चंदौली। चंदौली ज़िले के ताहिरपुर और मिल्कीपुर गांव एक बार फिर सत्ता बनाम जनता की लड़ाई के मूक गवाह बन गए। कुछ ही रोज पहले सुबह जब लोग अपने खेतों में काम में लगे थे और कुछ घरों में रोज़मर्रा की तैयारियों में व्यस्त थे, तभी एक सरकारी टीम बिना किसी पूर्व सूचना के बुलडोज़र लेकर पहुंच गई। मक़सद था ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू करना, लेकिन गांववालों ने वह कर दिखाया जो शायद सरकार ने सोचा भी नहीं था।
भारी पुलिस बल और बुल्डोज़र के साथ जैसे ही प्रशासनिक अधिकारी अचानक मिल्कीपुर की विवादित ज़मीन पर पहुंचे, गांव में हलचल मच गई। खबर मिलते ही सैकड़ों मछुआरे और ग्रामीण अपने खेत-खलिहान छोड़कर मौके पर पहुंच गए। आंखों में आक्रोश, ज़ुबान पर दृढ़ता और दिलों में अपनी मिट्टी के लिए अथाह प्रेम लिए लोगों ने अफसरों को चारों ओर से घेर लिया।

ग्रामीणों की एक ही आवाज़ गूंज रही थी, “ज़मीन हमारी है, इसे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेंगे। ज़बरदस्ती करनी है तो पहले हमें कुचलो, फिर ज़मीन लेना!” इसी बीच, एक बुज़ुर्ग महिला की कांपती आवाज़ ने सबको स्तब्ध कर दिया। उसकी आंखों से बहते आंसुओं के साथ निकले शब्द थे, “बेटा, इसी मिट्टी में मेरे पति की राख मिली है… क्या अब तुम हमें उनसे भी जुदा कर दोगे?” महिला के आंसुओं ने वहां खड़े हर शख्स को भीतर तक झकझोर दिया।
मुगलसराय के एसडीएम अनुपम मिश्रा के अलावा तहसीलदार, लेखपाल, थाना अध्यक्ष और चौकी प्रभारी समेत कई अधिकारी मौके पर थे। लेकिन प्रशासन के पास ग्रामीणों के सवालों का कोई जवाब नहीं था। न कोई नोटिस, न आदेश, न मुआवज़े की घोषणा। जवाब में सिर्फ़ एक रटा-रटाया वाक्य “यह ज़मीन बंदरगाह के लिए चाहिए।” ग्रामीणों का साफ तौर पर कहना था कि “हम न मुआवज़ा स्वीकार करेंगे, न जमीन का अधिग्रहण होने देंगे। समूची प्रक्रिया गुपचुप तरीके से हो रही है। यह ज़मीन हमारे पूर्वजों की विरासत है, हमारी पहचान है। इसे आप यूं ही नहीं ले सकते।”

बात यहां तक पहुंच गई कि ग्रामीणों ने बुलडोज़र को धकेलकर वापस जाने पर मजबूर कर दिया। उनके विरोध ने यह साफ़ कर दिया कि बिना जनसहमति, बिना पारदर्शिता और बिना न्याय, कोई भी विकास लोगों पर थोपा नहीं जा सकता। प्रशासन को अंततः खाली हाथ लौटना पड़ा। एसडीएम अनुपम मिश्रा ने माना कि बिना मुआवज़ा कोई कार्रवाई नहीं होगी, लेकिन ग्रामीणों के मन में सवाल अब भी गूंज रहा है “बिना सूचना, बिना दस्तावेज़, बिना सहमति अगर बुलडोज़र भेजा गया, तो यह क्या लोकतंत्र है या कोई छिपी हुई तानाशाही?”
