ज़िया उस सलाम का लेख: किन हालात में जी रहे हैं, भारत के मुसलमान 

इस नये भारत में मुसलमान होने का मतलब आवाजहीन होना है। मुख्यधारा के लगभग सभी राजनीतिक दल “मुस्लिम” शब्द का इस्तेमाल करने से बचते हैं, इसकी जगह वे अक्सर “अल्पसंख्यक” या “माइनॉरिटीज़” बोलने को तरज़ीह देते हैं। सत्तारूढ़ ‘भारतीय जनता पार्टी’ का रवैया तो और भी खराब है। जिस पार्टी ने अल्पसंख्यकों के लिए ‘मौलाना आज़ाद फ़ेलोशिप’ ख़त्म कर दी, वह भेदभाव करने की बात से इनकार करती है।

अप्रत्याशित रूप से, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 जून को व्हाइट हाउस में मीडिया से अपनी बातचीत में दावा किया कि देश में सब कुछ निष्पक्ष और ठीक चल रहा है। देश में “मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों में सुधार के लिए” उनकी सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों पर एक सवाल का जवाब देते हुए, उन्होंने कहा, ”हमने हमेशा साबित किया है कि लोकतंत्र परिणाम दे सकता है। और जब मैं कहता हूं परिणाम दे सकता है, तो इसका मतलब है कि जाति, पंथ, धर्म, लिंग का भेदभाव किए बिना। इसमें भेदभाव के लिए बिल्कुल भी जगह नहीं है।” यह इनकार संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा एक टेलीविज़न साक्षात्कार में “हिंदू बहुसंख्यक भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सुरक्षा” के बारे में चिंता व्यक्त करने के बाद आया है।

मोदी जी ने अपने जवाब में इस हक़ीक़त को दरकिनार कर दिया कि जीवन के सभी क्षेत्रों में मुस्लिम प्रतिनिधित्व को व्यवस्थित तरीके से कम किया जा रहा है। मई में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 224 सदस्यों वाली विधानसभा में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं खड़ा किया था। गुजरात में भी ऐसा ही था। और उससे पहले, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और बिहार में भी यही किया गया। आजादी के बाद पहली बार केंद्र में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है। भाजपा पहली सत्तारूढ़ पार्टी है, जिसमें एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है। जाहिर है, मोदी जी के दावे के हिसाब से यह सब भेदभाव थोड़े ही है!

बहुलवाद सिर्फ जुमला है

मुसलमानों को प्रतिनिधित्व न देने का मामला केवल भाजपा तक ही सीमित नहीं है। हिमाचल प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, राजस्थान, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और अब कर्नाटक, इन सभी राज्यों में गैर-भाजपा सरकारें होने के बावजूद आज भारत में एक भी मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं है। पार्टियां बातें तो बहुलवाद की करती हैं, लेकिन अमल में बहुसंख्यकवाद करती हैं।

2019 के लोकसभा चुनाव से थोड़ा पहले जब अनुभवी (तत्कालीन) कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद ने शिकायत की कि अधिकांश उम्मीदवार उन्हें चुनाव प्रचारक के रूप में नहीं ले जाना चाहते थे, तो उस समय यह अपने गौरवशाली दिनों के लिए तरस रहे एक व्यक्ति का विलाप प्रतीत हुआ। लेकिन बाद की घटनाओं ने उन्हें सही साबित कर दिया है। स्व-घोषित धर्मनिरपेक्ष दल मुस्लिम मतदाताओं या नेताओं के साथ गठबंधन करते नहीं दिखना चाहते हैं। वे अपना वोट चाहते हैं, लेकिन चुपचाप और चोरी-छिपे, जैसा कि समाजवादी पार्टी के नेता, अखिलेश यादव ने 2022 में उत्तर प्रदेश के चुनावों के दौरान किया था, जहां उन्होंने मंच पर मुस्लिम नेताओं की उपस्थिति को कम कर दिया था।

मुसलमानों को जानबूझकर अदृश्य किये जाने की प्रवृत्ति बहुआयामी है। जो राजनीतिक दल सितंबर 2015 में उत्तर प्रदेश के दादरी में मोहम्मद अखलाक की पीट-पीट कर की गयी हत्या की निंदा कर रहे थे, वे अब बिहार, झारखंड, राजस्थान और महाराष्ट्र से मुसलमानों की पीट-पीट कर हत्या की खबरें आने पर मौन हो गए हैं। इस तथ्य को नजरअंदाज किया जा रहा है कि आजादी के बाद से लिंचिंग के 97% से अधिक मामले 2014 के बाद दर्ज किए गए हैं, जिनमें से अधिकांश पीड़ित मुस्लिम हैं।

फिर भी, किसी भी राजनीतिक विचारधारा के नेता ने मृतकों के परिवारों से मिलना उचित नहीं समझा। लगातार हो रही इन हत्याओं पर कोई राजनीतिक आवाज न उठने के कारण ‘जमीयत उलेमा-ए-हिंद’ को अप्रैल में केंद्रीय गृह मंत्री से मिलने के लिए मुस्लिम नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने के लिए मजबूर होना पड़ा। मंत्री ने उन्हें कोई विशेष मामला संज्ञान में आने पर 72 घंटे के भीतर कार्रवाई का आश्वासन दिया। शब्द खोखले साबित हुए। उनके आश्वासन के कुछ ही घंटों के भीतर, झारखंड और हरियाणा से लिंचिंग के मामले सामने आए। इस खबर को या तो मीडिया ने नजरअंदाज कर दिया या फिर अंदर के पन्नों पर कुछ वाक्यों तक सीमित कर दिया। नए भारत में मुसलमानों की पीट-पीटकर हत्या के समाचार अब ‘मौसम समाचार’ जैसे बन चुके हैं- ऐसी सामान्य सी घटनाएं जिनका पूर्वानुमान हो।

