मोदी सरकार ने सोमवार 1 मई 23 को सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि वह भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए की फिर से जांच करने की प्रक्रिया में है और उक्त प्रक्रिया एडवांस स्टेज में है। चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस जे.बी. पारदीवाला की पीठ के समक्ष भारत के अटार्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने यह दलील तब दी, जब पीठ भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत 152 साल पुराने राजद्रोह कानून को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
आईपीसी की धारा 124ए के अनुसार- “जो कोई भी, मौखिक या लिखित शब्दों द्वारा, या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा, घृणा या अवमानना करता है या लाने का प्रयास करता है, या उत्तेजित करता है या भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष भड़काने का प्रयास करता है, वह आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकता है, या कारावास से, जो तीन वर्ष तक का हो सकता है, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकता है, या जुर्माने से दंडित किया जाएगा।”
एजी द्वारा प्रस्तुत किए जाने के बाद कि सरकार ने धारा 124ए की फिर से जांच करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है और इसके बारे में सलाह मशवरा एडवांस स्टेज में है। पीठ ने अगस्त में मामले की सुनवाई करने का फैसला किया। याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि अदालत को यह तय करना है कि क्या इस मामले पर सात-न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष बहस की जानी है क्योंकि केदार नाथ बनाम बिहार राज्य में निर्णय, जो पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा तय किया गया था, वह वर्तमान याचिका के रास्ते में खड़ा है।
केदार नाथ के फैसले में कहा गया था कि कानून द्वारा स्थापित सरकार राज्य का दृश्य प्रतीक है और अगर कानून द्वारा स्थापित सरकार को उलट दिया गया तो राज्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा, इसलिए इसने आईपीसी की धारा 124ए की वैधता को बरकरार रखा। मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आईपीसी की धारा 124ए को तब तक प्रभावी रूप से स्थगित रखा जाना चाहिए जब तक कि केंद्र सरकार इस प्रावधान पर पुनर्विचार नहीं करती।
इससे पहले, बीते साल 31 अक्तूबर को शीर्ष अदालत ने देशद्रोह कानून की समीक्षा के लिए सरकार से उचित कदम उठाने के लिए कहा था। इसके लिए सरकार को अदालत ने अतिरिक्त समय भी दिया था।इस कानून को लेकर ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ द्वारा दायर याचिका सहित कई अन्य याचिकाएं भी शीर्ष कोर्ट में लंबित हैं।
इससे पहले, बीते साल 31 अक्तूबर 22 को शीर्ष अदालत ने देशद्रोह कानून की समीक्षा के लिए सरकार से उचित कदम उठाने के लिए कहा था। इसके लिए सरकार को अदालत ने अतिरिक्त समय भी दिया था। साथ ही देशद्रोह कानून और एफआईआर के परिणामी पंजीकरण पर रोक लगाते हुए शीर्ष कोर्ट अपने 11 मई के निर्देश को बढ़ा दिया था। बीते साल अक्तूबर में केंद्र सरकार ने पीठ से समीक्षा के लिए कुछ और समय मांगते हुए कहा था कि संसद के शीतकालीन सत्र में भी इसपर कुछ हो सकता है।
गौरतलब है कि 2022 में इस कानून को ताक पर रखते हुए तत्कालीन सीजेआई एन वी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने आदेश दिया था कि नई प्राथमिकी दर्ज करने के अलावा, इस कानून के तहत दर्ज मामलों में चल रही जांच, लंबित परीक्षण के साथ ही राजद्रोह कानून के तहत सभी कार्रवाई स्थगित रहेंगी।
पीठ ने कहा था कि आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) की कठोरता वर्तमान सामाजिक परिवेश के अनुरूप नहीं है। पीठ ने इसके इस प्रावधान पर पुनर्विचार की अनुमति दी थी। पीठ ने कहा था कि हम उम्मीद करते हैं कि जब तक प्रावधान की फिर से जांच पूरी नहीं हो जाती, तब तक सरकारों द्वारा कानून के पूर्वोक्त प्रावधान के उपयोग को जारी नहीं रखना ही उचित होगा।
1951 में पंजाब हाईकोर्ट और 1959 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने धारा 124ए को असांविधानिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जड़ें काटने वाला माना।
1962 में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में कहा कि सरकार या राजनीतिक दलों के खिलाफ दिए वक्तव्य गैर-कानूनी नहीं होते। लेकिन जन व्यवस्था बिगाड़ने वाले वक्तव्य देशद्रोह की श्रेणी में आएंगे।
विधि आयोग की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि 1837 में आईपीसी का ड्राफ्ट बनाने वाले अंग्रेज अधिकारी थॉमस मैकॉले ने देशद्रोह कानून को धारा 113 में रखा। लेकिन किसी भूलवश इसे 1860 में लागू आईपीसी में शामिल नहीं किया जा सका। 1870 में विशेष अधिनियम 17 के जरिये सेक्शन 124ए आईपीसी में जोड़ा गया। यह ब्रिटेन के ‘देशद्रोह महाअपराध अधिनियम 1848’ की नकल था, जिसमें दोषियों को सजा में तीन साल की कैद से लेकर हमेशा के लिए सागर पार भेजना शामिल था।
(जे.पी.सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं)
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