Friday, April 26, 2024

न्यायपालिका की स्वतंत्रता से क्यों डर रही है केंद्र सरकार

उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने केशवानंद भारती मामले में सुप्रीमकोर्ट के फैसले पर सवाल उठा कर प्रकरांतर से मोदी सरकार की इस आकांक्षा की अभिव्यक्ति की है कि लोकतंत्र की आड़ में प्रधानसेवक की तानाशाही कायम हो जाये। केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संसद पर सिर्फ इतनी सीमा लगाई थी कि वह कोई भी ऐसा कानून नहीं बना सकती जो संविधान के मूल ढांचे को किसी भी रूप में ठेस पहुंचाता हो। अब यह बात समझ से परे है कि इनमें से ऐसी कौन सी बात थी जिसने भारत के वर्तमान उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के पदेन सभापति जगदीप धनखड़ को यह कहने पर बाध्य कर दिया कि 1973 के केशवानंद भारती मामले ने एक गलत परंपरा को जन्म दे दिया।   

केरल के संत केशवानंद भारती ने न केवल केरल भूमि सुधार अधिनियम को चुनौती दी थी बल्कि 24, 25, 26 और 29वें संविधान संशोधनों व गोलकनाथ मामले के निर्णय को चुनौती दी थी। केशवानंद ने चूंकि गोलकनाथ मामले में 11 जजों की पीठ द्वारा दिए गए निर्णय को भी चुनौती दी गई थी, इसलिए इस मामले में सुनवाई के लिए तत्कालीन चीफ जस्टिस एसएम सीकरी की अध्यक्षता वाली 13 जजों की पीठ का गठन किया गया।

इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया अनुच्छेद-368 जो संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्तियां प्रदान करता है, के तहत संविधान की मूलभूत संरचना में बदलाव नहीं किया जा सकता है। केशवानंद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मूलभूत संरचना को परिभाषित तो नहीं किया लेकिन यह माना गया कि संघवाद, पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र आदि ‘मूलभूत संरचना’ हैं। इसके बाद से न्यायालय ने इस सूची का निरंतर विस्तार किया है।

संविधान सरंचना के कुछ प्रमुख मूलभूत तत्व जिनमे अनुछेद 368 के तहत संसोधन नही किया जा सकता है निम्नलिखित है 1. संविधान की सर्वोच्चता 2. विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्ति का बंटवारा 3. गणराज्यात्मक एवं लोकतांत्रिक स्वरूप वाली सरकार 4. संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र 5. राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता 6. संसदीय प्रणाली 7. व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा 8. मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के बीच सौहार्द और संतुलन 9. न्याय तक प्रभावकारी पहुँच 10. एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का जनादेश

मूलभूत संरचना के महत्व को एसआर बोम्मई (1994) मामले से समझा जा सकता है। बाबरी विध्वंस के बाद राष्ट्रपति द्वारा भाजपा सरकारों की बर्खास्तगी को बरकरार रखा गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इन सरकारों की बर्खास्तगी धर्मनिरपेक्षता के लिए आवश्यक है।

तत्कालीन चीफ जस्टिस एसएम सीकरी ने सेवानिवृत्ति के ठीक एक दिन पहले यानी 24 अप्रैल 1973 को बहुमत के आधार पर यह फैसला किया था। चीफ जस्टिस भी बहुमत का हिस्सा थे। यह वह फैसला था जिसने सरकार को कहीं न कहीं धक्का पहुंचाया था। शायद यही वजह थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 अप्रैल 1973 को परंपरा से हटकर वरिष्ठतम जज को चीफ जस्टिस बनाने की जगह जस्टिस एएन रे को चीफ जस्टिस बनाने का निर्णय लिया। जस्टिस एएन रे, केशवानंद भारती मामले की पीठ का हिस्सा थे और उनका मत बहुमत की राय से उलट था।

1975 में तत्कालीन चीफ जस्टिस एएन रे ने केशवानंद भारती के मामले पर पुनर्विचार करने की भी कोशिश की। उन्होंने बाकायदा 13 सदस्यीय पीठ का गठन किया। पुनर्विचार की कार्यवाही भी शुरू हुई लेकिन दो दिन हुई सुनवाई में पालकीवाला आदि न्यायविदों के कठोर विरोध के बाद इस पीठ को भंग करने पड़ा। पालकीवाला का कहना था कि बगैर पुनर्विचार याचिका दायर हुए पुनर्विचार नहीं किया जा सकता ।

