बिजली के निजीकरण के खिलाफ राजनीतिक आंदोलन वक्त की जरूरत

योगी सरकार द्वारा पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम के निजीकरण के खिलाफ पिछले 224 दिनों से बिजली के मजदूर, कर्मचारी और अधिकारी आंदोलन पर है। हाल ही में 22 जून को कर्मचारियों ने लखनऊ में एक बड़ी बिजली पंचायत की जिसमें किसान संगठनों, के साथ-साथ उपभोक्ता संगठनों की भी भागीदारी रही है। इस निजीकरण के खिलाफ देशभर के बिजली कर्मियों ने 9 जुलाई को मजदूर संगठनों द्वारा आयोजित राष्ट्रीय हड़ताल में शामिल होने का फैसला लिया है।

सरकार ने इस आंदोलन पर जबरदस्त दमन ढाहने का काम किया है। हजारों कर्मचारियों को विशेष तौर पर कर्मचारी नेताओं का दूरदराज स्थानांतरण कर दिया गया है। करीब तीन हजार संविदा श्रमिकों को नौकरी से निकाल दिया गया। तीन प्रमुख संगठनों अभियंता संघ, जूनियर इंजीनियर संगठन और प्राविधिक कर्मचारी संगठन के पदाधिकारी पर आय से अधिक संपत्ति की फर्जी जांच के आधार पर मुकदमा कायम कर दिया गया।

बहुत सारे कर्मचारी को नोटिस देकर पाबंद किया गया है। यहां तक की संविधान के अनुच्छेद 311 का उल्लंघन करते हुए नैसर्गिक न्याय के विपरीत कर्मचारियों को बिना किसी नोटिस के काम से बर्खास्त करने की संशोधित नियमावली लागू कर दी है। पूरे प्रदेश में एस्मा लगी हुई है और बिजली विभाग में तो कार्य बहिष्कार, हड़ताल आदि पर पूर्णतया प्रतिबंध की निषेधाज्ञा लागू की गई है। कुल मिलाकर कहा जाए तो प्रदेश में आतंक का माहौल योगी सरकार द्वारा बनाया गया है।

कल ही सरकार ने निजीकरण के पक्ष में अखबारों में दिए विज्ञापन में कहा कि इससे ग्राहकों को सेवा की गुणवत्ता, दक्षता, ग्रामीण आय, कृषि उत्पादकता, शिकायतों का तुरंत समाधान, विश्वसनीयता, डिजिटल सेवा, ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक विकास और 24 घंटे 7 दिन हर वक्त बिजली सेवा उपलब्ध कराई जाएगी। इन दावों के बारे में बिजली कर्मचारियों का कहना है कि जहां तक डिजिटल सेवा आदि का सवाल है तो फाल्ट रजिस्ट्रेशन, 1912 कॉल सेंटर, विद्युत मोबाइल उपभोक्ता ऐप आदि सुविधाएं अभी भी लागू है।

ग्रामीण आय और कृषि उत्पादकता को निजीकरण से बड़ा नुकसान होगा। किसानों को जो आज सब्सिडी या सिंचाई हेतु मुफ्त बिजली आदि सुविधाएं मिल रही हैं और सस्ती बिजली के लिए ग्रामीण फीडर, कृषि फीडर अलग है वह सब खत्म हो जाएगी। उपभोक्ताओं को बेहद महंगी बिजली खरीदने पर मजबूर होना होगा। निजीकरण करने से पहले ही सरकार ने बिजली के दाम बढ़ाने का प्रस्ताव दिया है, ताकि निजीकरण के बाद कम्पनियों को बेइंतहा लाभ हो सके।

जहां तक लाइन लॉस की बात है कर्मचारियों ने आंकड़ों के साथ यह बात कही है कि निजी क्षेत्र में लाइन लॉस सरकारी क्षेत्र की तुलना में ज्यादा है। बिजली कर्मचारियों का यह भी कहना है कि घाटे को आधार बनाकर निजीकरण करने की जो बात कही जा रही है उसकी सच्चाई यह है कि इस समय पावर कारपोरेशन का कुल घाटा 1 लाख 18000 करोड़ है जबकि बकाया 2023-24 के अनुसार 1 लाख 15000 करोड़ है। इसमें भी बड़ा बकाया सरकारी विभागों और बड़े करोबारियों का है। जिसकी वसूली से घाटा शेष नहीं रहेगा। यह भी कि अपने संवैधानिक दायित्वों के तहत सरकार अभी जो सब्सिडी का पैसा दे रही है, उसे भी उसने घाटे में शामिल किया है, जो सरासर गलत है।

