नई दिल्ली/ गुरुग्राम। फरवरी का महीना खत्म होने की आखिरी दहलीज़ पर है पर दोपहर की बढ़ती गर्मी अप्रैल की याद दिला रही है। हम गुड़गांव के ऑटो हब के एक चौराहे पर रमेश (बदला हुआ नाम) का इंतज़ार कर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि उन्हें गेट पास मिल जाएगा तो वो अपनी छुट्टी होने से डेढ़ घंटा पहले निकल आएंगे।
ऑटो मोबाइल पार्ट्स की फैक्ट्री में काम करने के लिए वो रोज़ 45 किमी का सफर तय करते हैं। तीन बच्चों के पिता को नौकरी जाने का डर है, लिहाज़ा वो इस शर्त पर बात करने को राज़ी हुए कि उनका नाम, आवाज़ और चेहरा कहीं नहीं दिखाया जाएगा।
वो अपना हाथ दिखाते हैं, जिसकी दो उंगलिया अब काम नहीं करती। साल 2014 में वो अपनी फैक्ट्री में डाई मेकर का काम कर रहे थे। फर्श पर तेल पड़ा था और उस पर पैर फिसल गया। नीचे नुकीले पार्ट्स पड़े थे जो सीधे हाथ पर पड़े और हाथ कट गया।

रमेश कहते हैं- ”एक्सीडेंट के बाद प्राइवेट अस्पताल ले जाया गया। फैक्ट्री वालों ने मेरा गलत इलाज करवाया। ऊपर से टांके लगा दिए जबकि अंदर की नसें कटी हुई थी। मुझे अपने पैसों से दो बार इलाज करवाना पड़ा लेकिन अब ये सही नहीं हो सकता। अब दो उंगलियां काम ही नहीं करती हैं। एक्सीडेंट के हर्जाने के तौर पर बस बीस हज़ार रुपये मिले। एक्सीडेंट रिपोर्ट तक नहीं बनी”
रमेश का अनुभव तो बस एक झलक भर है उस बड़े दुष्चक्र का जिसमें भारतीय मज़दूर फंसा है। डेटा पत्रकारिता से जुड़ी वेबसाइट इंडियास्पेंड ने RTI के ज़रिये जो आंकड़े हासिल किए हैं वो डरावने हैं।

श्रम और रोजगार मंत्रालय के महानिदेशालय फैक्टरी सलाह सेवा और श्रम संस्थान (डीजीएफएएसएलआई) के डेटा के मुताबिक साल 2017 से 2020 के बीच, देश के रजिस्टर्ड कारखानों में दुर्घटनाओं की वजह से हर दिन औसतन तीन मज़दूरों की मौत हुई और 11 घायल हुए हैं।
ये डेटा बताने के लिए काफी है कि भारतीय फैक्ट्रियों में मज़दूर कितने अनसेफ़ माहौल में काम कर रहे हैं। हालात बीते सालों में लगातार खराब ही हो रहे हैं।
42 साल के मनीष (बदला हुआ नाम) यूपी के एक बड़े शहर से हैं। ऑटो हब के ज्यादातर वर्कर्स की तरह वो भी बीते 21 साल से दिल्ली में रह कर ऑटो मोबाइल के पार्ट्स बनाने वाली कंपनी के लिए काम कर रहे हैं। उनके बाएं हाथ की कलाई अब नहीं है।

वो दिन मनीष को आज भी याद है वो बताते हैं कि- ”28 दिसंबर 2016 की बात है । मैं 530 टन की डाई कास्टिंग मशीन पर काम कर रहा था। मशीन में पाइप लगा रहा था कि पलक झपकते ही दुर्घटना हो गई। शरीर बाल-बाल बच गया लेकिन हाथ पूरी तरह से चला गया।
मनीष कहते हैं- ‘एक हाथ से मैं क्या कर पाऊंगा। दुकान पर ही बैठ सकता हूं, लेकिन उसके लिए पैसे नहीं हैं’। मनीष को दुर्घटना के बाद कंपनी की ओर से महज़ दो लाख मिले। हालांकि उनके साथियों ने अपनी एक दिन की सैलेरी कटवा कर उनके लिए पैसे जमा किए तो थोड़ी राहत मिली।