अभी कुछ ही समय पहले ‘वंदे मातरम’ या ‘भारत माता की जय’ कहने से इनकार करने पर जिन मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ बातें की जाती थीं, उनको अब ‘जय श्री राम’ चिल्लाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, जो नफरत फैलाने वालों का नया नारा बन चुका है। कुछ समय पहले, कुछ दक्षिणपंथी गुंडों ने संसद से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर जंतर-मंतर पर चेतावनी जारी की थी: “जब मुल्ले काटे जाएंगे, जय श्री राम चिल्लाएंगे।” जब उन गुंडों में से एक ने बाद में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया, तो उसके समर्थकों ने उसे अपने कंधों पर बैठाकर मालाएं पहना कर उसका सम्मान किया, जबकि पुलिसकर्मी देखते रहे, जैसे कि वह ओलिंपिक पदक विजेता हो।

नफरती भाषणों में तेज वृद्धि

भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्य सरकारों को स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करने के आदेश के बावजूद, मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफरत भरे भाषणों में तेजी से वृद्धि हुई है। जबकि यति नरसिंहानंद और कालीचरण महाराज जैसे लोगों ने न केवल मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला है, बल्कि पैगंबर की भी बेअदबी की है लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गयी। संसद सदस्य प्रज्ञा सिंह ठाकुर जैसे लोग हैं, जो हिंदुओं से आग्रह कर रही हैं कि वे अपने घरों में चाकुओं पर धार लगाकर रखें। वे लंबे समय से यही सब कर रही है।

हाल ही में, फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ की स्क्रीनिंग के दौरान उन्होंने दर्शकों से कहा कि “वे” 32% हैं, और यदि “वे” 40% हो गए, तो आपकी बेटियाँ सुरक्षित नहीं रहेंगी। ‘द कश्मीर फाइल्स’ के रिलीज़ होने पर भी इसी तरह का उत्साह प्रदर्शित हुआ था। एक समय था जब हर शुक्रवार को नई सिनेमाई पेशकशों का इंतज़ार रहता था, लेकिन अब ज्यादातर फिल्में इस्लाम के प्रति भय फैलाने वाली, यानि इस्लामोफोबिया के रंगों में रंगी हुई आ रही हैं। दयालु ‘खान चाचा’ या बहुलवादी ‘अमर-अकबर-एंथोनी’ जैसी फिल्मों के दिन चले गए। अब ‘द केरला स्टोरी’ आज के समय की पहचान बन गयी है।

आज मुसलमान होने का मतलब है, नींद खुलते ही सोशल मीडिया, राजनीतिक हलकों और वास्तविक जीवन में नफरत के दैनिक मलबे के नीचे पिस जाना। मुसलमानों के अस्तित्व पर हमले लगातार जारी हैं। जिस समय फिल्म निर्माता अपने पूर्वाग्रहों का अगला ढेर तैयार नहीं कर रहे होते हैं, तो उस समय राजनेता मुस्लिम शासकों या इस्लाम से किसी भी संबंध को मिटाने के लिए पुराने शहरों का नाम बदल देते हैं। मुगल सराय और औरंगाबाद जैसे जाने-माने स्थानों से परे, मध्य प्रदेश में इस्लाम नगर और महाराष्ट्र में अहमदनगर जैसी छोटी-छोटी जगहों तक के नाम बदल दिये गये हैं। दिल्ली में भी मोहम्मदपुर का नाम बदलने की मांग हो रही है। आज के इस नये भारत में इस्लाम, मुहम्मद, अहमद, ये सभी एक विसंगति बन चुके हैं।

जख्म और भी हैं

भोजन, कपड़े और यहां तक ​​कि कमाई के स्रोतों पर हमलों के मामले में भी ऐसा ही है। नवरात्रि के दौरान, कोई दुकानदार मांस नहीं बेच सकता है और न ही कोई उपभोक्ता इसे दिल्ली, हरियाणा या उत्तर प्रदेश में खरीद सकता है, भले ही नवरात्रि और रमज़ान एक साथ ही पड़े हों। एक आस्था को दूसरे से श्रेष्ठ माना जाता है। अगर कर्नाटक में लड़कियों को स्कूल में हिजाब पहनने से रोक दिया गया, तो दिल्ली में हमारे एक सांसद ने मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार का आह्वान किया। वह अपनी छवि फिर से चमकाने की कोशिश कर रहा था। कुछ साल पहले, ही उसकी पार्टी का एक सहयोगी यह कहकर अपनी राजनीति चमका चुका था कि पूरा मुस्लिम समुदाय गद्दारों से भरा हुआ है, जो गोली मारे जाने के लायक हैं। ‘देश के गद्दारों को…गोली मारो…’ की नफरत भरी ललकार याद है? वह युवा सांसद समझ गया था कि उसका बॉस क्या चाहता है, और उसने बड़े चाव से उसे उसके मन का व्यंजन परोसा।

इस कहानी में राम नवमी और हनुमान जयंती के दौरान हर साल मस्जिदों पर होने वाले हमलों को जोड़े लें तो एक संकटग्रस्त मुस्लिम समुदाय की तस्वीर उभर आएगी। एक आहत, भयभीत और परित्यक्त समुदाय, जिसे इस नये भारत में हाशिए पर फेंक दिया गया है।

(ज़िया उस सलाम का लेख।  ‘द हिंदू’ से साभार, अनुवाद : शैलेश। ज़िया उस सलाम वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।)

5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments