लाल किले से पीएम मोदी का भाषण क्यों डिगे हुए आत्मविश्वास की कहानी बयां कर रहा था!

भारत में 15 अगस्त के अवसर पर प्रधानमंत्री के भाषण को सुनने की परंपरा रही है। पूरे वर्ष भर में 15 अगस्त के अलावा शायद ही कोई इक्का-दुक्का अवसर होता है, जब समूचा राष्ट्र 80 के दशक तक रेडियो और उसके बाद से टेलीविजन पर बेहद उत्सुकता के साथ अपने प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम उद्बोधन को सुनने के लिए टकटकी लगाये रहता आया है।

2014 से पहले 10 वर्षों तक पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिनका भाषण पूरी तरह से लिखित होता था, और उसमें भाषण का कौशल पूरी तरह से नदारद रहता था। लेकिन उनके भाषण में देश की आर्थिक, सामाजिक प्रगति के ठोस आंकड़े होते थे, जिनमें अगले वर्ष तक के लिए समाज के विभिन्न वर्गों एवं हित धारकों की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतिबिंबन शामिल होता था। इसके उलट पीएम मोदी का भाषण और उसकी तैयारी के लिए परिधान और साफ़े सहित एक-एक चीज का जितनी बारीकी से चयन देखने को मिलता है, वैसा 76 वर्षों के पूर्व प्रधानमंत्रियों से उन्हें विशिष्ट पहचान देता है।

पीएम मोदी के 15 अगस्त 2014 के भाषण से लेकर मंगलवार के अपने 10वें भाषण तक के सफर में इस बार एक बड़ा अंतर देखने को मिला है, जिसके बारे में कल से ही आम बहस में चर्चा चल रही है। अपने भाषण में पीएम मोदी उस आत्मविश्वास के साथ नजर नहीं आये, जैसा आमतौर पर देश देखने का आदी था। उनकी हिंदी अच्छी नहीं रही है, लेकिन अपने वक्तृत्व कला और अंग्रेजी शब्दों से नए नारों और सिनर्जी से वे अपने प्रशंसकों को अभी तक लुभाते रहे हैं, लेकिन इस बार 90 मिनट से भी अधिक समय तक भाषण के दौरान कई बार उन्हें हड़बड़ी में अटपटे ढंग से वाक्य पूरा करते देखा जा सकता है।

ऐसा क्यों हुआ? क्या यह विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A के एकजुट होने की वजह से है? क्या यह कांग्रेस पार्टी के राहुल गांधी के नए अवतार की वजह से है, जिन्होंने पिछले एक वर्ष से लगातार अपनी छवि को भारत के सामान्य जन से जोड़ने की कोशिश की है? क्या इसकी वजह मणिपुर हिंसा पर उनके मौन और डबल इंजन के लकवाग्रस्त स्थिति से उपजा है? या क्या इसकी वजह उनके पिछले 9 वर्षों के वायदों की वजह से है, जिनकी डिलीवरी में प्रधानमंत्री बुरी तरह से नाकाम साबित हुए हैं?

हालांकि उन्होंने स्वयं ही अगले लोकसभा चुनाव में अपनी जीत की मुनादी यह कहकर कर दी कि अगले साल भी आप मुझे लाल किले की इस प्राचीर पर 15 अगस्त के अवसर पर एक वर्ष की उपलब्धियों के बारे में बोलते हुए सुनेंगे। देश इसे सुनकर दांतों तले उंगलियां दबाने को मजबूर है, और इस बड़बोलेपन की आलोचना हो रही है। हालांकि अपने भाषण के 5वें मिनट में ही मणिपुर का जिक्र कर संभवतः पीएम मोदी ने अपनी उस गलती को सुधारने की कोशिश की है, जिसके लिए समूचा देश और संसद में विपक्ष अड़ा रहा और आखिरकार सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के बाद पूरे सत्र के बीत जाने पर मोदी लोकसभा में अंतिम वक्ता के रूप में बोलने के लिए उपस्थित हुए थे।

मणिपुर की घटना पर दुःख जताते हुए पीएम मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में जो कहा, वह सच नहीं था। उन्होंने दावा किया कि पिछले कुछ समय से मणिपुर से शांति की खबरें आ रही हैं। उन्होंने कहा कि देश मणिपुर के साथ है, मणिपुर से उम्मीद जताई कि वह उस शांति को बहाल रखे। उन्होंने कहा कि राज्य और केंद्र सरकार शांति के लिए भरपूर प्रयास कर रही है।