निजी क्षेत्र के द्वारा सेवा की गुणवत्ता, दक्षता, दायित्व और विश्वनियता की बात है। इस संदर्भ में हाल ही में अहमदाबाद में हुई विमान दुर्घटना इसका जीवंत उदाहरण है। जहां भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहे एयर इंडिया को टाटा समूह को देने के बाद इस तरह की भयानक तबाही हुई।

निजीकरण के पैरोकारों के लिए अम्बानी का जियो मोबाइल नेटवर्क भी एक उदाहरण है। जिसे सरकारी बीएसएनएल को बर्बाद कर बढाया गया। मुफ्त नेटवर्क देने से कारोबार शुरू करने वाली यह कम्पनी आज मनमाना टैरिफ तय कर रही है। अब तो देश की सुरक्षा तक पर खतरा होने के बावजूद जियो और भारती समूह की एयरटेल अमेरिकी पूंजीपति एलन मस्क की कम्पनी स्टार लिंक के साथ समझौता कर चुके है।

दरअसल देश के प्राकृतिक संसाधनों, सार्वजनिक संपदा, आर्थिक स्रोत और श्रम शक्ति की चंद पूंजी घरानों द्वारा लूट करने में भाजपा-आरएसएस की सरकार मदद कर रही है। उत्तर प्रदेश के बिजली विभाग को भी गुजरात के चंद पूंजी घरानों के हवाले करने में मोदी और योगी की सरकार लगी हुई है। जैसा की सूचना है कि पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम को टाटा, अडानी और टोरेंट पावर जैसी कंपनियां खरीदने में लगी हैं। यह भी सच है कि देश और प्रदेश में भाजपा की सरकार जब-जब आई है बिजली क्षेत्र का निजीकरण तेज हुआ है।

अटल सरकार में एनरॉन का बिजली से समझौता हुआ था जिसमें राष्ट्रीय हितों को दांव पर लगा दिया गया था। उत्तर प्रदेश में बिजली बोर्ड का बंटवारा, राष्ट्रीय स्तर पर निजीकरण का रास्ता खोलने वाला विद्युत कानून 2003 भाजपा राज में आया। अब मोदी सरकार विद्युत संशोधन विधेयक लेकर आई हुई है। जिसमें सब्सिडी और क्रॉस सब्सिडी की व्यवस्था को ही खत्म कर दिया जाएगा।

एक अनुमान के मुताबिक 7.5 हॉर्स पावर के किसानों के सिंचाई कनेक्शन पर किसानों को 10000 रूपए प्रतिमाह देने होंगे। जो कृषि उत्पादकता को बुरी तरह प्रभावित करेगा। यहीं नहीं हालत इतनी बुरी है कि अमेरिका में झूठा शपथ पत्र देने वाली और दंडित होने वाली ग्रांट थार्टन कंपनी को नियम विरूद्ध ट्रांजैक्शन कंसल्टेंट नियुक्त किया गया। जिसके प्रस्तावों को विद्युत नियामक आयोग ने भी आपत्तियों के साथ वापस लौटा दिया है।

इस निजीकरण में भी सरकारी संपत्तियों की बड़ी लूट को अंजाम दिया जा रहा है। जिस दक्षिणांचल और पूर्वांचल डिस्काम के निजीकरण की घोषणा की गई है, कर्मचारी संगठनों के अनुसार उनमें पुर्नविकसित वितरण क्षेत्र सुधार योजना में 42968 करोड़ रुपए के काम चल रहे हैं। साथ ही बिजनेस प्लान के तहत पूर्वांचल और दक्षिणांचल में हजारों करोड़ रुपए के काम किए गए हैं और अभी भी चल रहे हैं।

