hrw/

5. https://scroll.in/article/1073774/every-day-is-haunting-the-broken-lives-of-the-families-of-lynched-muslim-men

6.  https://www.thenewsminute.com/karnataka/no-offence-in-jai-shri-ram-slogans-inside-mosque-rules-karnataka-hc

7. (https://indiatomorrow.net/2024/10/17/karnataka-hcs-ruling-shouting-jai-shri-ram-in-a-mosque-cant-hurt-religious-sentiments-raises-questions-whether-muslims-can-chant-allahu-akbar-in-temples/

8. (https://www.thenewsminute.com/karnataka/no-offence-in-jai-shri-ram-slogans-inside-mosque-rules-karnataka-hc

9 . (https://www.telegraphindia.com/india/sacrilege-case-on-assaulted-dalit-in-uttarakhand/cid/1911953)

10 . (https://theprint.in/india/woman-killed-for-drinking-liquor-in-patiala-gurdwara-sgpc-alleges-plot-to-target-sikh-shrines/1575085/

11 . (https://time.com/5938047/munawar-iqbal-faruqui-comedian-india/ ;https://www.bbc.com/news/world-asia-india-55945712

12 https://www-thedailystar-net/opinion/views/no&strings&attached/news/whose&religious&sentiments&are&more&important&3074271

13 https://www.thedailystar.net/shout/news/the-silent-majority-needs-speak-about-narail-3072596

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author