केशवानंद भारती मामले में सुनवाई के दौरान जब उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि संविधान के कुछ प्रावधान संविधान के मूल ढांचे से जुड़े हुए हैं और बिना इनके संविधान की मूल भावना ही खत्म हो सकती है तब तत्कालीन अटॉर्नी जनरल नीरेन डे का तर्क यह था कि संविधान के सभी प्रावधान जरूरी हैं अन्यथा इन्हे संविधान में जगह न दी जाती’।

इसका जिक्र भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश एस. एम. सीकरी ने केशवानंद भारती मामले के अपने निर्णय में भी किया है। 700 पन्नों के इस निर्णय के पैराग्राफ 302 में न्यायमूर्ति सीकरी ने अटॉर्नी जनरल की बात का जवाब देते हुए लिखा कि यह सही है कि संविधान के सभी प्रावधान जरूरी हैं लेकिन सिर्फ इतनी बात से संविधान के सभी प्रावधानों की अहमियत एक नहीं हो जाती और न ही उन सभी को एक ही धरातल पर रखा जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि संविधान के सभी प्रावधानों को संशोधित किया जा सकता है बशर्ते संविधान का मूल आधार और ढाँचा न बदले।

सवाल है कि क्या वास्तव में केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘गलत परंपरा’ को जन्म दे दिया है? क्या उपराष्ट्रपति जिम्मेदारी पूर्वक बताएंगे कि इनमें ऐसे कौन से सिद्धांत हैं जिन्हे ‘संविधान के मूल ढांचे’ में लाकर सर्वोच्च न्यायालय ने ‘गलत परंपरा’ को जन्म दे दिया है?

उपराष्ट्रपति धनखड़ के लिए ‘संविधान के मूल ढांचे’ को लेकर एक और जबरदस्त संदेश केशवानंद भारती निर्णय में निहित है। पैराग्राफ 667 में जस्टिस हेगड़े और जस्टिस मुखर्जी ने लिखा कि “हमारे संविधान में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जिन्हें न ही परिवर्तित किया जा सकता है और न ही खत्म किया जा सकता है।..कोई भी(सरकार) कानूनी रूप से संविधान को इस्तेमाल करके इसे खत्म नहीं कर सकती। अनुच्छेद-368 के तहत संशोधित संविधान वह ‘संविधान’ बना रहना चाहिए जो ‘मूल संविधान’ था।” केशवानंद की आवश्यक शर्त अर्थात ‘संविधान का मूल ढाँचा’ शायद उपराष्ट्रपति की आकांक्षाओं की पूर्ति करने में असक्षम हो। 

जब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने यह अवांछित बयान दिया तब वे जयपुर में आयोजित 83वीं ‘अखिल भारतीय पीठासीन सम्मेलन’ में बोल रहे थे। संसदीय सर्वोच्चता को सर्वोपरि रखते हुए उन्होंने कहा कि “एक लोकतांत्रिक समाज में, किसी भी बुनियादी ढांचे का आधार लोगों की सर्वोच्चता, संसद की संप्रभुता है। कार्यपालिका संसद की संप्रभुता पर फलती-फूलती है। परम शक्ति विधायिका के पास है। विधायिका यह भी तय करती है कि अन्य संस्थानों में कौन रहेगा। किसी को दूसरों के क्षेत्र में घुसपैठ नहीं करनी चाहिए।” स्पष्ट है कि संसद को पहले से ही सर्वोच्च मान चुके उपराष्ट्रपति को केशवानंद मामले से निकले सिद्धांत बिल्कुल पसंद नहीं आये।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम-2014 को उच्चतम न्यायालय की 5 सदस्यीय पीठ द्वारा असंवैधानिक घोषित किया जाना भी उपराष्ट्रपति को पसंद नहीं आया जबकि उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद-13 से प्रदत्त न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का उपयोग किया था लेकिन किसी भी संसदीय कानून को न्यायिक परिसीमा में लाना शायद उपराष्ट्रपति को रास नहीं आया। मुख्य बात तो यह है कि अगर संविधान की सर्वोच्चता, न्यायिक पुनर्विलोकन और संसद पर युक्तियुक्त प्रतिबंधों की बात सामने आएगी तो उपराष्ट्रपति को आजादी के बाद से ही उच्चतम न्यायालय बिल्कुल पसंद नहीं आएगा।

