Friday, April 26, 2024

डिलाॅइट रिपोर्ट 2023: महिलाओं के लिए काम की स्थितियां और बिगड़ीं

डिलाॅइट की 2023 की रिपोर्ट विमेन/वर्कः ए ग्लोबल आउटलुक में महिलाओं के श्रम को लेकर महत्वपूर्ण खुलासे किये गए हैं। रिपोर्ट को तैयार करने के लिए 10 देशों से 5,000 महिलाओं को चुनकर उनकी कार्य स्थिति का जायज़ा लिया गया। रिपोर्ट के अनुसार, यद्यपि कई मामलों में महिलाओं की कार्य स्थिति एक हद तक की बेहतरी दर्शाती है, वहीं कई बहुत महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर या तो यथास्थिति बनी हुई है या हालात बिगड़े हैं।

वैश्विक स्थिति

मानसिक स्वास्थ्यः भले ही पिछले वर्ष की अपेक्षा महिलाओं में काम की वजह से अत्यधिक थकावट या बर्नआउट 18 फीसदी कम हुआ है, पर उनका मानसिक स्वास्थ्य अब भी चिंता का विषय बना हुआ है।

माहवारी से संबंधित समस्याएंः 20 फीसदी महिलओं का कहना था कि माहवारी या रजोनिवृत्ति की वजह से उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं झेलनी पड़ती हैं। रजस्वला महिलाओं में से 40 फीसदी कहती हैं कि वे परेशानी सहते हुए भी काम करती रहती हैं। दूसरी ओर रजोनिवृत्ति वाली 20 फीसदी औरतें समस्याएं झेलते हुए काम करती हैं। यह सब वे चुपचाप सहती रहती हैं।

अन्य चिंताएंः जब महिलाओं से पूछा गया कि वे कार्यस्थल के बाहर कौन-कौन से सामाजिक प्रश्नों को प्राथमिकता देती हैं, उनमें से 59 फीसदी ने कहा कि वे महिला अधिकारों को प्राथमिकता देंगी, 58 फीसदी ने वित्तीय सुरक्षा को सबसे महत्वपूर्ण बताया, 56 फीसदी ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी और 54 फीसदी ने कहा कि वे व्यक्तिगत सुरक्षा को लेकर सबसे अधिक चिंतित हैं।

अधिकतर कामकाजी महिलाओं को लगता है कि उन्हें अपने पतियों के कैरियर के लिए कुर्बानी देनी चाहिये क्योंकि वह घर का प्रमुख कमाने वाला है। वे अपने काम को दूसरे पायदान पर रखती हैं। सर्वे में आधे से अधिक महिलाओं ने कहा कि वे अपने पति की पेशेगत जिम्मेदारियों को अधिक महत्व देती हैं इसलिए खुद घर की साफ-सफाई से लेकर बच्चों व बूढ़ों की देखभाल करती हैं। और केवल 10 फीसदी औरतों ने बताया कि घर की जिम्मेदारी का कुछ हिस्सा पति पर भी पड़ता है।

सर्वे में जब पूछा गया कि वे काम-काज से संतुष्ट हैं तो उन्होंने कहा है कि वे काम के घंटों के मामले में अधिक लचीलेपन की अपेक्षा करती हैं। कहने के मायने हैं कि उन्हें फ्लेक्सी टाइम चाहिये। वरना इस वर्ष भी कई और महिलाएं काम छोड़ने पर मजबूर होंगी। 2022 में जिन महिलाओं ने नौकरी छोड़ी वे 2020 और 2021 की संयुक्त संख्या से भी अधिक था। 

हाइब्रिड कार्य की व्यवस्था में कुछ दिन काम पर जाना होता है और कुछ दिन घर से काम करना पड़ता है। महिलाएं कहती हैं कि यह व्यवस्था पहले से जरूर बेहतर हुई है पर कई समस्याएं भी आती हैं- जैसे मीटिंगों में न शामिल किया जाना, निर्णयों में शरीक न करना और व्यक्तिगत संपर्क भी न करना। 30 फीसदी महिलाओं ने बताया कि वे अपने बाॅस से संपर्क नहीं कर पातीं।

