कल सातवें और अंतिम चरण के मतदान के लिए चुनाव प्रचार खत्म हो गया और डर शायद इस अंतिम चरण के चुनावों के बाद के लिए बचा है। वैसा डर, जैसा अमरीका में डोनाल्ड ट्रम्प की हार के करीब 2 महीने बाद बाद 6 जनवरी 2021 को वाशिंगटन डीसी में कैपिटल हिल पर ट्रम्प के समर्थकों के हमले के बाद अमरीका में पैदा हुआ होगा। ‘रेडिकल लेफ्ट डेमोक्रेट्स‘ पर संसदीय चुनावों में धांधली कर जीत हथिया लेने के ट्रम्प के दावे और जो बाइडेन की जीत खारिज कर देने की उप-राष्ट्रपति माइक पेंस एवं अमरीकी कांग्रेस से ट्रम्प की मांग के बाद 5 और 6 जनवरी को, पराजित राष्ट्रपति के हजारों समर्थक कैपिटल हिल में घुस गये थे और उन्होंने वहां तोड़फोड़ और लूटपाट भी की थी।
बहरहाल ये घटनाएं अमरीका में राष्ट्रपति चुनावों के अंतिम प्रमाणन और बाइडेन की जीत नकार पाने में नाकाम रही थीं और इसका मुख्य कारण वहां लोकतांत्रिक संस्थानों की मजबूती ही रही थी। हमारे देश में इस डर की असल वजह यह है कि पिछले करीब एक दशक में लोकतांत्रिक संस्थाओं का हाल किस कदर बेहाल हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है। शायद हमारी केन्द्रीय सत्ता ने आम तौर पर यह सब छिपाने की कोशिश भी नहीं की है। सो वह डर बदस्तूर है और उसकी मियाद शायद अंतिम चरण के मतदान के बाद शुरू हो। वह डर कब तक तारी रहेगाा, यह भी अनिश्चित ही है और यह अनिश्चितता भी एक बड़ा डर है।
लेकिन इन संसदीय चुनावों में मतदान के बीच के डर पहली बार तब लगा, जब हमारे महान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समानान्तर एक लगभग नामालूम-सा व्यक्ति इंटरव्यू देने में उनसे होड़ करने लगा। जी वही, प्रशान्त किशोर! नामालूम इसलिए कि बस एक काम उन्हें आता था, इलेक्टोरल मैनेजमेंट का, इलेक्टोरल मैनेजमेंट कम्पनी ‘आई पैक’ चलाने का। उन्होंने भाजपा, तृणमूल कांग्रेस, वाई.एस.आर. कांग्रेस, पंजाब में पूर्ववर्ती कांग्रेसी और अब भाजपाई कै. अमरिंदर सिंह को चुनाव लड़ा और जिताकर ‘इलेक्टोरल मैनेजमेंट’ में अपनी योग्यता कमोबेश साबित भी की है। लेकिन वही काम प्रशान्त किशोर ने छोड़ दिया है। गो इसकी घोषणा शायद ही वह कभी करते हों।
‘सेफोलाजी’ न तो कभी उनका क्षेत्र रहा, न उन्होंने कभी इसका दावा किया। पर जाने कब उनके किसी पुराने ग्राहक को उनकी विशेषज्ञता की और उस विशेषज्ञता के ही हवाले से उनकी भविष्यवाणियों की, ‘सेफोलाजिस्ट’ प्रशान्त किशोर की जरूरत पड़ जाए और वह प्रशान्त किशोर से इसकी मांग करने लग जाएं। या कि स्वयं प्रशान्त किशोर अपने किसी ग्राहक या अपने वैचारिक सखा को मुश्किल में पाकर उसकी मदद के लिए अपनी विशेषज्ञता का इस्तेमाल करने को उद्धत हो पड़ें। सो इन दिनों वह ‘सेफोलाजी’ पर उतर आए हैं, खासकर चालू लोकसभा चुनावों में पांचवें चरण के मतदान के आसपास। वरना आप केवल बिहार में उनके जनसुराज अभियान से इसका पता पा सकते हैं कि इलेक्टोरल मैनेजमेंट अब उनके लिए बीते दिनों की बात है और उनका वर्तमान तो नहीं पर आगत, इलक्टोरल पॉलिटिक्स है।