ए. के गोपालन बनाम मद्रास राज्य(1950) मामले में सुनवाई करते हुए भारत के पहले मुख्य न्यायधीश जस्टिस एचजे कानिया ने कहा था कि “संविधान के निर्माताओं ने तो केवल चेतावनी के रूप में अनुच्छेद-13 में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित उपबंधों का समावेश किया है अन्यथा इसकी अनुपस्थिति में भी न्यायालयों को ऐसी शक्ति सहज रूप से प्राप्त है।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की कुछ अन्य उलझनों का भी निराकरण जस्टिस कानिया ने 1950 में इसी मामले में ही कर दिया था। गोपालन मामले में ही जस्टिस कानिया ने लिखा कि “भारत में संविधान सर्वोच्च विधि है और एक अधिनियम को विधिमान्य होने के लिए यह आवश्यक है कि वह सभी प्रकार से संविधान के उपबंधों के अनुरूप हो। कोई अधिनियम संवैधानिक है या नहीं, इस प्रश्न का निर्णय करने की शक्ति न्यायपालिका को ही है।”

भारत के दूसरे मुख्य न्यायधीश जस्टिस पतंजलि शास्त्री का न्यायिक पुनर्विलोकन और संसदीय कानूनों को लेकर लगभग यही रुख रहा है। मद्रास राज्य बनाम बीजी राव मामले(1952) में उन्होंने कहा था कि “हमारे संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित स्पष्ट उपबंध दिए गए हैं जो संविधान के अनुकूल हैं।…संविधान ने न्यायालय को ‘एक सजग प्रहरी’ के रूप में नियुक्त किया है।”

इसके बाद शंकरी प्रसाद और बाद में सज्जन सिंह मामले में उच्चतम न्यायालय ने नागरिक अधिकारों को संसदीय विवेक पर छोड़ दिया। लेकिन इसके बाद गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य(1967) में सर्वोच्च न्यायालय की 11 सदस्यीय पीठ ने संसदीय विवेक को किनारे करके साफ शब्दों में अभिनिर्धारित किया कि संसद अनुच्छेद-368 के तहत संविधान के सभी प्रावधानों में संशोधन नहीं कर सकती। मतलब बिल्कुल साफ था कि संसद चाहे तो अनुच्छेद-368 के तहत संशोधन करे लेकिन अगर वो संशोधन भाग-3 में प्रदत्त अधिकारों से असंगत होने लगे तो उन्हें असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है।

इस बार संसदीय एकाधिकार को 11 सदस्यीय पीठ से चुनौती मिली थी लेकिन तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार 24वें संविधान संशोधन के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय को चुनौती देने लगी। संसद ने एक ऐसा कानून बना दिया जिसमें अनुच्छेद-368 के तहत किए जाने वाले संशोधन को ‘विधि’ ही नहीं माना जाना था जबकि अनुच्छेद-13 में न्यायिक पुनर्विलोकन के लिए ‘विधि’ एक आवश्यक शर्त थी।

इस स्थिति से उबारने के लिए एक बार फिर से न्यायपालिका को नागरिकों और संविधान की रक्षा के लिए केशवानन्द भारती के माध्यम से आना पड़ा। 13 सदस्यीय पीठ बनाई गई और सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘संविधान के मूल ढांचे’ को छिन्न-भिन्न करने वाले किसी भी नियम, अधिनियम, अध्यादेश या आदेश को असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है।

इसके बाद मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में सर्वोच्च न्यायालय की 5 सदस्यीय पीठ ने बिल्कुल साफ शब्दों में कहा कि संसद की कानून बनाने की शक्ति असीमित नहीं बल्कि सीमाओं में बंधी है। यह सीमा है ‘संविधान का आधारभूत या मूल ढाँचा’। इसके बाद कभी किसी सरकार ने जब भी आधारभूत ढांचे के बाहर जाकर किसी कानून को बनाने की कोशिश की तो उसे उच्चतम  न्यायालय द्वारा ‘असंवैधानिक’ घोषित किया जाता रहा

दरअसल चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर पूर्ण नियंत्रण होने के बाद तानाशाही के रास्ते में दो बड़ी बाधाएं बचती है, प्रेस और न्यायपालिका। 2014 के बाद केंद्र सरकार की नीतियों के कारण अधकांश मझोले और छोटे समाचार पत्र बंद हो गये, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मालिक सरकार के शरणागत हो गये और आज मीडिया का नामकरण गोदी मीडिया हो गया है। बस एक न्यायपालिका बची है जो घोषित या अघोषित तानाशाही के बीच खड़ी है। अभी पिछले आठ साल से न्यायपालिका पर सरकार ने चुप्पी साध रखी थी और अब वर्ष 2024 में लोकसभा का चुनाव है जिसमें सत्तारूढ़ की चुनावी सम्भावनाएं धूमिल दिख रही हैं। इसलिए भविष्य में कोई अप्रिय स्थिति न पैदा हो उसके इंतजाम के तहत न्यायपालिका पर हमले किये जा रहे हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)   

  

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