कार्य के दौरान महिलाएं भांति-भांति का उत्पीड़न और गैर-समावेशी आचरण भी झेलती हैं और बहुत सूक्ष्म तरीके से उन्हें उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता है, जिसको वे अपने मालिकों को रिपोर्ट भी नहीं कर सकतीं क्योंकि यह बर्ताव हर मिनट होता है।

कुछ महिलाएं जिनका कार्यस्थल पर कम प्रतिनिधित्व है, अधिक परेशानियां झेलने को मजबूर होती हैं।

रिपोर्ट में कुछ ऐसे संगठनों या संस्थानों की बात कही गई है जो लैंगिक बराबरी के लिए काम कर रहे हैं। इन्हें ‘जेंडर ईक्वाॅलिटी लीडर्स’ कहा गया है। पर दुर्भाग्य की बात है कि इनकी संख्या नाम-मात्र की है- केवल 5 फीसदी कर्मचारी इनके साथ काम करना पसंद करते हैं और 70 फीसदी महिला कर्मियों का कहना है कि वे कम-से-कम 3 साल तक किसी और जगह या रोल में जाने की नहीं सोचतीं।

भारत की स्थिति

भारत की 500 महिलाओं को सर्वे के लिए चुना गया। इनमें 96 फीसदी भारतीय थीं और 4 फीसदी अन्य। इनमें 15 फीसदी 18-25 वर्ष की, 34 फीसदी 26-38 वर्ष की, 42 फीसदी 39-54 वर्ष की और 9 फीसदी 55-64 वर्ष की थीं। प्रबंधकीय स्तर पर 46 फीसदी महिलाएं कार्यरत थीं और गैर-प्रबंधकीय स्तर पर 44 फीसदी और बाकी 10 फीसदी सी-लेवल की थीं। 87 फीसदी महिलाएं पुर्णकालिक कर्मचारी थीं और केवल 13 फीसदी पार्ट-टाइम काम कर रही थीं। अपनी लैंगिकता के बारे में सिर्फ 338 महिलाओं ने जवाब दिया। उन्होंने अपने आप को सामान्य बताया। जिन्होंने उत्तर नहीं दिया, वे अपनी लैंगिकता को उजागर नहीं करना चाहतीं थीं।

मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं

जहां तक तनाव की बात है, तो भारतीय महिलाओं का स्ट्रेस लेवल विश्व की महिलाओं से काफी अधिक है। पर केवल 40 फीसदी ने कहा कि उन्हें अपने मालिक से मानसिक स्वास्थ्य संबंधी सहयोग मिल पाता है। केवल 25 फीसदी 26-38 वर्ष की महिलाएं अपने मानसिक स्वस्थ्य के बारे में कार्यस्थल पर खुलकर बात कर पाती हैं, जबकि 18-25 आयु की 36 फीसदी महिलाएं ऐसा कर पाती हैं। 28 फीसदी ने कहा कि उनका काम उन्हें अत्यधिक थका देता है यानि उन्हें ‘बर्नआउट’ महसूस होता है।

जब पूछा गया कि यदि स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो क्या वे काम बंद करने को जरूरी समझती हैं, इस वर्ष केवल 39 फीसदी औरतों ने कहा कि वे ‘स्विच ऑफ’ करने को सबसे महत्वपूर्ण फैसला मानती हैं, जबकि 2021 में यह आंकड़ा 45 फीसदी था। इसके मायने काम का दबाव बढ़ गया है इसलिए काम रोकने का ऑप्शन सही नहीं लगता। यानि 61 फीसदी महिलाओं को हर हाल में काम करते जाना सही लगता है।

