इस साल अप्रैल माह से ही देश के अधिकांश राज्यों में अभूतपूर्व गर्मी और लू चल रही है। देश के कई हिस्सों में कई-कई घंटों तक बिजली में कटौती चल रही है, जबकि कल देश में रिकॉर्ड तोड़ बिजली की मांग ने अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं। यह हाल अप्रैल में है, जब तापमान धीरे-धीरे बढ़ना शुरू होता है, और मई में इसमें और भी बढ़ोत्तरी होती है, जबकि जून और जुलाई के दो महीने देश में सबसे अधिक गर्मी की मार से त्रस्त होते हैं, और सबसे अधिक बिजली की खपत का रिकॉर्ड जून और जुलाई के महीनों में देखने को मिलता है।
ऐसे में देश के बिजली उत्पादन में कोयले की आपूर्ति में कमी के चलते कई ताप विद्युत् संयंत्र अपनी पूरी क्षमता से नहीं चल पा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक औसतन मात्र 8 दिनों का कोयला ही थर्मल पॉवर प्लांट्स के पास बचा है। कई छोटे और मझोले उद्योगों को करीब-करीब बंदी का सामना कर पड़ रहा है। विभिन्न रिपोर्टों से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य, जहाँ पर पिछले कुछ वर्षों से 18 घंटे तक बिजली की आपूर्ति की जा रही थी, पिछले 2 हफ्तों से राज्य के निवासियों को भयानक कटौती का सामना करना पड़ रहा है।
यही हाल कमोबेश राजस्थान का भी है। उड़ीसा में अभी हाल ही में उच्च न्यायालय ने बाल्को प्लांट की अपील पर विद्युत् विभाग को आड़े हाथों लिया है, और तत्काल अल्युमिनियम संयंत्र को समुचित विद्युत् आपूर्ति को सुनिश्चित करने के निर्देश दिए हैं।
ऊर्जा विशेषज्ञ विभूति गर्ग के अनुसार, रेलवे की रैक की कमी की वजह से यह स्थिति बनी है। आयातित कोयले के दामों में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी ने इस संकट में और इजाफा कर दिया है, वर्तमान में भारत करीब 21% कोयले का आयात करता है।
इसके साथ ही तटीय क्षेत्रों के ताप विद्युत् संयंत्रों ने आयातित कोयले की बढ़ती कीमतों के मद्देनजर भारत से ही कोयले की खेप मंगानी शुरू कर दी थी, जिसकी वजह से रेल की रैक के लंबे समय तक सुदूर तटीय क्षेत्रों में आपूर्ति ने शेष ताप विद्युत् ग्रहों में कोयले के स्टॉक में कमी पैदा करने में भूमिका अदा की है।
लेकिन फिर सवाल उठता है कि हमारे देश की केंद्रीय सरकार क्या कर रही है? आज कोविड-19 के संकट के बगैर ही देश भर में आंशिक लॉकडाउन की स्थिति से देश जूझ रहा है।
हमारे देश में कोयले का विशाल भंडार है, कोयले की कमी भी नहीं है। लेकिन एक वास्तव में काम करने वाली सरकार और प्रभावी प्रशासन का घोर अभाव बना हुआ है, जिसे 6 महीने बाद एक बार फिर से कोयले के भीषण संकट में स्पष्ट देखा जा सकता है। आने वाले दिनों में ऐसा लगता है कि पूरा देश ही अँधेरे में जीने के लिए अभिशप्त होने वाला है, जबकि देश ग्लोबल वार्मिंग के अभूतपूर्व समय के बीच में है। अप्रैल महीने में जिस प्रकार की गर्मी देश के बड़े हिस्से में बनी हुई है, वह ऊर्जा के अभूतपूर्व मांग को सिर्फ बढ़ा ही रही है।
आज से 6 महीने पहले भी ऐसी ही संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आरके सिंह ने तब कहा था कि “हालांकि इस बीच कहीं पर भी पॉवर कट की स्थिति नहीं आई है, लेकिन कोयले की यह कमी अगले 6 महीने तक बनी रहेगी।” इसका अर्थ हुआ कि अप्रैल 2022 तक देश कोयले की आपूर्ति की स्थिति से निजात पा लेगा। लेकिन हुआ इसका ठीक उलट। यह अप्रैल का महीना है, और आज जब 6 महीने पहले की तुलना में देश में हर घर में पंखे, कूलर और एयरकंडीशन ही किसी तरह दिन गुजारने के साधन बने हुए हैं, ऐसे में भारत में कोयले का संकट एक बार फिर से मुहँ बाए खड़ा है।
तब यह कहा गया था कि कोविड के बाद बिजली की खपत में 16% की बढ़ोत्तरी, कोयला खदानों में पानी भर जाने की वजह से कोयले का संकट पैदा हो गया था। ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार के पास तो देश के 100 साल पुराने आंकड़े मौजूद हैं कि गर्मी, सर्दी और बरसात के मौसम में बिजली की मांग कब अपने पीक पर होती है और कब आपूर्ति से अधिक उत्पादन होता है। ऐसे में अक्टूबर 2021 में यदि देश कोविड से उबर रहा था, तो उस दौरान जाड़े के आगमन की वजह से बिजली की घरेलू खपत में लगातार कमी की स्थिति थी, लेकिन मार्च से किसी औसत बुद्धि के इंसान को भी यह बात अच्छी तरह से समझ में आ सकती है कि समुचित विद्युत् आपूर्ति के लिए क्या-क्या तैयारियां की जानी चाहिए।
क्या इस बात से यह मान लिया जाए कि 6 महीने में ही केंद्र सरकार और ऊर्जा मंत्रालय ने समझ लिया कि जो संकट जाड़े के आगमन के कारण टल गया था, वह मार्च के बाद अपने आप कम हो जाने वाला है? हम किस आदिम व्यवस्था में रह रहे हैं?