एक वक्त था जब योगेन्द्र यादव भी चुनाव विश्लेषण किया करते थे। ‘सेफोलाजी’ छोड़ तो उन्होंने भी दी है, पर एक तो बार-बार वह इसकी घोषणा करते रहते हैं और दूसरे कि प्रशान्त किशोर से उलट योगेन्द्र यादव की विशेषज्ञता ‘सेफालाजी’ में रही है। अलबत्ता एक बात दोनों में समान है कि दोनों अब खालिस राजनीतिक कार्यकर्ता है, यह और बात है कि योगेन्द्र यादव की एक विचारधारात्मक, एक राजनीतिक ट्रेनिंग रही है। प्रशान्त किशोर की ऐसी कोई ट्रेनिंग कम से कम मुझे तो मालूम नहीं। तो योगेन्द्र अपनी ट्रेनिंग से ही अनवरत राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, और विनोद दुआ के जमाने के दूसरे मशहूर ‘सेफोलाजिस्ट’ भी। शायद एक समानता दोनों में और है कि दोनों चालू आम चुनावों के बाद सरकार, भाजपा-एन.डी.ए. की ही बनवा रहे हैं-प्रशान्त भाजपा को 280 से 300 सीटें मिलती देख रहे हैं और योगेन्द्र उससे तीसेक सीटें कम।
इन संसदीय चुनावों में डर इसीलिए पहली बार लगा कि बिना किसी ट्रेनिंग के एक ‘इलेक्टोरल मैनेजर’ ने चुनावी भविष्यवाणियां शुरू कर दी, जैसे तमाम वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स, वंडर विंग्स सेनेटरी नैपकिन या किसी और मल्टीनेशनल कम्पनी का कोई और उत्पाद बेचने लग जाएं। अब ऐश्वर्य राय और लारा दत्ता जैसों को धड़ाधड़ विज्ञापन तो मिलते ही हैं और उनका असर भी होता ही है। सो प्रशान्त किशोर को भी हाथो-हाथ लिया गया। उनके भी धड़ाधड़ इंटरव्यू चलने लगे, बल्कि इस कदर कि वह करीब-करीब प्रधानमंत्री से होड़ करने लगे।
इन भविष्यवाणियों की एक पीठिका थी। चालू लोकसभा चुनावों में चार-पांच चरण में मत-प्रतिशत में चहुंओर और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपील में ‘सिग्निफिकेंट’ गिरावट और एन.डी.ए. नहीं, बल्कि मोदी -अमित शाह की बी.जे.पी. के बमुश्किल 200 का आंकड़ा छू पाने के खासकर वेब पोर्टलों और यू-ट्यूब चैनलों से उपजे भय और ‘अबकी बार, चार सौ पार’ के मद्धिम होते भाजपाई नारों के शोर में प्रशान्त किशोर ने ये भविष्यवाणियां की थीं।
दिलचस्प यह कि खुद उन्होंने भी ताबड़तोड़ प्रसारित इंटरव्यूज में माना है कि नरेन्द्र मोदी का जादू ढला है, लेकिन अगली ही सांस में वह दावा करते हैं कि ‘पश्चिम और उत्तर भारत में बी.जे.पी. का कोई खासा नुकसान नहीं होने जा रहा। और खासा नुकसान मतलब 50 या इससे अधिक सीटों का नुकसान। संभव है, प्रशान्त किशोर मानते हों कि कर्नाटक में बी.एस. येदुरप्पा से, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान से, राजस्थान में वसुन्धरा राजे से निबट लेने से, छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रहे रमन सिंह को विधानसभा अध्यक्ष और महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री रहे देवेन्द्र फडणवीस को उप-मुख्यमंत्री बनाकर उनके पर कतर देने से और उत्तर प्रदेश में चुनाव तक योगी आदित्यनाथ को ‘गुड ह्यूमर’ में रखने की चालाकी से भाजपा की चुनावी संभावनाओं पर कोई ‘खासा असर’ होने से तो रहा और जो भी 50 से 55 सीटों का नुकसान होगा, पार्टी पूर्वी और दक्षिणी भारत से उसकी भरपाई कर लेगी।