अब इनका संकट दूसरा है। अब फैक्ट्री में छंटनी की खबर है और उन्हें खाने कमाने की चिंता सता रही है, वो कहते हैं कि अब लग रहा है कि नौकरी से हाथ धोना पड़े, ऐसे में एक हाथ से कोई नौकरी देगा नहीं।
इस तरह की दुर्घटनाओं को लेकर कोई ऑफिशियल डेटा तो नहीं है लेकिन सेफ इंडिया फाउंडेशन का सर्वे बताता है कि साल 2018 से लेकर 2020 के बीच 3,331 मौतें दर्ज हुई लेकिन इस दौरान सिर्फ 14 लोगों को फैक्ट्री एक्ट 1948 के तहत सज़ा दी गई।
वहीं ऑटोमोबाइल पर काम करने वाले मानेसर के एक संगठन ‘सेफ इन इंडिया फाउंडेशन’ (SII) की क्रश्ड 2022 रिपोर्ट में कहा गया कि हर साल होने वाली दुर्घटनाओं में हजारों श्रमिकों के हाथ और उंगलियां कट जाती हैं।

इस रिपोर्ट में 6 राज्यों में ऑटो सेक्टर में लगी चोटों और दुर्घटनाओं का विश्लेषण किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ऑटो-हब में कई कर्मचारी बाहर से आते हैं और उनके पास इस काम को करने के लिए ज़रूरी स्किल नहीं है।
SII के मुताबिक ऑटोमोटिव स्किल्स डेवलेपमेंट काउंसिल ने प्रेस शॉप असिस्टेंट और ऑपरेटर्स के लिए न्यूनतम आठवीं तक की पढ़ाई और प्रेस शॉप की ट्रेनिंग को जरूरी माना है, लेकिन यही रिपोर्ट बताती है कि ऐसा नहीं किया जाता। इसीलिए ज़ख्मी लोगों में ज्यादातर हेल्पर का काम करने वाले लोग हैं। काम का दबाव बहुत ज्यादा होता है 12 घंटे की औसतन शिफ्ट में काम करवाया जाता है।
इधर वर्कर्स का कहना है कि दो वजहें से एक्सीडेंट्स में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है। लापरवाही तो है ही साथ ही सेफ्टी को लेकर फैक्ट्रियों में एहतियात बरती नहीं जाती। नाम नहीं छपने की शर्त पर राहुल बताते हैं- फैक्ट्री में सेफ्टी को लेकर पूरी तरह से इंतज़ाम नहीं किए जाते साथ ही कई बार सेंसर्स को भी ऑफ करवा दिया जाता है, जो काम के दौरान एक्सीडेंट की बड़ी वजह बनती है।

रमेश भी कहते हैं-ज्यादा आउटपुट के दबाव के चलते सेंसर बंद किए जाते हैं क्योंकि उससे मशीन धीमी चलती है। दरअसल प्रेसिंग मशीन में लगे सेंसर्स मजदूरों को आगाह कर देते हैं जिससे एक्सीडेंट्स से बचा जा सकता है।
जख्मी होने पर वर्कर्स को फैक्ट्री मैनेजमेंट की ओर से प्राइवेट अस्पतालों में भर्ती कराया जाता है। जितने भी वर्कर्स से हमने बात की उन्होंने बताया कि सभी को प्राइवेट अस्पताल में भर्ती करवाया गया।
रमेश कहते हैं कि- जख्मी हालत में लोगों को प्राइवेट अस्पताल में लेकर जाते हैं। इन्हें रिपोर्ट ही नहीं किया जाता। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। एक्सीडेंट रिपोर्ट ही नहीं किया गया। वरना मेरी ESI की पेंशन बन जाती। वहीं कैज़ुअल को तो पट्टी वगैरह करवा कर वहीं से विदा कर देते हैं।