आज रूस-यूक्रेन युद्ध के दौर में सारी दुनिया में और विशेषकर ऊर्जा जरूरतों पर जर्मनी, फ़्रांस, अमेरिका सहित सभी देशों में हफ्तों तक इसके लिए राष्ट्रीय बहस चली और जर्मनी ने इस दौरान अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए राष्ट्रीय लक्ष्य तक निर्धारित किया जिससे कि आगामी शरद ऋतु में उसके पास पूरे देश को गर्म रखने के लिए पर्याप्त ऊर्जा भंडारण मौजूद हो। इसके लिए जर्मनी के चांसलर सहित तमाम मंत्री दुनिया भर के विभिन्न देशों में यात्राएं और समझौते कर रहे हैं। और हमारा देश? हमारा देश इस समय 40 गावों के नाम बदलने के लिए आंदोलनरत है। गोया नाम बदल देने से, मुसलमानों के घरों को बुल्डोज कर देने से देश में सुख शांति आने वाली है।
सनद रहे कि भारत में कोयले का अक्षत भंडार मौजूद है। अप्रैल 2020 तक भारत में कोयले का भंडार 344 अरब टन का आँका गया था। कोल इंडिया ने अपनी 2020-21 की वार्षिक रिपोर्ट में बताया था, “मौजूदा उत्पादन दर के हिसाब से हमारे पास कई शताब्दियों के लिए कोयले का पर्याप्त भंडार मौजूद है।” इसके बावजूद पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत के द्वारा लगातार कोयले के आयात में तेजी आई है, और आज हम अपनी जरूरतों का करीब 21% कोयला आयात कर रहे हैं।
इस बीच खबर आ रही है कि पंजाब के होशियारपुर जिले में घरेलू और कृषि उपभोक्ताओं ने लगातार बिजली में कटौती से तंग आकर दो जगहों पर ट्रैफिक जाम किया और धरना प्रदर्शन किया है। आजाद किसान कमेटी के बैनर तले किसानों ने करीब डेढ़ घंटे तक होशियारपुर-फगवाड़ा सड़क को जाम रखा, और बाद में कार्यकारी अभियंता के आश्वासन देने के बाद यह जाम खत्म हुआ है।
पंजाब से भी बुरे हालात जम्मू-कश्मीर में बने हुए हैं। यहाँ पर पिछले कई दिनों से बिजली की कटौती चल रही है। बिजली विभाग के अधिकारियों का कहना है कि अप्रैल में लगभग 900 से 1000 मेगावाट विद्युत् की आपूर्ति की जा रही है, लेकिन बिजली की मांग 1600 मेगावाट की है। ऐसे में कई बार तो जितने समय बिजली आती है, उससे अधिक कटौती हो रही है। यह हाल जम्मू और कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर की भी बनी हुई है। नेशनल कांफ्रेंस के नेता, उमर अब्दुल्ला ने भी आज इस बाबत सवाल खड़े किये हैं, और बिजली की अबाध आपूर्ति की मांग की है।
उन्होंने बताया कि जम्मू में भी स्थिति यहाँ से बेहतर नहीं है। उन्होंने कहा “मैं कुछ दिनों पहले जम्मू में था और ‘सहरी’ और ‘इफ्तार’ से ठीक पहले बिजली गुल हो गई। कश्मीर घाटी में भी यही स्थिति है।”
उन्होंने ध्यान दिलाया कि मौसम विभाग की निदेशक सोनम लोटस ने पूर्वानुमान दिया था कि घाटी में अगले दिन तेज रफ्तार से आंधी चलेगी, जिसकी सूचना पाते ही ऊर्जा विभाग ने झट से बिजली काट दी। कोई आंधी नहीं आई, लेकिन अभी तक बिजली नदारद है।”
इसी प्रकार महाराष्ट्र ने हाल ही में कोयले के आयात के लिए ग्लोबल टेंडर जारी किया है, लेकिन महाराष्ट्र जैसे संपन्न और तटवर्ती राज्यों के विपरीत यूपी, बिहार, पंजाब, राजस्थान और कश्मीर जैसे राज्यों के लिए कोयले के आयात का विकल्प कैसे कारगर हो सकता है?