लगे हाथ बता दें कि पूर्वी और दक्षिणी भारत से उनका आशय मोटे तौर पर सात राज्यों से है और वे हैं – बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल। कमाल यह कि भरपाई वाले इन 7 राज्यों में प्रशान्त किशोर बिहार को भी शामिल कर रहे हैं, जहां की 40 लोकसभा सीटों में से 39 भाजपा और उसकी सहयोगी जद-यू 2019 में ही जीत चुकी है और यहां से गुंजाइश, नीचे जाने की ही है। वैसे सीटें कमोबेश घटने की ऐसी गुंजाइश केवल बिहार में नहीं, बिहार के साथ-साथ गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे 11 राज्यों में भी है, जहां की कुल 318 सीटों में से 287 सीटें भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां 2019 में ही जीत चुकी हैं।
डर इसलिए कम नहीं हुआ कि ई.वी.एम. पर या कि चुनाव आयोग पर भरोसा घटा है। जिस देश में चुनाव आयोग की नियुक्ति के तीन-सदस्यीय पैनल से कानून बनाकर मुख्य न्यायाधीश को हटा दिया जाता हो और उनके स्थान पर पी.एम. द्वारा नामजद एक केबिनेट मंत्री को शामिल कर पैनल में केन्द्र सरकार का स्थायी बहुमत बना लेने की बेशर्म व्यवस्था लागू कर दी जाती हो, जहां इसी स्थायी बहुमत के आसरे, आम चुनावों से ऐन पहले केन्द्र सरकार दो-दो चुनाव आयुक्त नियुक्त कर देता हो, जहां ई.वी.एम. पर तमाम संदेहों के बावजूद चुनाव आयोग, राजनीतिक दलों को मुलाकात करने और अपनी बात रखने का वक्त तक देने की जरूरत नहीं महसूस करता हो और जहां आदर्श आचार संहिता केवल विपक्षी पार्टियों के नेताओं के लिए बच गया हो, वहां यह भरोसा बच पाना मुश्किल ही है।
फिर भी डर कम हुआ है तो इसका कारण बस इतना है कि चाहे आयोग या ई.वी.एम. कुछ भी कर ले, वह गुजरात में सत्तारूढ़ पार्टी को 26 में से 50, या राजस्थान में 25 में से सत्ता की पार्टी को 25 से ज्यादा या दिल्ली-हरियाणा की कुल जमा 17 सीटों में 35 सीटें तो किसी हालत में नहीं दिलवा सकता। और फिर से कह दूं कि सत्तारूढ़ भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां बिहार, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे 11 राज्यों की कुल 318 सीटों में से 287 सीटें 2019 में ही जीत चुकी हैं और यहां से आगे केवल वह ढलान है, जिस पर बस नीचे उतरना संभव है। बल्कि मजबूरी। प्रशान्त किशोर को इन 11 राज्यों में ‘कुछ खास’ नुकसान होता नहीं दिखता। उन्होंने तो इस नुकसान को ‘क्वांटीफाई’ करते हुए इसे ‘50 या इससे कुछ ही ज्यादा’ बताया भी है।
प्रशान्त किशोर जैसा विज्ञजन मुश्किल में फंसे किसी राजनीतिक दल के हक में ताबड़तोड़ इंटरव्यू देने लगे और तथ्यों की अवमानना कर उसके नुकसान को ऐसे ‘क्वांटीफाई’ करने लगे तो यह उसका राजनीतिक पक्ष हो सकता है या उसकी जिद हो सकती है, उसका अनुमान यह कतई नहीं हो सकता। अब यह तो संभव नहीं कि प्रशान्त किशोर इस तथ्य से नावाकिफ हों कि लोकसभा की 18 सीटें तो एन.डी.ए. ने नवम्बर 2019 में ही खो दी थी, जब शिवसेना ने भाजपा से अलग होकर एन.सी.पी. और कांग्रेस के सहयोग से महाराष्ट्र में सरकार बना ली थी। मई 2019 के संसदीय चुनावों में राज्य की 48 लोकसभा सीटों में से भाजपा नीत गठबंधन ने 41 सीटें जीती थी तो उसमें 18 का योग शिवसेना का भी था और अक्टूबर 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों के बाद भाजपा के साथ 35 साल पुराना गठबंधन टूटते ही लोकसभा में एन.डी.ए. के केवल 335 सदस्य बचे थे।