भारत में 62 फीसदी कामकाजी महिलाएं अपने शारीरिक स्वास्थ्य को सबसे अधिक महत्व देती हैं। 42 फीसदी वर्क-लाइफ बैलेंस को ज्यादा तवज्जो देती हैं और मानसिक स्वास्थ्य को इससे भी कम, यानि 41 फीसदी महिलाएं जरूरी समझती हैं। हमें समझना होगा कि क्यों शारीरिक स्वस्थ्य को जितना महत्व दिया जाता है उतना न वर्क-लाइफ बैलेंस को और न ही मानसिक स्वास्थ्य को दिया जाता है।

पर इसका दीर्घकालीन प्रभाव पड़ सकता है, जो काफी खतरनाक हो सकता है। इसके पीछे एक और कारण है कि नियोक्ता या मालिक की ओर से इन स्थितियों को नज़रंदाज़ या अनदेखा कर दिया जाता है। जब वर्क-लाइफ बैलेंस गड़बड़ाता है तो बोझ परिवार में दूसरे सदस्यों पर पड़ता है। उदाहरण के लिए एक कम्पनी में काम करने वाली महिला आईटी वर्कर ने बताया कि वह देर रात तक काम करती है तो उसका पति बच्चों को देखता है, जबकि वह खुद ऑफिस से आकर काफी थका हुआ होता है।

लखनऊ में प्रिंट मीडिया के लिए काम कर रहीं एक पत्रकार बताती हैं कि चुनाव के समय तो पता ही नहीं चलता कि कब दिन होता है और कब रात। पूरा घर एक कामगारिन के हवाले करके निकलना पड़ता है। वह तो ठीक है पर खाने और सोने का समय डिस्टर्ब हो जाता है और कई बार तो इतनी थकान हो जाती है कि जूस पीकर सोना पड़ता है; मेज़ पर बैठकर खाना खाना संभव नहीं होता। कई महीनों से दांतों की दिक्कत थी, पर इतना समय नहीं होता है कि डेन्टिस्ट के यहां सिटिंग दें। लेकिन वह कहती हैं कि डिजिटलीकरण के चलते अब बहुत रात तक ऑफिस में रहना नहीं होता है। कम से कम घर आकर थोड़ी राहत मिलती है।

माहवारी और रजोनिवृत्ति संबंधी समस्याएं

सर्वे के दौरान 33 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि माहवारी के दर्द को झेलते हुए वे काम में लगी रहती हैं, जबकि रजोनिवृत्ति की दिक्कतों से जुझ रही औरतें में 18 फीसदी ने कहा कि वे छुट्टी नहीं लेतीं। 12 फीसदी महिलाओं ने अपने बाॅस से माहवारी के लिए छुट्टी पर बात की थी और उनका रुख सहानुभति का रहा पर 4 फीसदी ने कहा कि मालिक ने काफी नकारात्मक प्रतिक्रिया दी। इसलिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी और दूसरी जगह चली गईं। फिर भी केवल 55 फीसदी महिलाओं ने कहा कि माहवारी के लिए पेड लीव मिलनी चाहिये और केवल 48 फीसदी ने रजोनिवृत्ति के लिए पेड लीव का समर्थन किया।

मऊ के एक काॅलेज की अध्यापिका बताती हैं कि माहवारी के लिए कभी छुट्टी नहीं मिलती, तो जिन लोगों को अधिक परेशानी होती है वे अपनी सीएल में से छुट्टी लेती हैं। इसके बावजूद, परीक्षा के समय काॅलेज जाना ही पड़ता है। बहुत सालों के बाद तो शौचालय की व्यवस्था 2021 में हुई है। और रजोनिवृत्ति के लिए भी ऐसा ही होता है। दरअसल, उत्तर प्रदेश में माहवारी या रजोनिवृत्ति के लिए छुट्टी की मांग उठाने में महिलाएं संकोच करती हैं। इस विषय पर बात तक करना उन्हें मुनासिब नहीं लगता।