घटना की सूचना मिलने पर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनोज सिंह ‘काका’ अपने कार्यकर्ताओं के साथ मौके पर पहुंच गए। उन्होंने भी ग्रामीणों के साथ मिलकर धरना दिया और प्रशासन की कार्रवाई की निंदा करते हुए कहा, “पुलिस बल के सहारे किसानों की ज़मीन लेना अलोकतांत्रिक और अन्यायपूर्ण है। जब तक किसानों को उचित मुआवज़ा और सम्मानजनक सहमति नहीं मिलेगी, तब तक हम इसका विरोध करते रहेंगे। पुलिस बल के दम पर ज़मीन कब्ज़ाने की ये मंशा किसान विरोधी है।”
ग्रामीणों ने भी साफ़-साफ़ कहा है कि वे अपनी ज़मीन किसी भी कीमत पर नहीं देंगे और सरकार को चाहिए कि वह मामले की निष्पक्ष जांच करवाए। फिलहाल स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है। प्रशासन की अगली रणनीति क्या होगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है। ग्रामीण अपने रुख पर अडिग हैं और उनका कहना है कि वे अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाएंगे।
किसानों के सपनों पर हथौड़ा
कभी गंगा की लहरों पर जल परिवहन का सपना बहता था। सरकार ने बड़े वादों के साथ ऐलान किया था कि पूर्वांचल की जीवनरेखा कही जाने वाली गंगा, अब मालवाहन की नई धुरी बनेगी। इसी सपने को मूर्त रूप देने के लिए राल्हूपुर में एक बंदरगाह का निर्माण किया गया और दावा किया गया कि यह बंदरगाह पूर्वी भारत के व्यापार को दिशा देगा। गंगा की लहरों में जहाज़ लहराएंगे और गांव-गांव विकास पहुंचेगा, लेकिन आज वही बंदरगाह एक वीरान खंडहर बनकर खड़ा है। जैसे किसी मासूम के हाथों से टूटा हुआ खिलौना, जो अब न रो सकता है, न हंस सकता है।

बंदरगाह की दीवारों पर जंग खा चुकी लोहे की चादरें गवाह हैं उस खामोश विफलता की, जिसे ‘प्रगति’ कहकर शुरू किया गया था। जिन मशीनों की गूंज कभी संभावनाओं की घोषणा करती थी, आज वे मशीनें अपने जर्जर हो चुके ढांचे में मौन खड़ी हैं। राल्हूपुर, ताहिरपुर, मिल्कीपुर और रसूलगंजइन गांवों के लोग रोज इस वीराने को देखते हैं और सोचते हैं कि क्या यही था विकास?
इस असफल परियोजना की आड़ में अब एक नया प्रपंच रचा जा रहा हैफ्रेट विलेज के नाम पर चंदौली और मिर्जापुर के करीब ढाई हजार किसानों की ज़मीनें छीनी जा रही हैं। वह ज़मीनें, जिन पर कभी हल चला करते थे, अब सरकार के दस्तावेज़ों में किसी कॉर्पोरेट परियोजना की रेखाओं में तब्दील हो चुकी हैं। किसानों का आरोप है कि यह परियोजना उनके नाम पर नहीं, बल्कि बड़े पूंजीपतियों के लिए बनाई जा रही है।

20 नवंबर 2024 से बंदरगाह की ओर जाने वाले रास्ते पर धरना शुरू किया गया था, लेकिन बाद में अफसरों के समझाने पर आंदोलन खत्म कर दिया गया। मांझी समुदाय, बौद्ध अनुयायी और दलित किसान फ्रेट विलेज के मुद्दे पर सब एकजुट हैं। वे कहते हैं, “अगर सरकार हमारी बात नहीं सुनेगी, तो यह आंदोलन बनारस की धरती से दिल्ली की दीवारों तक गूंजेगा।”
पानी नहीं, फिर भी पाखंड
गंगा किनारे विकास के सपने को साकार करने के नाम पर जिस महत्वाकांक्षी परियोजना की आधारशिला रखी गई थी, वह आज पाखंड की प्रतीक बन चुकी है। भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (IWAI) द्वारा हल्दिया से वाराणसी तक जलमार्ग को क्रियाशील बनाने के लिए प्रस्तावित जलपोत परियोजना की बुनियाद ही झूठ पर टिकी थी क्योंकि गंगा में वैसा जलस्तर कभी था ही नहीं, जो इन जलपोतों के संचालन के लिए आवश्यक होता।