मज़दूर अधिकारों के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट और मज़दूरों का आरोप है कि अगर कोई बड़ी दुर्घटना नहीं है तो एक्सीडेंट के केस को रिपोर्ट ही नहीं किया जाता। मजदूरों को प्राइवेट अस्पतालों में ले जाया जाता है। यहां फैक्ट्री मालिक, कॉन्ट्रैक्टर और पुलिस के बीच सांठ-गांठ होती है ताकि दुर्घटनाओं को रिपोर्ट कराने से बचा जा सके और कोई कानूनी परेशानी ना सामने खड़ी हो पाए।
सवाल कर्मचारी के मुआवज़े की भरपाई और इलाज की जिम्मेदारी से बचने का भी है। यानि मेहनताना कम है और जोखिम ज्यादा है, राहुल कहते हैं- ”हम जो लोग कंपनी में काम कर रहे हैं वो जान हथेली पर रखकर कर रहे हैं। कब क्या हो जाए। प्रेशर की पाइप फट जाए। कपड़े जल जाते हैं। मिलता क्या है? कुछ नहीं मिलता”।
राहुल आगे कहते हैं- “दिखावे का गार्ड मिलता है। जब एक्सीडेंट हो जाएंगे तो खोजेंगे कि कैसे एक्सीडेंट हो गया। छह महीनों से मैं अपनी फैक्ट्री में कह रहा हूं कि सेफ्टी गार्ड हमें दे दिए जाए। मैनेजर कहते हैं कि जब आएगा तो मिलेगा। कंपनी के पास पैसे नहीं हैं। सेफ्टी मैनेजर भी ऐसे ही हल्के में सब देखते हैं। सिर्फ चालान काट देंगे।”

भारत दक्षिण एशिया का बड़ा ऑटो मैन्युफैक्चरिंग हब है। जिसमें 10 मिलियन वर्कर्स काम करते हैं। यहां मैन्युफैक्चरिंग ज्यादातर छोटी कंपनियों को दी जाती है, वो या तो ठेके पर होता है या फिर कॉन्ट्रैक्ट पर। कॉन्ट्रैक्ट वाले वर्कर्स की तादाद हाल के सालों में बढ़ी ही है और जख्मी होने पर कंपनियां इन्हें वापस काम पर भी नहीं रखती। ऐसा ही कुछ देवा के साथ हुआ।
देवा (बदला नाम) महज 19 साल का है और गुड़गांव के एक निम्न मध्यमवर्गीय मुहल्ले में अपने भाई के साथ रहता है। अंधेरी सी कॉलोनी के पांचवे मकान में रहने वाले देवा का बड़ा भाई विनय (बदला नाम) भी फैक्ट्री में ही काम करता है। स्पोर्ट्स के कपड़े बनाने वाली इस फैक्ट्री में देवा बतौर एक कैज़ुअल लेबर की ही तरह काम कर रहा था। एक दिन उंगली सुईं के नीचे आ गई।

उसका आरोप है कि कंपनी ने पहले तो इलाज करवाने से भी इनकार कर दिया। लेकिन बाद में इलाज के नाम पर पांच हज़ार रुपये दिए। उंगली अभी भी ठीक हुई नहीं है और ठीक से इलाज कराने में पैसा लगेगा। देवा को कंपनी ने काम से निकाल दिया। इसे लेकर वो बेहद नाराज़ है।
देवा कहता है- मेरी उंगली उनकी कंपनी में काम करते हुए खराब हुई। मैं अभी भी काम कर सकता हूं। लेकिन मुझे काम से ही निकाल दिया गया, भला ऐसा कोई करता है क्या?

दरअसल ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों को लेकर कंपनियां बेहद लचर रवैया अपनाती हैं। रमेश बताते हैं कि ज्यादातर मज़दूरों को महज़ फर्स्ट एड देकर अस्पताल से वापस लौटा दिया जाता है।
AICWU- ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन के सदस्य और वर्कर्स एक्टिविस्ट श्याम मूर्ति कहते हैं- ”किसी भी सेक्टर में सबसे ख़तरनाक काम प्रवासी मज़दूरों के हिस्से आता है। प्रवासी, ग़रीब और दलित मज़दूर ही सबसे ज़्यादा अरक्षित होते हैं।
उन्हें चोट लगने या मौत होने तक के हालात में मालिक पक्ष को बचने में ज़्यादा आसानी होती है। क्षेत्रफल और फ़ैक्टरियों की संख्या के हिसाब से श्रम विभाग में लेबर इंस्पेक्टरों की संख्या हमेशा कम होती है और रिश्वत का पूरा बोलबाला चलता है।”