महिला पर घर की जिम्मेदारियां

बच्चों की देखभाल

जहां तक घर की जिम्मेदारियों का सवाल है, पति की हिस्सेदारी के मामले में वैश्विक आंकड़ों और भारत में फर्क तो है पर हमेशा महिलाओं पर ही अधिक भार रहता है। भारत में 59 फीसदी कामकाजी महिलाएं बच्चों को संभालने का काम खुद करती हैं, जबकि विश्व का आंकड़ा 46 फीसदी है। मिलजुल कर दोनों द्वारा बच्चों की देखभाल की बात करें तो विश्व में 34 फीसदी महिलाएं बताती हैं कि वे अपने पतियों के साथ जिम्मेदारी बांट लेती हैं। पर भारत में केवल 15 फीसदी महिलाएं अपने पतियों को शामिल कर पाती हैं।

बच्चों को पति ही संभालता है ऐसा भारत में 11 फीसदी कामकाजी महिलाओं ने कहा, जबकि विश्व का आंकड़ा 10 फीसदी है। नौकरों पर बच्चों को छोड़ने वाले 3 फीसदी से ज्यादा नहीं थीं। इन आंकड़ों को देखकर समझ में आता है कि भारत में आधी से अधिक महिलाओं को अपने बच्चों की जिम्मेदारी खुद उठानी पड़ती है और लगभग 11 फीसदी महिलाएं अपने परिवारों से मदद लेती हैं, जिसमें मायके या ससुराल वाले होते हैं।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एक अध्यापिका का बेटा 9 वर्ष का है, वह अपनी दादी के पास रहता है। खाना एक खानसामा बना देता है और साफ-सफाई के लिए कामगारिन रखी गई है। फिर भी वह कहती हैं कि घर लौटकर बच्चे को पढ़ाना पड़ता है और सास की बातें सुननी पड़ती हैं कि बच्चा उन्हें कितना परेशान करता है। वह कहती हैं कि पैसा तो घर में सभी को अच्छा लगता है पर उसके लिए थोड़ी सी मेहनत करनी हो तो बहुत बुरा लगता है। क्रेश की व्यवस्था है नहीं और बच्चों की छुट्टियां मां की छुट्टियों से हमेशा मैच नहीं करतीं। पति न्यायाधीश हैं तो उनके पास समय नहीं होता।

साफ-सफाई और अन्य घरेलू काम

साफ-सफाई और बर्तन व कपड़े धोना, पौधे सींचना, कार साफ करना और बहुत सारे छोटे-बड़े काम होते हैं जिन्हें घरेलू काम में गिना जाता है। भारत की 48 फीसदी महिलाएं ये सारे काम खुद करती हैं। 15 फीसदी औरतें अपने पति से सहयोग ले पाती हैं और 10 फीसदी महिलाएं ये काम पूरी तरह से अपने पति पर छोड़ पाती हैं। पर 23 फीसदी ने कहा कि इसके लिए वे पेड वर्कर रखती हैं, क्योंकि दोनों व्यस्त रहते हैं।

इससे समझा जा सकता है कि ये केवल बहाने हैं कि बच्चे संभालना तो मां ही बेहतर कर सकती है। आखिर बाकी सारे काम भी तो महिला के सिर पर आ जाते हैं। जबकि इन सारे कामों को कोई भी आसानी से सुबह जल्दी उठकर कर सकता है। एक महिला जो दिल्ली के सरकारी अस्पताल में नर्स हैं, कहती हैं कि कोविड के समय हम डबल ड्यूटी कर रहे थे पर पति घर पर रहते हुए भी सोचते थे कि घर आएगी तो कर लेगी। लौटकर सिर से नहाना पड़ता था, सारे कपड़े धोने पड़ते थे, खाना भी पकाना पड़ता था और सास-ससुर की सेवा करनी पड़ती थी। जब बिस्तर पर पड़ती थी तो जैसे होश ही नहीं रहता था।

काम में लचीलापन हो तो उत्पादकता अधिक

सर्वे की महिलाओं में 85 फीसदी ने कहा कि काम में लचीलापन है इसलिए उत्पादकता अधिक है। 48 फीसदी अपने काम से संतुष्ट थीं और 5 साल से अधिक समय तक काम करना चाहती थीं। 41 फीसदी महिलाएं बोलीं कि उनके कार्यस्थल पर लचीलापन नहीं है पर उत्पादकता अच्छी है। पर यहां 38 फीसदी महिलाएं नए काम की तलाश में थीं और केवल 11 फीसदी 5 साल से अधिक समय तक टिके रहने की सोच रही थीं।