टैक्स पेयर के पैसे से बने सरकारी खजाने से खर्च हो रही इस धनराशि को मुफ्त में ही कारपोरेट कंपनियों के हवाले कर दिया जाएगा। यही नहीं जितनी सम्पत्ति और पूंजी दोनो डिस्काम के पास है उसे कौड़ियों के मोल बेचने की कोशिश है। यहीं कारण है कि इन डिस्काम के होने वाले ई-टेंडर के बारे में किसी को भी कुछ नहीं बताया जा रहा है। यहां तक कि पारदर्शिता की नीति को खारिज करते हुए आनलाइन भी इसके बारे में जानकारी नहीं मिल सकेंगी क्योंकि सरकार ने शर्त लगा दी है कि इन टेडरों के बारे में वहीं जान पायेगा जो इस टेंडर की प्रक्रिया में प्रतिभाग करेगा।  

वास्तव में भाजपा सरकार द्वारा किया जा रहा यह निजीकरण राष्ट्रीय हितो के विरूद्ध है। जिसे राजनीतिक मुद्दा बनाना और आम जनता को इससे होने वाले नुकसान के बारे में सचेत करने के लिए बड़ा संवाद अभियान चलाना बेहद जरूरी है। अभी तक आंदोलन में कर्मचारी संगठनों द्वारा विद्युत विभाग के शीर्ष नौकरशाहों को ही निशाना बनाया जा रहा है, जो पर्याप्त नहीं है।

निजीकरण विरोधी आंदोलन को व्यापक बनाने की जरूरत है। सिर्फ विद्युत कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति नहीं बल्कि इससे आगे बढ़कर इसके नेतृत्व केंद्र के लिए निजीकरण विरोधी मंच का गठन किया जाना चाहिए। इसमें निजीकरण विरोधी दल, किसान संगठन, विभिन्न मजदूर और कर्मचारी संगठन, छात्र-युवा संगठन, पर्यावरणवादी, नागरिक समाज और प्रबुद्ध वर्ग के लोगों को जोड़ने की फौरी जरूरत है।

आज बिजली आम नागरिक के मौलिक अधिकार में आएगी। संविधान के प्रस्तावना में व्यक्ति की गरिमा की बात की गई है और अनुच्छेद 21 में गरिमापूर्ण जीवन को सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व माना गया है। बिजली आज किसी भी नागरिक के गरिमापूर्ण जीवन को देने की अनिवार्य शर्त है। इसलिए निजीकरण का फैसला राज्य के संवैधानिक दायित्वों के विरुद्ध है। इस पर न्यायालय में भी हस्तक्षेप करने पर विचार होना चाहिए।

जिस तरह का दमन और उत्पीड़न सरकार कर रही है और लगातार न्यायालय से लेकर विभिन्न संस्थाओं से नेताओं को पाबंद कर रही है। आंदोलन के रूप और तरीकों पर भी विचार करने की आवश्यकता है। ट्रेड यूनियन का पैदा होना और उसकी क्रियाशीलता कल्याणकारी राज्य के दौर की थी। जहां औद्योगिक पूंजीवादी व्यवस्था ने मजदूरों के राज से आतंकित होकर व्यवस्था का कल्याणकारी स्वरूप ग्रहण किया था। बहुत सारे अधिकार इस दौर में दिए गए थे।

आज युग बदला हुआ है यह वित्तीय पूंजी का दौर है। जहां सरकार और सरकारी संस्थाएं चंद पूंजी घरानों की एजेंट बन गई है। जहां पूरी राजसत्ता इन पूंजी घरानों के लाभ व रक्षा के लिए निरंकुशता की व्यवस्था की ओर बढ़ गई है। लोकतांत्रिक अधिकारों पर लगातार हमले किए जा रहे हैं और लोकतांत्रिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाए जा रहे है। ऐसे में हड़ताल या कार्य बहिष्कार जैसे आंदोलन के रूप आज के दौर में बहुत प्रासंगिक नहीं है। इसलिए आंदोलन के संवैधानिक शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक तरीकों पर विचार करना होगा।

उपवास, अनिश्चितकालीन धरना के जरिए निजीकरण विरोधी आंदोलन के पक्ष में समाज के विभिन्न तबको का समर्थन हासिल करना होगा। सर्वोपरि निजीकरण के विरूद्ध जारी आंदोलन को राजनीतिक आंदोलन में बदलना होगा और इस पर एक बड़ा जनसंवाद चलाने की जरूरत है। प्रदेश भर की जनता इसके खिलाफ खड़ी होगी तभी सरकार इस पर अपने कदम पीछे खींचने पर मजबूर होगी।  

(दिनकर कपूर प्रदेश महासचिव, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट, उ.प्र.)

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