देहरादून। उत्तराखंड के देहरादून में स्थित गांव लोहारी पिछले कुछ दिनों से देश भर में बड़ी चर्चा में रहा है, हर कोई एक संस्कृति को डूबते देखे जाने से दुखी है। टिहरी की तरह ही लोहारी गांव को भी विकास के नाम पर डुबा दिया गया, हालांकि लोहारी की डूब का विरोध उस तरह से चर्चा नहीं पा सका जैसा टिहरी के समय हुआ था।
शुरू से ही विवादों में यह परियोजना
लखवाड़ व्यासी जल विद्युत परियोजना के बारे में जानकारी ली जाए तो पता चलता है इसकी आधारशिला वर्ष 1960 के आसपास रखी गई थी। जिसके बाद से ही लोहारी गांव बांध परियोजना के डूब क्षेत्र में आ गया था। इस परियोजना को सबसे पहले जेपी कंपनी ने बनाया था, लेकिन साल 1990 में आर्थिक कारणों की वजह से यह डैम अधर में लटक गया था। साल 2012 में उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार आने के बाद इस डैम को उत्तराखंड जल विद्युत निगम को दे दिया गया और लखवाड़ परियोजना से व्यासी को अलग कर दिया गया।

डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र द्वारा लखवाड़-व्यासी परियोजना को जो मंजूरी दी गई थी, वह सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन थी। बांध संघर्ष समिति लोहारी के अध्यक्ष नरेश चौहान का कहना है कि इस परियोजना में हमें साल 1972 में पहली बार मुआवजा मिला था, तब सरकार ने हमारे गांव वालों से एग्रीमेंट किया था कि जमीन के बदले जमीन दी जाएगी पर बाद में अपने वादे से मुकरते हुए सरकार पैसा देने लगी।
जब गांव वालों ने यह पैसा नहीं लिया तो सरकार ने उसे ट्रेज़री में रखवा दिया, बाद में कुछ ने वह पैसा लिया और कुछ का पैसा अब भी ट्रेज़री में ही जमा है। सरकार को जब-जब जरूरत पड़ी तब-तब उसने हमारी जमीन का अधिग्रहण किया। हमारी जमीन का अंतिम बार अधिग्रहण साल 1989 में हुआ था, लेकिन परियोजना शुरू होने के लगभग पचास साल बाद भी सरकार हमारा विस्थापन क्यों नहीं करा सकी!

तुगलकी फरमान और गांव खाली
व्यासी परियोजना का काम अब लगभग-लगभग पूरा हो चुका है और इस पर जल्दी ही बिजली उत्पादन भी शुरू किया जाएगा। यमुना नदी का जलस्तर बढ़ने के बाद यह परियोजना 120 मेगावाट तक बिजली उत्पादित करने लगेगी और इसी वजह से अप्रैल, 2022 में प्रशासन ने लोहारी गांव के लोगों को गांव खाली करने का नोटिस दिया।
सरकार ने भूमि पर कब्ज़ा लेने से पहले नोटिस जारी किया और किसी के आपत्ति होने पर 30 अप्रैल तक का समय भी दिया। लेकिन लोकतंत्र, कानून को ठेंगा दिखाते हुए ‘कलेक्टर/प्रशासक/समुचित सरकार, देहरादून’ द्वारा जारी इस नोटिस में दिए गए समय से काफी पहले ही 10-11 अप्रैल को ही गांव पूरी तरह डुबो दिया गया।
लोहारी गांव के निवासियों को एक तरफ तो तीस दिनों तक अपनी आपत्ति जताने की समय सीमा दी गई थी। वहीं दूसरी तरफ इन तीस दिनों के शुरुआती दिनों में ही गांव वालों को 48 घण्टे के अंदर भवन खाली करने का आदेश जारी कर दिया गया।
आदेश जारी करने वाले शायद यह नहीं जानते थे कि वर्षों से एक घर में रहने वाला कोई परिवार अपना घर मात्र 48 घण्टे में कैसे छोड़ देगा! यह आदेश वर्षों पहले के ब्रिटिश शासन में तो ठीक लग सकता था पर एक आज़ाद मुल्क के परिवार के साथ ऐसी नाइंसाफी ठीक नहीं।

नरेश चौहान कहते हैं हमें इस बात का तो पता था कि परियोजना पूरी होगी तो हमें यहां से जाना होगा पर सरकार ने हमारे रहने की कोई व्यवस्था किए बिना ही हमें पैदल कर दिया।
सरकार ने गांव से तीन किलोमीटर दूर हमारे लिए 16-17 कमरों की व्यवस्था तो की है पर वहां कोई सामान उपलब्ध नहीं है। पानी भरने के तीन दिन तक हम क्रेशर के ढेर में खुले आसमान के नीचे रहने पर मजबूर थे और जब वह भी डूब गया तो हमने पास के ही एक स्कूल का सहारा लिया है। हम कुल मिलाकर 20-22 परिवार हैं जो इस स्कूल के चार कमरों और बरामदों में रुके हुए हैं, स्कूल से लगे हुए एक मकान के मालिक ने भी हमें कुछ सहारा दिया है।

ऐसी परियोजना भविष्य के लिए बेहद खतरनाक
पर्यावरणविद रवि चोपड़ा इस परियोजना को पर्यावरण के लिए बेहद ही खतरनाक बताते हैं। उनका यह कहना है कि लोहारी गांव को डुबोने वाली लखवाड़-व्यासी परियोजना के इलाके में डूब क्षेत्र का पचास प्रतिशत हिस्सा जंगल का इलाका है, जो हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।
अपर यमुना कैचमेंट में चल रहे ऐसे प्रोजेक्टों से भविष्य में क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका मूल्यांकन कभी नहीं हुआ है। पहले से ही खतरे में चल रहे यमुना के ग्लेशियर के लिए यह बड़ी समस्या है।

लखवाड़ के अगल-बगल जो पहाड़ हैं उनकी ढाल स्थिर नहीं है और वहां पर भूस्खलन होते रहते हैं। वहां रहने वाले लोग इस बात से चिंतित हैं कि क्या वो झील के ऊपर जाकर भी सुरक्षित रह पाएंगे। टिहरी में हम यह देख रहे हैं कि वहां झील के चारों तरफ भयानक भूस्खलन हो रहा है।
(उत्तराखंड से हिमांशु जोशी की रिपोर्ट।)