उनका यह दावा तथ्यों से कोसों दूर है। मणिपुर से शांति की खबरें आने के मायने तभी संभव हैं, जब कुकी और मैतेई समुदाय के लोग साथ रहने लगें। लेकिन वहां तो कुकी विधायकों तक के लिए इंफाल सुरक्षित नहीं है। पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों के शस्त्रागारों से लूटे गये हथियारों में से 75% हथियार और गोला-बारूद आज भी उग्रवादियों के हाथ में हैं। दोनों समुदाय के लोगों को रात-रात जागकर पहरेदारी करनी पड़ रही है। राज्य सरकार केंद्रीय सैन्यबल, असम राइफल्स की एक टुकड़ी को हटाने का निर्देश जारी कर रही है।

मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह पर एक समुदाय विशेष के पक्षकार की भूमिका को लेकर कुकी समुदाय ही नहीं बल्कि सभी राजनीतिक पर्यवेक्षक आरोप लगा रहे हैं। कुकी समुदाय की महिलाएं केंद्रीय सुरक्षा बलों की पोस्ट हटाए जाने का विरोध करती देखी गई हैं, जिन्हें लगता है कि यदि केंद्रीय सुरक्षा बल वहां से हटा दिए गये, तो उनका जातीय नरसंहार हो सकता है। पिछले 100 दिनों से शरणार्थी शिविरों में रह रहे लोगों के पुनर्वास, बच्चों की शिक्षा और दूर-संचार बाधित है। स्वास्थ्य सेवा, राशन और नौकरी सामान्य नहीं हो सकी है।

फिर सबसे बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री मणिपुर की जनता से शांति की अपील किस बिना पर कर रहे हैं? देश के चीफ एग्जीक्यूटिव के बतौर उनके पास ही डबल इंजन सरकार के खराब इंजन को हटाकर उसे बदलने का अधिकार था। हर तरफ से इसकी मांग की गई, लेकिन एन बीरेन सिंह को बर्खास्त करने के बजाय पीएम मोदी उन्हीं पर भरोसा जताकर, लोगों के बीच भय और संदेह को ही बढ़ा रहे हैं। संभवतः पीएम मोदी अपने भाषण के खोखलेपन को जानते हैं, और इसीलिए उनकी बात में वजन उन्हें स्वंय नहीं लगता।

मोदी जी ने इस बार अपने प्रिय संबोधन, भाइयों और बहनों को बदलकर अब परिवार जन कर दिया है। वे परिवार जनों को इतिहास में ले जाते हैं, और इतिहास को अपनी खास दृष्टि से देखने के लिए प्रेरित करते हैं, जो आज देश को एकजुट करने के बजाय विभाजन में ले जाता है, विखंडित करता है। वे आज से 1000-1200 वर्ष पहले के एक छोटे आक्रमण और एक छोटे राजा की पराजय की एक घटना को अगले 1000 साल तक देश को गुलामी की जंजीर में जकड़ते जाने की तस्वीर से जोड़ते हैं। यह एक ऐसा इतिहास है जिसकी व्याख्या आरएसएस/विश्व हिंदू परिषद के हिन्दुत्ववादी इतिहास की व्याख्या है, जिसमें मुख्य निशाने पर भारत के मुस्लिम समुदाय के लोग हैं, जो आज 20 करोड़ हैं।

इस हिन्दुत्ववादी राजनीतिक इतिहास के बरखिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास और 1947 के बाद से 2014 तक का भारतीय समाज सिर्फ अंग्रेजों के शासनकाल को ही औपनिवेशिक काल समझता आया है। जिस तिरंगे को फहराकर भारतीय प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करते हैं, उसकी बुनियाद से लेकर लाल किले की प्राचीर तक भारत के हिंदू-मुस्लिम सामूहिक संघर्ष और भाईचारे की बुनियाद पर टिकी है। 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम हिंदू-मुस्लिम सामूहिक नेतृत्व में लड़ा गया। सभी जानते हैं कि अंग्रेजों से पहले भारत राजा-रजवाड़ों और बादशाहत वाला देश था। देश की बादशाहत किसी के पास भी हो राजे-रजवाड़े-नवाब अपने-अपने इलाकों में कायम थे।