लिहाजा, प्रशान्त किशोर 11 राज्यों में केवल 38 और 40 की गिरावट संभव मानते हैं, जो राजनीतिक हकीकत से परे दिखता है। अकेले हरियाणा, दिल्ली, कर्नाटक, राजस्थान, और बिहार में भाजपा को 2019 के चुनावों में मिली सीटों में यह नुकसान 45 से कम नहीं है और गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ के नुकसान अलग, चाहे वह न्यूनतम ही क्यों न हो। चुनांचे भाजपा को सरकार बनाने के लिए, प्रशान्त किशोर की मानें तो पूर्वी और दक्षिणी भारत में 70-71 सीटें जीतनी होगी।
ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में बढ़त की गुंजाइश भी है, पर इन तीन राज्यों में भाजपा ने 2019 के चुनावों में भी कुल 63 में से 12 सीटें जीत ली थी। नयी बात केवल यह कि चालू चुनावों में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में चन्द्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी से उसका गठबंधन है। लेकिन अविभाजित आंध्र प्रदेश की 42 सीटों के लिए उसका यह गठबंधन तो 2014 में भी था और तब टी.डी.पी. के कंधे पर सवार भाजपा केवल 3 सीटें जीत सकी थी। अलबत्ता टी.डी.पी. ने तब 16 सीटें जीतने में सफलता हासिल की थी। इन चुनावों में भी ठोस लाभ टी.डी.पी. को ही होने की संभावना है। यह और बात है कि 2014 में न तो तेलंगाना पृथक राज्य बना था और न तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार।
यानि प्रशान्त किशोर की चालाकी यह है कि एक तरफ वह पश्चिमी और उत्तरी राज्यों में भाजपा के नुकसान को कम करके आंकते हैं और दूसरी तरफ पूर्वी और दक्षिणी राज्यों में भाजपा की जीत की संभावनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर। आखिर नुकसान को कम और संभावनाओं को अधिक आंकने से ही तो भरपाई संभव होगी। और कोई प्रशान्त किशोर से यह पूछने से तो रहा कि अगर आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में भी भाजपा-एन.डी.ए. 45 नहीं, 50 सीटें भी जीत जाये, तो शेष 20 से 21 सीटें उसे तमिलनाडु और केरल में जीतनी होगी, जहां इन चुनावों में न तो उसका किसी दल से समझौता है, न अकेले 1 या 2 सीट से आगे बढ़ने की उसकी वकत। यह लगभग वैसे ही है कि आप संसद से शुरू कर बाहर तक ‘अब की बार, 400 पार’ का नारा लगाने लगें और कोई यह तक न पूछे कि 2004 से अब तक अगर कांग्रेस और भाजपा ने मिलकर अधिकतम 355 सीटें जीती हैं, तो पुलवामा -बालाकोट की अनुपस्थिति में और खुद पी.एम. के प्रभाव में क्षरण के बाद भी वह क्या है जो इस बार इस रिकार्ड को तोड़ देनेवाला है।
मतगणना के चरणों में डर इन्हीं वजहों से कम है – पी.एम. और पी.के. के ताबड़तोड़ इंटरव्यूज और उनके अविरल प्रसारण के बावजूद। लेकिन मतदान के सातों चरण खत्म होने के बाद क्या प्रशान्त किशोर के ताबड़तोड़ इंटरव्यूज से उपजा डर वास्तव में अंतिम चरण के मतदान के बाद घिरते आशंका के बादलों की भूमिका भर है। और कहीं डर की यह आंधी ‘एक्जिट पोल’ के नाम पर ‘एम्बेडेड चैनलों-अखबारों’ में बैठे, प्रशान्त किशोर के ही भाई-बिरादर एंकर-पत्रकारों के अनाप-शनाप आकलनों के सहारे ही तो नहीं शुरू होने जा रही।
(राजेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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