जहां तक बात रही कानूनी कवरेज की तो इस ओर से भी वर्कर को निराशा ही हाथ लगती है। केंद्र सरकार ने साल 2020 में श्रम कानून सुधार ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ और वर्किंग कंडिशन कोड 2020 यानि OSH को पारित करवा दिया था, ये अलग बात है कि ये लागू अभी तक नहीं हो पाया है।
इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक्सपर्ट्स का कहना है कि मजदूरों की सेफ्टी और बेहतरी के हिसाब से पुराना कारखाना एक्ट 1948 नए कानून की तुलना में ज्यादा कठोर था। नए कोड के मुताबिक सुरक्षा समिति के गठन के लिए खतरनाक कारखानों में कम से कम 250 कर्मचारी या फिर कारखाने में 500 मज़दूर होने चाहिए।
हालांकि छठी आर्थिक जनगणना के मुताबिक भारत में दस लाख से कम या 1.4 फीसदी संस्थानों में 10 से ज्यादा कर्मचारी हैं। इस तरह से सीमा बढ़ाने की वजह से ज्यादातर कारखाने OSH कोड के दायरे से बाहर हो जाएंगे। इसके साथ ही बिना सहायता के प्रोडक्शन करने वाले कारखानों की परिभाषा ही बदल दी गई है।

श्याम आगे कहते हैं- ”नए कोड में त्रिपक्षीय वार्ताओं और मज़दूर प्रतिनिधियों की भूमिका को ही ख़त्म कर दिया गया है। इनकी जगह पर राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा परिषद, केन्द्रीय बोर्ड और राज्यों के बोर्ड की बात रखी गयी है जिनमें ट्रेड यूनियनों की कोई भूमिका नहीं होगी। ऐसे समय में जबकि इस तरह की दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं। ये ज़रूरी हो जाता है कि ट्रेड यूनियन और मजबूत भूमिका निभाएं, लेकिन हो उल्टा रहा है।”
असंगठित क्षेत्र का एक अनुमानित डेटा बताता है कि इसमें लगभग 90% लोग काम करते हैं। आजकल कंपनियां स्थायी लेबर की जगह कॉन्ट्रैक्ट लेबर को प्राथमिकता दे रही हैं। इसमें मज़दूरों के अधिकार कम होते हैं और काम को लेकर इतनी ज्यादा असुरक्षा की भावना है कि मज़दूर किसी भी तरह से काम में बने रहना चाहते हैं।
वर्कर्स राइट्स एक्टिविस्ट केशव आनंद कहते हैं-”तमाम दुर्घटनाओं के बावजूद एक मज़दूर को जहां भी काम मिलता है, वो काम करने को तैयार हो जाता है। चूंकि कारख़ाने के काम में मज़दूर कुशल होते हैं और अन्य सेक्टर के मुक़ाबले यहां तनख्वाह थोड़ी बेहतर मिलती है, इसलिए भी मज़दूर कारखानों का ही रुख करते हैं।

तत्काल ख़राब होते हालात उन्हें जान का जोख़िम लेने पर मजबूर कर देते हैं। उनके सामने दो ही रास्ते होते हैं, चाहे भूखों मरें या कारख़ाने में मरने का जोख़िम लेकर काम करें। ऐसे में वे दूसरे विकल्प को ही चुनते हैं।”
यही 8 बाई 8 के छोटे से कमरे में अपने दो बच्चों और पत्नी के साथ रहने वाले विष्णु भी कहते हैं। विष्णु दिल्ली के आज़ादपुर में पहली मंजिल पर रहते हैं जहां तक पहुंचने के लिए सिर को काफी आगे तक झुकाना पड़ता है। सीढ़ियां इतनी संकरी हैं कि शायद भारी शरीर का व्यक्ति वहां फंस सकता है।