अंग्रेजों तक ने इस व्यवस्था को जारी रखा, लेकिन अंग्रेज ही वे पहले शासक थे, जिन्होंने जो लूटा उसका बड़ा हिस्सा वे इंग्लैंड के खजाने में जमा करते थे। भारत के औपनिवेशीकरण की कहानी अंग्रेजों से शुरू होती है और उन पर ही खत्म होती है। इससे पहले कब ऐसा हुआ? यदि मुस्लिम विदेशी आक्रमणकारी हुए तो हूण, कुषाण, मंगोल इत्यादि क्या हुए? कम से कम संवैधानिक पद पर सबसे जिम्मेदार नागरिक को यह कहने से पहले 100 बार सोचना चाहिए। इस लिहाज से पीएम मोदी का भाषण बेहद सतही था।

इसका अर्थ तो यह भी निकलता है कि उनके परिवारजन की परिभाषा में मुस्लिम हैं ही नहीं? यदि आज मुस्लिम नहीं हैं तो कल सिख और ईसाई होंगे इसकी क्या गारंटी है? आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक पहले ही भारतवर्ष को पुण्यभूमि के रूप में सिर्फ पितृ भूमि वालों के लिए ही आरक्षित मानते आये हैं। हालांकि पूरी दुनिया में मातृभूमि को ही अपना देश मानने की परंपरा है, लेकिन जानबूझकर पितृभूमि को रखने के पीछे इस्लाम, ईसाइयत और साम्यवादी विचारधारा के समर्थकों को हमेशा-हमेशा के लिए विदेशी मानने का यह विचार घुट्टी में आरएसएस शाखा में पिलाया जाता है, जो भारतीय संविधान की शपथ लेकर भी नहीं जाता है।

लेकिन 1000 वर्ष की गुलामी को इस बार के भाषण में लाने का एक खास अर्थ बाद के भाषण में स्पष्ट हो जाता है, जब पीएम मोदी आने वाले 1000 साल के स्वर्णिम भविष्य की कल्पना का खाका खींचते हैं। वे कहते हैं कि गुलामी की मानसिकता से निकला हुआ देश आज आगे बढ़ रहा है, नए संकल्प के साथ आगे बढ़ रहा है। भारत माता जो राख के ढेर में दबी पड़ी थी, एक बार फिर से जागृत हो चुकी है। उनका स्पष्ट इशारा इस बात की ओर है कि भारत एक ऐसे मुहाने पर खड़ा है, जिसमें उसके पास फिर से सोने की चिड़िया बनने की संभावना छिपी है।

यहां पर वे इशारे से यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि असल में उनके नेतृत्व में ही भारत को विश्वगुरु बनाया जा सकता है, क्योंकि 1000 वर्ष की गुलामी की मानसिकता और अगले 1000 वर्ष की विश्वगुरु की यात्रा के बीच का संधिकाल उनके ही कार्यकाल में आया है। चूंकि इस कालखंड के सिद्धांतकार वही हैं, इसलिए असल में वे 2047 तक उन्हें या उनके उत्तराधिकारी को ही भारत का भाग्य विधाता बनाये जाने की कातर अपील अपने उद्बोधन में कर रहे थे।

वे इसके लिए सिर्फ 2014 से 2022 के बीच जीडीपी विकास के हवाले से बताते हैं कि विश्व की 10वीं सबसे बड़ी अर्थव्यस्था को वे पिछले 9 वर्षों में 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यस्था के पायदान पर ले आये हैं। गनीमत रही कि उन्होंने अगले 5 वर्षों में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यस्था बना देने की बात नहीं कही, जो अगले 3-4 वर्षों में स्वाभाविक रूप से होने जा रही है। लेकिन जीडीपी की हकीकत आज देश के अधिकांश पढ़े-लिखे लोग जानते हैं। जीडीपी विकास का नैरेटिव प्रति व्यक्ति आय की बात आते ही धराशाई हो जाता है।

प्रति व्यक्ति आय के मामले में हम दुनिया की टॉप 10 अर्थव्यस्थाओं के आसपास दूर-दूर तक नहीं टिकते। अगला प्रधानमंत्री भले ही कोई नत्थू-खैरा बन जाये, भारत की विकास दर और जापान, जर्मनी की धीमी विकास दर स्वतः भारत को जीडीपी के लिहाज से तीसरे पायदान पर ले जायेगी। मोदी के कार्यकाल की तुलना में मनमोहन सिंह के 10 वर्ष के कार्यकाल में जीडीपी करीब डेढ़ गुना तेजी से बढ़ी थी, लेकिन यदि प्रधानमंत्री इस तथ्य को बता देंगे तो सारी कहानी ही ढुल नहीं हो जायेगी?