इसी परियोजना के तहत वाराणसी के समीप राल्हूपुर में एक विशाल बंदरगाह और अब एक ‘फ्रेट विलेज’ (Freight Village) की परिकल्पना की गई। लेकिन नदियों के जलस्रोतों को नजरअंदाज कर बनाई गई यह योजना जमीनी हकीकत से कोसों दूर थी। परिणामस्वरूप, बंदरगाह पर खड़ी करोड़ों की मशीनें आज खामोश हैं, लावारिस सी खड़ी होकर जंग खा रही हैं जैसे कोई सपना दम तोड़ चुका हो। राल्हूपुर में पहले ही किसानों की लगभग 70 एकड़ उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण हो चुका है। और अब मिल्कीपुर और ताहिरपुर गांवों में 121 बीघा जमीन को अधिग्रहित करने की तैयारी है।

IWAI यह दावा कर रहा है कि उसने मिल्कीपुर क्षेत्र में करीब 6.79 एकड़ जमीन खरीद ली है, लेकिन स्थानीय किसानों की मानें तो उन्हें दबाव, धमकी और बेदखली के भय में जीना पड़ रहा है। सिंचाई विभाग की जिन ज़मीनों को ‘बंजर’ दर्ज किया गया था, उन्हें भी इस परियोजना में शामिल किया गया है, मानो सरकारी रिकॉर्ड में बंजर घोषित कर देना ही ज़मीन की ज़िंदा हकीकत को खत्म कर देता हो।
राल्हूपुर बंदरगाह और फ्रेट विलेज परियोजना पर ₹5,369.18 करोड़ का खर्च प्रस्तावित है। लेकिन यह सवाल अब और तेज़ी से उठ रहा है कि यह पैसा किसके लिए खर्च किया जा रहा है? जब न गंगा में पर्याप्त पानी है, न ज़रूरी आधारभूत ढांचा, तो फिर यह ‘विकास’ किसके हित में है? इस तथाकथित ‘विकास’ की कीमत किसानों की आजीविका, उनका घर, खेत और आत्मसम्मान चुका रहा है। उनके बच्चे अपने आंगन से बेदखल हो रहे हैं। उनके ख्वाब दरक रहे हैं।
गंगा नदी को जल परिवहन का प्रभावी माध्यम बनाने के उद्देश्य से भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (IWAI) वर्षों से हल्दिया से वाराणसी तक माल ढुलाई की योजना पर कार्य कर रहा है। इसी क्रम में रामनगर के राल्हूपुर क्षेत्र में ‘फ्रेट विलेज’ विकसित करने की एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना प्रस्तावित है। दावा किया जा रहा है कि यह एशिया का पहला फ्रेट विलेज होगा, जिसे यूरोप के लॉजिस्टिक मॉडल की तर्ज पर तैयार किया जा रहा है।
इस परियोजना में लॉजिस्टिक पार्क, वेयरहाउस, कार्गो हैंडलिंग यूनिट्स, रेलवे ट्रैक, इलेक्ट्रिक स्टेशन, पॉवर हाउस और मल्टीमॉडल टर्मिनल जैसी अत्याधुनिक सुविधाएं शामिल होंगी। लगभग 3,055 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाली इस परियोजना के लिए शुरुआत में 70 एकड़ भूमि की बात कही गई थी, लेकिन अब इसका विस्तार 100 एकड़ से अधिक तक कर दिया गया है।

हालांकि, इस परियोजना को लेकर कई सवाल भी उठ रहे हैं। सबसे बड़ी चिंता भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को लेकर है, जिसमें भेदभाव और पक्षपात के आरोप सामने आए हैं। मुस्लिम बहुल बाहरी इलाकों को अधिग्रहण की परिधि में शामिल किया गया है, जबकि ताहिरपुर और वाजिदपुर गांवों के दुर्गा मंदिर जैसे स्थलों को अधिग्रहण से बाहर रखा गया है। इससे सरकार पर धार्मिक आधार पर भूमि अधिग्रहण में भेदभाव करने के आरोप लगने लगे हैं।
परियोजना की पारदर्शिता पर भी प्रश्नचिह्न लगे हैं। राल्हूपुर बंदरगाह पर करोड़ों रुपये की लागत से लगाई गईं क्रेनें वर्षों से बिना उपयोग के जंग खा रही हैं, और अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि इन जलपोतों का व्यावसायिक उपयोग कब शुरू होगा?