विष्णु की कहानी बताती है कि क्यों मज़दूर दुर्घटना के शिकार होने पर वापस उसी तरह के खतरनाक माहौल में वापस लौटते हैं। विष्णु को खुद कई बार चोटें लग चुकी हैं। हालांकि हाथ और उंगलियां सुरक्षित हैं। बाजू का ऊपरी हिस्सा हमें दिखाते हुए वो कहते हैं कि मज़दूरों से 4 गुना ज्यादा काम लिया जाता है। ऐसे में थकान शरीर पर हावी हो जाती है और एक्सीडेंट्स होना कोई बड़ी बात नहीं।
ये पूछने पर कि वो दुर्घटना का शिकार हुए हैं तो फिर वापस क्यों लौटे? इस पर जवाब देते हुए विष्णु कहते हैं- ”सारा काम ही जब खतरनाक है तो छोड़ कर कहां जाएंगे। इन फैक्ट्रियों में ज्यादातर काम में रिस्क तो है। बर्तन से लेकर गत्ते तक सारे काम में डाई का काम है। डाई वाले काम तो करना ही है। लेकिन महीने का 8 हज़ार कमा पाते हैं तो बच्चों की पढ़ाई हो जाती है। गांव वापस जाने पर ये नहीं हो पाएगा।
दरअसल विष्णु यूपी के कुशीनगर से आए हैं और कहते हैं कि वहां वापस जाना अब संभव नहीं, क्योंकि जो कुछ खेती बाड़ी है उससे पेट नहीं भर पाएगा। ये पूछने पर कि क्या वापस जाने का मन नहीं करता वो कहते हैं- करता है, बहुत करता है, लेकिन पता है अब वापसी मुमकिन नहीं।”

दरअसल बीते कई सालों में देश के कारखाने मज़दूरों के लिए खतरनाक साबित होते जा रहे हैं। लेकिन ये सब कुछ ऐसे बुरे सपने की तरह है जो खत्म नहीं हो पा रहा। काम को लेकर असुरक्षा, गरीबी और बेरोज़गारी मज़दूरों को ऐसे हालात में काम करने के लिए मजबूर करती है।
मजदूर किसी तरह बस काम करते रहने चाहते हैं। हर्जाना, इलाज या पेंशन जैसे सवाल शायद उनके ज़ेहन में आते ही नहीं क्योंकि सिस्टम पर भी भरोसा नहीं है। इसे 19 साल के देवा की बात से और साफ़ तरीके से समझा जा सकता है जब वो कहता है- मेरी उंगली को उनकी फैक्ट्री में चोट लगी तो फर्स्ट एड की ज़िम्मेदारी तो बनती है, इसका इलाज मैं पेट काट कर करा लूंगा लेकिन सवाल ये है कि मुझे काम से निकाला क्यों?
देवा के सवाल का हमारे पास कोई जवाब नहीं था। हम उनकी दूसरी मंज़िल वाले छोटे से कमरे से बाहर आ गए थे। गुरुग्राम का इंडस्ट्रियल एरिया चोटिल होकर अपने शरीर का कोई अंग हमेशा के लिए खो चुके ऐसे कई वर्कर्स की रिहाइश है। जिनके मन में इसी तरह के सवाल हैं।
विनीत (बदला हुआ नाम) की कहानी भी देवा से अलग नहीं, एक दुर्घटना का शिकार हो दोनों हाथ गंवाए, अब जिंदगी की गाड़ी जैसे तैसे ही चल रही है।

देवा उम्र में छोटा है इसीलिए सवाल उठा भी रहा है। एक उम्र बीत जाने पर मज़दूर इस तरह के सवालों के साथ भी समझौता कर लेते हैं और खामोश हो जाते हैं। उनमें से कई विष्णु जैसे हो जाते हैं। जो गमन फिल्म के गुलाम हसन की तरह हमेशा के लिए सबकुछ छोड़कर वापस गांव जाना चाहता है, लेकिन रेलवे स्टेशन जाकर भी अपनी खोली में लौट आता है। वापसी हो नहीं पाती। रेल चली जाती है। कुशीनगर से दिल्ली की दूरी अब पाटी नहीं जा सकती।
(गुरुग्राम और दिल्ली से अल्पयू सिंह की रिपोर्ट)
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