इसके उलट आज भारत के सामने चुनौतियों का अंबार लगा है। आज भारत को पश्चिमी देश अपनी ओर आकर्षित करने के लिए लगातार चुग्गा फेंक रहे हैं। भारत का प्रभुजन उसकी अगवानी करने के लिए श्रम कानूनों, निवेश के लिए विशेष छूट, कॉर्पोरेट टैक्स में भारी छूट के साथ-साथ देश के संरक्षित वनों, भूगर्भ एवं समुद्री क्षेत्रों में निवेश, खनन के लिए कानूनों में व्यापक बदलाव कर चुका है। सरकारी नौकरियों में भर्ती बंद कर आज युवाओं को साफ़ संदेश दे दिया गया है कि वे इन निवेशों के लिए सस्ते श्रम की प्रचुर उपलब्धता को बरकरार रखें।

देश में मेक इन इंडिया के नारे के नाम पर विदेशों से तकनीक और उत्पाद का आयात कर बड़े पैमाने पर पैकेजिंग का काम किया जा रहा है, और ऐसा करने के लिए पीएलआई के तहत इंसेंटिव तक लाखों करोड़ रुपये पानी की तरह बहाया जा रहा है। यह सब भारत में आधारभूत ढांचे को खड़ा करने, निर्माण एवं प्राथमिक उद्योगों की बुनियाद को ही खत्म करने वाल साबित हो रहा है। सिर्फ चंद कॉर्पोरेट घरानों, विदेशी पूंजी और तकनीक और विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी (सबसे सस्ती) के सहारे देश को विश्वगुरु बनाने की घोषणा कितनी हास्यास्पद और लफ्फाजी भरी है, इसका दूसरा उदाहरण कम से कम भारत के 76 साल के इतिहास में दूसरा नहीं है।

डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी और डायवर्सिटी की त्रिवेणी का जिक्र कर मोदी ऐलान करते हैं कि यह त्रिवेणी भारत के सभी सपनों को साकार करने का सामर्थ्य रखती है। विश्व बूढ़ा हो रहा है, लेकिन हम जवान हो रहे हैं। लेकिन मोदी जी डेमोग्राफी (जनसांख्यकी) पर ही अटक जाते हैं, और दुनिया की हसरतभरी निगाहों की ओर इशारा करते हुए अपनी युवा जनसंख्या से बेइंतिहा आशाएं पालने लगते हैं। यह वही विशाल आबादी है जिनके हाथों में किताब की जगह आज गौ-रक्षा, लव जिहाद और धर्म की रक्षा के लिए हथियार थमाने की हर संभव कोशिशें हर शहर और कस्बे में इन्हीं के भातृत्व संगठनों द्वारा की जा रही हैं।

आज कॉर्पोरेट की सबसे बड़ी शिकायत यही है कि भारत के पास कुशल श्रमिक का भारी अभाव है। पिछले माह ही एक चीनी कंपनी को न सिर्फ चीन से आयात की छूट सरकार ने दी है, बल्कि भारत में काम करने के लिए कुशल चीनी श्रमिकों की उपलब्धता को भी सुलभ कराया जा रहा है। इससे बड़ा दुर्भाग्य भला और कुछ हो सकता है? फिर युवा जनसंख्या वाला जुमला देश 2014 से ही सुन रहा है, फिर 9 वर्षों में अभी तक मोदी सरकार ने क्या किया? इस पर बताने के बजाय घिसे रिकॉर्ड की तरह डेमोग्राफी की धुन को बजाने के सिवाय पीएम मोदी के पास शायद ठोस कुछ भी नहीं था कहने को।