सुप्रीम कोर्ट ने ‘विद्या देवी बनाम हिमाचल प्रदेश’ मामले में स्पष्ट किया है कि किसी भी नागरिक की भूमि बिना न्यायिक प्रक्रिया के अधिग्रहित करना संविधान के अनुच्छेद 300-A का उल्लंघन है। इस परियोजना के अंतर्गत कई किसानों की भूमि को अधिग्रहित किया गया, जिनमें कई लोगों को अभी तक मुआवजा तक नहीं मिला है। दलित किसानों का कहना है कि उनकी जमीनें सस्ते दामों में हड़पने की कोशिश हो रही है, जबकि पुनर्वास की कोई ठोस व्यवस्था नहीं की गई है।
वाराणसी के राल्हूपुर गांव में जिस मल्टीमॉडल टर्मिनल का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 नवम्बर 2018 को बड़े उत्साह के साथ किया था, वह आज खामोश और निष्क्रिय पड़ा है। पांच हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में फैले इस टर्मिनल पर लाखों रुपये की लागत से बनाई गई दो मोबाइल हार्बर क्रेन जंग खा रही हैं। जल मार्ग से माल ढुलाई के सपनों के साथ यहां लगाए गए 200 मीटर लंबे जेट्टी और लोडिंग उपकरण अब किसी परित्यक्त स्मारक जैसे लगते हैं। अधिकारी यह तक बताने को तैयार नहीं कि इससे अब तक क्षेत्र को क्या लाभ हुआ, और न ही यह स्पष्ट है कि इन परियोजनाओं से किसी स्थानीय किसान को रोज़गार या मुआवज़ा मिला या नहीं।
बनारस-कोलकाता जलमार्ग पर बीते चार वर्षों में कोई उल्लेखनीय जलयान परिचालन नहीं हो पाया है। जिस परियोजना पर करोड़ों की धनराशि व्यय की गई, उसने न लाभ दिया, न रोजगार। किसान, जिनकी उपजाऊ ज़मीनें इस योजना की भेंट चढ़ गईं, अब यह पूछ रहे हैं कि जब गंगा में जल परिवहन के लिए पर्याप्त पानी ही नहीं है, तो उनकी ज़िंदगियां क्यों उजाड़ी गईं?