इससे स्पष्ट है कि महिला कर्मियों के लिए काम में अधिक लचीलेपन की जरूरत होती है और ऐसा न होने से वे काम छोड़ देने पर मजबूर होती हैं। बंगलुरु में काम कर रही एक साॅफ्टवियर इंजीनियर ने कहा कि कोविड के बाद उसने और उसके कई साथियों ने काम छोड़कर दूसरी कम्पनियों में अर्ज़ी डाली क्योंकि काम के घंटे बढ़ गए थे और एक ही व्यक्ति से कई किस्म के काम कराए जा रहे थे। कई बार तो सुबह से लेकर देर रात तक काम कराया जा रहा था क्योंकि वर्क फ्राॅम होम चल रहा था। सभी बर्नआउट के शिकार हो गए थे।

लैंगिक बराबरी के प्रति प्रतिबद्धता

भारत में 91 फीसदी कामकाजी महिलाओं का कहना था कि उनकी संस्था लैंगिक बराबरी के प्रति लेशमात्र भी प्रतिबद्धता नहीं दिखाती और 33 फीसदी का कहना था कि वे न ही अपने परिवार में किसी को न अपनी किसी मित्र को वहां काम करने को कहेंगी। विश्व में ये आंकड़े क्रमशः 92 फीसदी और 33 फीसदी हैं।

डिलाॅएट रिपोर्ट ने निष्कर्ष में कहा कि संस्थाओं/संगठनों में जो अधिक समावेशी हैं, महिलाओं के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं और उनके लिए काम में लचीलापन अख्तियार करते हैं, उन्हें जेंडर ईक्वालिटी लीडर्स की श्रेणी में रखा जा सकता है। इनकी ओर से कामकाज के माहौल को अधिक समावेशी बनाने की कोशिश रहती है और वर्क-लाइफ बैलेंस का पूरा ध्यान भी रखा जाता है, जिससे उत्पादकता बढ़ती है पर विश्व में और भारत में भी केवल 5 फीसदी महिला कर्मी ऐसे संगठनों में काम कर रही हैं क्योंकि ऐसे संगठन व संस्थाएं कम हैं। इस विसंगति को दूर करने की ज़रूरत है।

ट्रेड यूनियन महिला कर्मियों के मुद्दों को प्राथमिकता दें

भारत में ट्रेड यूनियनों का ढांचा पितृसत्तात्मक बना हुआ है। महिला कर्मियों को नेतृत्वकारी भूमिका में लाने के लिए अथक प्रयास की ज़रूरत है, क्योंकि बिना ऐसा किये संगठनों/संस्थानों को महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। मसलन, सीजीएचएस जैसी संस्था में न तो चेंजिंग रूम थे और न ही महिला टाॅयलेट। यूनियन की महिला सेल ने लगातार संघर्ष करके इन्हें बनवाया। फिर लड़कर यौन उत्पीड़न विरोधी शिकायत सेल कायम किये और कार्यकारिणी में संयुक्त सचिव का पद महिला-आरक्षित बनाया।

औरतों के लिए 8 मार्च को छुट्टी के लिए भी संघर्ष चला। कई ऐसे प्रावधान लाए गए जिससे महिला मरीजों को सुविधा हो, उदाहरण के लिए रेडियोलाॅजी और अल्ट्रासाउंड के समय एक नर्स की अनिवार्य उपस्थिति। फीमेल ऐटेंडेंट के बैठने के लिए जगह का प्रावधान भी किया गया। इस कारण महिला संगठनों को इस बात के लिए दबाव बनाना पड़ेगा कि हर कम्पनी/संस्थान/संगठन लैंगिक बराबरी के लिए प्रतिबद्ध हो।

(कुमुदिनी पति, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की उपाध्यक्ष रही हैं और वर्तमान में सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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