जहां तक डेमोक्रेसी (लोकतंत्र) और डायवर्सिटी (विविधता) का प्रश्न है, इसका जिक्र कर आगे निकल जाने से बात बन जाती तो क्या बात थी। लेकिन आज लोकतंत्र और विविधता पर सबसे बड़ा ग्रहण यदि किसी ने लगाया है तो वह समूचे देश ही नहीं पूरी दुनिया को पता है। मानसून सत्र की समाप्ति से ठीक पहले मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति वाला विधेयक हो अथवा भारतीय दंड संहिता सहित तीन औपनिवेशिक कानूनों में आमूलचूल बदलाव के नाम पर अंग्रेजों को भी शर्मसार करने वाले दंड संहिता और राजद्रोह कानून के स्थान पर देशद्रोह कानून को प्रतिष्ठापित कर आम नागरिक के बुनियादी अधिकारों को खत्म करने की राह प्रशस्त करने वाली सरकार के मुंह से ये शब्द भी निकल गये, यह 15 अगस्त की ही महिमा का प्रताप कहा जा सकता है।

संविधान के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन की संभावना को तूल देने के लिए भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगोई के मुख से राज्यसभा में पहली बार चर्चा करवाने की कवायद असल में भविष्य के लोकतंत्र (तानाशाही) की एक झलक अवश्य देशवासियों को दिखा दी गई है, पिक्चर 2024 में रिलीज होनी है।

अपने 90 मिनट के भाषण में मोदी जी ने पिछले और अगले 1000 साल पर खूब जोर दिया है। इसके अलावा वे स्टार्टअप, जी-20, डिजिटल इंडिया, 2-टियर, 3-टियर के शिक्षित युवाओं की आशाओं और आकांक्षाओं, झुग्गी झोपड़ी, गांव-कस्बों से निकलने वाले प्रतिभावान खिलाड़ियों, सैटेलाइट, कृत्रिम गर्भाधान, महिलाओं, किसानों के पुरुषार्थ, मजदूरों एवं श्रमिकों को कोटि-कोटि नमन एवं उनके बेमिसाल योगदान, रेहड़ी-पटरी एवं सब्जी वालों तक को याद करते हुए आईटी क्षेत्र के इंजीनियर, डॉक्टर, शिक्षक, आचार्य सहित लगभग सभी वर्गों को अपने भाषण में समेटकर उनके दिलों में अपने लिए 2024 में फिर से दुहराने की कामना करते दिखते हैं।

भारत के निर्यात में उछाल की घोषणा करते हुए वे यह बताना भूल जाते हैं कि इस वर्ष इसमें भारी गिरावट का रुख बना हुआ है, और आगे की राह और भी कठिन होती जा रही है। महंगाई को काबू में रखने के प्रयासों को आगे भी जारी रखने की बात कह वे इसे भी उपलब्धि के रूप में गिनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन कल ही खुदरा महंगाई के आंकड़ों ने देश की नींद उड़ाई हुई है। कहां आरबीआई मुद्रास्फीति को 4% पर लाने के दावे कर रही थी, और जुलाई में मुद्रास्फीति उछलकर 7.44% पहुंच गई है। अर्थात जितनी जीडीपी नहीं बढ़ रही है, उससे अधिक मुद्रास्फीति बढ़ेगी तो हम प्रगति करने के बजाय अवनति की दिशा में जा रहे हैं। खाद्य पदार्थों में महंगाई की दर 11.51% है, और सब्जी के दाम जुलाई में 37.34% की वृद्धि के साथ एनडीए सरकार के भविष्य को दांव पर लगाने के लिए काफी हैं।

भाषण के अंतिम हिस्से में विपक्ष को निशाने पर लेना भी शायद नरेंद्र मोदी काल के प्रधानमंत्रित्व काल की ही विशेषता कही जा सकती है। 2047 में विकसित भारत बनाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी अगले 30 वर्षों तक देश की जनता, माताओं और बहनों से 3 विकृतियों से सावधान रहने की मांग करते नजर आते हैं: ये विकृतियां उन्होंने भ्रष्टाचार, परिवारवाद और तुष्टीकरण को बताया है, जो देशवासियों की इच्छाओं, आकांक्षाओं पर घुन लगा रही हैं और राष्ट्रीय चरित्र को दागदार बना रही हैं। वे अपने भाषण में इन तीन बुराइयों को देश के गरीब, दलित, पिछड़े, पसमांदा मुस्लिम और महिलाओं के हक को खत्म करने वाला करार देते हैं।