चिंताजनक है गांगा की स्थिति
मौजूदा समय में गंगा की वास्तविक स्थिति काफी चिंताजनक है। गंगा के जल स्तर में वर्ष 2024 की तुलना में 2025 में 40 सेंटीमीटर तक की गिरावट दर्ज की गई है। पिछले दो वर्षों में यह कुल गिरावट 78 सेंटीमीटर तक पहुंच चुकी है। घाटों की सीढ़ियां जिन्हें गंगा की लहरें कभी स्पर्श करती थीं, अब उनसे बहुत पीछे रह गई हैं। 2024 में अस्सी घाट से गंगा की दूरी 300 मीटर थी, जो अब 308 मीटर हो चुकी है। गंगा के बहाव की दिशा में भी परिवर्तन देखा जा रहा है। रेत के टीले अब समय से पहले उभरने लगे हैं, और रामनगर से पूरब की ओर खिसकती रेत गंगा के प्रवाह में हो रहे बदलाव की मूक साक्षी है।
डोमरी, बलुआ, और राजघाट जैसे घाटों पर जहां पहले जून-जुलाई में रेत के टीले दिखाई देते थे, अब मई के महीने में ही ये दृश्य आम हो चले हैं। घाटों पर शैवाल की मात्रा बढ़ रही है, जिससे फिसलन की स्थिति बन रही है, और गंगा आरती जैसी सांस्कृतिक परंपराएं भी प्रभावित हो रही हैं। पानी की घुलनशीलता घट रही है, घुलित ऑक्सीजन की मात्रा में गिरावट आई है, और प्रदूषण स्तर लगातार बढ़ रहा है।
बीएचयू और आईआईटी बीएचयू द्वारा 2022 में किए गए शोधों में यह चेतावनी दी गई थी कि आगामी वर्षों में गंगा का तापमान 0.05 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। अब 2025 में यह आशंका सत्य होती प्रतीत हो रही है। प्री-मॉनसून में गंगा का तापमान 21.6 डिग्री से ऊपर दर्ज हो रहा है, मानसून में यह 26.41 डिग्री तक पहुंच रहा है और पोस्ट-मॉनसून में भी 18.81 डिग्री से नीचे नहीं जा रहा। यह सब कुछ संकेत कर रहे हैं कि गंगा अब केवल बहती नहीं, कराहती है।
बीएचयू के नदी वैज्ञानिक प्रोफेसर बी.डी. त्रिपाठी, जो गंगा पारिस्थितिकी के विशेषज्ञ माने जाते हैं, स्पष्ट रूप से कहते हैं, “गंगा का इकोसिस्टम बीते 20 वर्षों में असाधारण रूप से बदला है। जो परिवर्तन पहले जून में दिखते थे, वे अब मई में ही सामने आने लगे हैं। यह एक पर्यावरणीय आपदा का संकेत है। गंगा में जलधारा की चौड़ाई और गहराई अब जलयानों के संचालन के योग्य नहीं बची है। जलयान चलाने के लिए गंगा में लगातार ड्रेजिंग की ज़रूरत पड़ेगी, जो न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएगा बल्कि यह आर्थिक रूप से भी व्यावहारिक नहीं है। गंगा का संकट केवल जल संकट नहीं है, यह हमारे पूरे सामाजिक और पारिस्थितिकीय ताने-बाने का संकट है। अगर हम अब भी नहीं चेते, तो विकास के नाम पर गंगा और उसके सहायक जीवन-तंत्र को हमेशा के लिए खो देंगे।”
टूट रहे बेबस किसानों के सपने
उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले में गंगा के किनारे बसे ताहिरपुर और मिल्कीपुर के किसान और मछुआरे अब अपने ही घरों में बेघर होने का डर लिए बैठे हैं। उनकी जमीने, जो पीढ़ियों से उनकी पहचान और जीवन का आधार रही हैं, अब सरकार की फ्रेट विलेज योजना के कारण उजड़ने लगी हैं। यह योजना, जो गंगा में जल परिवहन को बढ़ावा देने के नाम पर लाई गई थी, अब उनकी जड़ों को उखाड़ने का माध्यम बन गई है। 20 नवंबर 2024 से किसान-बस्ती के लोग इस अन्याय के खिलाफ बेमियादी धरने पर बैठे हैं।