उत्तराखंड में भी आम लोगों को बिजली की कटौती का सामना करना पड़ रहा है। इस बार देश के पर्वतीय क्षेत्रों और पूर्वोत्तर में बड़ी संख्या में सैलानियों की आवक देखने को मिली थी। कश्मीर ने मार्च महीने में ही तीन साल बाद फिर से पर्यटकों की रौनक देखी थी, लेकिन आज जब रमजान का समय भी साथ-साथ चल रहा है, दुकानों में दूध, दही, आइसक्रीम जैसी चीजें बिजली के अभाव के कारण खराब हो रही हैं। होटलों में ग्राहकों की परेशानी पहले से ही दो साल घाटे में चल रहे उद्यमों को प्रभावित कर रही है।
प्रधानमंत्री का लोकसभा क्षेत्र बनारस भी इससे अछूता नहीं है। पॉवर कट और लोड शेडिंग बनारस में पिछले कई हफ्तों से आम बात हो चुकी है। जनचौक संवावदाता ने जब सेवानिवृत्त पत्रकार, जलेश्वर उपाध्याय से इस बाबत बात की तो उनका कहना था, “यूपी विधानसभा चुनावों के बाद से ही पॉवर कट शुरू हो चुका था, लेकिन पिछले दो हफ्तों में तो हालात बद से बदतर हो चुके हैं। कई बार दिन भर बिजली के अभाव में तड़पते हुए दिन गुजारना पड़ रहा है। यह स्थिति खास तौर पर बीमार लोगों और वृद्धों के लिए असहनीय बन चुकी है।”
तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र सहित 12 राज्यों के लिए भारी संकट का समय है। महाराष्ट्र में टाटा प्रोजेक्ट ने पहले ही सरकार को बिजली की दरों को बढ़ाने के लिए राजी कर लिया है, और महंगे कोयले के दामों को सरकार और उपभोक्ताओं के ऊपर डाल दिया है।
77% कोयले पर आधारित थर्मल पॉवर कुल उत्पादन, और इसमें भी 21% आयातित कोयला इस्तेमाल किया जा रहा है। गुजरात ने हफ्ते में एक दिन अपने उद्योगों को बंद रखने का आदेश दिया है। आंध्रप्रदेश सबसे बुरी तरह से प्रभावित राज्य है। यहाँ पर 50% क्षमता पर उद्योग-धंधे काम कर रहे हैं और घरेलू बिजली खपत को भी बड़ी मात्रा में कम किया गया है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या देश को प्राकृतिक आपदाओं, महामारियों के साथ-साथ निकम्मा सरकारों को भी झेलने और अपनी दुर्दशा को जारी रखने की इजाजत देनी चाहिए? आखिर कब तक देश ऐसे गैर-जिम्मेदार सरकार और प्रशासन को झेल सकता है? अभी हाल ही में विभिन्न उद्योगों के दस संगठनों ने प्रधानमंत्री मोदी के नाम अपने संदेश में तत्काल इस अव्यवस्था को दूर करने और अबाध विद्युत् की आपूर्ति किये जाने की मांग की है।
इसके बाद ही कहीं जाकर पीएमओ सक्रिय हुआ है, और उसने आवश्यक दिशा-निर्देश देने शुरू किये हैं। लेकिन सवाल उठता है कि क्या संकट सिर पर आने के बाद ही हमारी सरकार उस दिशा में सोचने के लिए विवश होगी? और बाकी समय सिर्फ चुनाव कैसे जीता जाए और देश की ज्वलंत समस्याओं से देश की 90% जनता का ध्यान अपने पेट और भविष्य से हटाकर धार्मिक नफरत और घृणा और वैमनस्य में लगाने पर ही केंद्रित रखने की कवायद को जारी रखा जायेगा?
(रविंद्र पटवाल लेखक और टिप्पणीकार हैं।)
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