लेकिन आज भ्रष्टाचारियों के लिए एकमात्र शरणस्थली तिहाड़ जेल नहीं भाजपा बनी हुई है। ऐसे दागदार लोगों को असम और महाराष्ट्र में तो मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री तक बना दिया गया है। देश में कई विपक्षी राज्यों की सरकारों को गिराने के लिए भाजपा सरकार ने ऐसे ही भ्रष्ट नेताओं के पीछे ईडी और सीबीआई को लगाया, जिसके नतीजे भाजपा के पक्ष में गये हैं। खुद पीएम मोदी पर पीएम केयर्स फण्ड, चुनावी फंड के लिए अपारदर्शी चुनावी बांड को लेकर सवाल बने हुए हैं।

जहां तक परिवारवाद का प्रश्न है, तो गांधी परिवार ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से खुद को अलग कर यह मुद्दा भी छीन लिया है। भाजपा के भीतर बड़ी संख्या में परिवारवाद को सोशल मीडिया में चिपकाने की प्रवृति ने भाजपा के लिए नैरेटिव खड़ा करने का संकट पैदा कर दिया है। पिछले कई दशकों से भाजपा के लिए तुष्टीकरण का मुद्दा बहुसंख्यक हिंदुओं को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। लेकिन दो कार्यकाल से भाजपा का शासन है, तुष्टीकरण का आरोप तो आज उल्टा भाजपा पर लग रहा है।

बलात्कार के आरोपी सांसद बृज भूषण शरण सिंह पर 6 विश्व स्तरीय महिला पहलवान खिलाड़ियों के विरोध और धरना प्रदर्शन के बावजूद उनके बचाव के लिए सारे दांव आजमाने को तुष्टीकरण कहा जा रहा है। मणिपुर में जातीय हिंसा एवं नरसंहार में सैकड़ों नागरिकों के हताहत होने के बावजूद एन बीरेन सिंह को मुख्यमंत्री पद पर बरकरार रखने को तुष्टीकरण कहा जा रहा है। पीएम मोदी के लिए तुष्टीकरण की बात को दोहराना असल में घिसे-पिटे जुमले को दोहराना भर है।

लेकिन 90 मिनट के भाषण में यह पहली बार था कि पीएम मोदी के शब्द उनकी मनोदशा को अभिव्यक्त कर रहे थे, जो बता रहे थे कि वे कहना कुछ चाहते हैं लेकिन उसे साफ़-साफ़ व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। यही वजह है कि एक कुशल वक्ता होने के बावजूद उनके शब्द अधूरे और कई बार उनमें टूट-फूट का स्वर प्रस्फुटित हो रहा था।

कर्नाटक की करारी हार, दिल्ली में महिला पहलवानों का ऐतिहासिक विरोध-प्रदर्शन, किसानों-मजदूरों, बेरोजगारों, सैनिकों को अग्निवीर बनाने, देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने के नाम पर हालिया सीएजी की रिपोर्ट में लाखों करोड़ के भ्रष्टाचार की रिपोर्ट, भयंकर महंगाई, ईडी-सीबीआई सरकार का ठप्पा और केंद्र-राज्य संबंधों में ऐतिहासिक कड़वाहट के नतीजे के तौर पर विपक्षी दलों का मजबूत होता गठबंधन I.N.D.I.A एक मजबूत चट्टान बनकर उभर रहा है।

आगामी विधानसभा चुनावों में भी यदि एनडीए को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ता है और राहुल गांधी की लोकप्रियता अगर इसी रफ्तार से बढ़ती है तो नोएडा मीडिया के बल पर हजारों करोड़ के विज्ञापन भी संभवतः 10 साल के वायदों की लंबी लिस्ट के चिंदी-चिंदी हो चुकने के खामियाजे के तौर पर ईवीएम के नतीजों में देखने को मिल सकते हैं। यही वह डर था, जो न चाहते हुए भी लाल किले के प्राचीर से देश के राजनीतिक विशेषज्ञों को भी देखने को मिला है। पीएम मोदी का यह डर वास्तव में कितना सच है, यह तो आने वाला कल ही बतायेगा।

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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