42 वर्षीय बृजेश साहनी के चेहरे पर थकान और घोर निराशा साफ झलकती है। वह कहते हैं, “जब ये बंदरगाह बन रहा था, तो हमने सोचा कि रोजगार मिलेगा, जिंदगी में कुछ बदलाव आएगा। गंगा की लहरों से हमारा जीवन जुड़ा है, उम्मीद थी कि जल परिवहन से हमारे जीवन में भी बहार आएगी। पर उल्टा, गंगा में जहाज नहीं चले, और अब ये अफसर आए दिन हमें धमका कर चले जाते हैं। कहते हैं अपनी जमीन खुद खाली करो नहीं तो बुलडोजर चलाएंगे।”
मल्लाह समाज के पास करीब 70 नौकाएं हैं, जिनसे उनका और उनके परिवार का गुजारा चलता है। बृजेश की आवाज़ में दर्द छुपा नहीं है, “हमारी जमीनें हमारी पहचान हैं। उन खेतों में उगने वाला धान-गेहूं ही हमारी रोटी है। अब सब छिन जाएगा। हमारी बस्ती उजड़ जाएगी। हमारे पूर्वज यहीं दफन हैं, हम क्या करें और कहां जाएं? “
गंगा की लहरों से जुड़े मछुआरे और किसान अब विकास के नाम पर अपनी जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ताहिरपुर और मिल्कीपुर की मल्लाह बस्तियों में अब केवल घबराहट और गुस्सा है। 48 वर्षीय शीतल प्रसाद साहनी के पास मात्र 15 बिस्वा जमीन है, जिससे वे 12 लोगों के परिवार का पेट पालते हैं। उनकी आवाज़ में गुस्सा और बेबसी दोनों है, “सरकार जो मुआवजा दे रही है, उससे तो एक नई छोपड़ी भी नहीं बन सकती। हमारी जमीनें छिन जाएंगी तो हम कहां जाएंगे? यहां रहकर मछली पकड़ते हैं, खेती करते हैं, लेकिन सरकार हमारी जिंदगी की बुनियाद को पूंजीपतियों के हवाले कर रही है। ये हमारी विरासत की हत्या है।”
यह समस्या केवल ताहिरपुर और मिल्कीपुर तक सीमित नहीं है। छोटे मिर्जापुर, नरायनपुर और चुनार तक फ्रेट विलेज का दायरा बढ़ाने की योजना है, जिससे और भी सैकड़ों परिवार बेघर हो जाएंगे। खेती, मत्स्य पालन, पशुपालन और बुनकरी जैसे छोटे-छोटे धंधे खत्म हो जाएंगे। किसानों की आवाज़ में दर्द है, “हमारे खेत-खलिहान ही हमारी जिंदगी हैं। सरकार हमें जड़ से उखाड़ फेंकना चाहती है। हम आखिरी सांस तक लड़ेंगे।”
सरकार ने इस परियोजना के लिए अरबों रुपये खर्च किए हैं, लेकिन सवाल ये उठता है कि यह पैसा किसके लिए है? किसानों का मानना है कि यह योजना केवल बड़े कारपोरेट घरानों के लिए है। बृजेश कहते हैं, “यह विकास नहीं, विनाश है। हमारी जमीनें छीनकर बड़े-बड़े कॉरपोरेट्स को दी जा रही हैं। हमारी मेहनत और जिंदगी की लूट हो रही है। लेकिन हम इसे सहन नहीं करेंगे।”
गंगा के किनारे ताहिरपुर का गांव, जहां कभी सुबह गंगा की पवित्र लहरों के साथ उम्मीदें खिलती थीं, आज वहां सिर्फ एक खालीपन है। यहां के लोग अपनी जमीनों और अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं। बालचरण, जो दलित बस्ती में रहता है, अपनी पीड़ा छुपा नहीं पाता, “हमारी कई पीढ़ियां यहां मर गईं, पर जिंदगी में कोई खुशहाली नहीं आई। सत्ता के कई रंग बदले, पर हमारे हिस्से बस गरीबी और बेरंग जिंदगी आई। मुश्किल से घर बनाया था, वो भी छिन जाएगा, कहां जाएं हम?”
बालचरण की बातें भीतर तक झकझोर देती हैं। वह कहते हैं, “सरकार जो मुआवजा दे रही है, उससे तो नई जमीन खरीदना या घर बनाना नामुमकिन है। हमारी जमीनें जबरदस्ती छीनी जा रही हैं, जबकि यहां की जमीनें बाजार में तीस लाख रुपये बिस्वा बिक रही हैं। ये अन्याय क्यों?” पास में खड़ी 32 वर्षीया अनीता की आंखें आंसुओं से भर आई हैं। वह कहती हैं, “हमारे चार बच्चे हैं, पति मजदूरी करते हैं। अगर जमीन छिन गई तो बच्चों का पेट कैसे भरेगा? बिना हमारी अनुमति के सरकार ने फरमान सुना दिया कि जमीन खाली करनी होगी। हम गंगा से दूर हो गए तो मछली कैसे पकड़ेंगे? “
ताहिरपुर की बेबी, जो ऑटो रिक्शा ड्राइवर की पत्नी है। वह अपने गुस्से को छुपा नहीं पाती। कहती हैं, “सरकार बताए कि हम कहां जाएं? अगर हमारी जमीन और घर ले रही है, तो कब्र खुदवा दे और उसमें हमें गाड़कर हमारी जमीन ले जाए। हम अपनी जान देंगे, पर जमीन नहीं छोड़ेंगे। जब भी बुलडोजर आएगा हम उसके सामने लेट जाएंगे।”
मिल्कीपुर के पूर्व प्रधान भाईराम साहनी का गुस्सा और दर्द मुखर है, “जब गंगा में जहाज चलाने के लिए पानी नहीं है, तो यह फ्रेट विलेज किसके लिए बनाया जा रहा है? हमारी जमीनें इतने कम दाम पर पूंजीपतियों को क्यों दी जा रही हैं? हमने कई बार आवाज़ उठाई, धरना दिया, मगर अफसरों और सत्तारूढ़ दल के नेताओं को परवाह नहीं। लगता है कि उन के पास पास दिल नहीं है। वे हमारी मेहनत और जिंदगी की नहीं, अपनी नौकरी और पूंजीपतियों के फायदे की चिंता करते हैं। अच्छा होगा कि हमें यहीं गाड़ दें और हमारी जमीनें ले जाएं।”

फ्रेट विलेज योजना किसानों और मछुआरों के सपनों की कब्र बन चुकी है। उनके संघर्ष की आवाज़ें बस सड़कों और धरनों तक सीमित रह जाती हैं। अफसरशाही और पूंजीवाद ने उनकी जिंदगी बेरंग कर दी है। गंगा की गोद में पलने वाले ये लोग, जिन्होंने पीढ़ियों से गंगा के साथ अपना रिश्ता निभाया, अब उसी गंगा के किनारे अजनबी बने जा रहे हैं। भाईराम कहते हैं, “हमने प्रधानमंत्री मोदी को गंगा पुत्र समझकर वोट दिया था। उन्होंने कहा था कि वे गंगा के बुलावे पर आए हैं। पर अब वही हमारी जमीनें छीन रहे हैं। गंगा के पुत्र स्वार्थी नहीं होते। जब हमारी जमीनें छीन ली जाएंगी, तो हमें क्या मिलेगा? “
भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाले विनय मौर्य और अखिलेश सिंह बताते हैं कि ये जमीनें पहले बंजर थीं, जिन्हें लोगों ने खून-पसीना बहाकर उपजाऊ बनाया। “अब हमारी मेहनत से बनी ये जमीनें कारपोरेट घरानों के लिए छीनी जा रही हैं। मुआवजा इतना कम कि नई जमीन खरीदना या मकान बनाना असंभव है। हम कहां जाएं?पिछले साल जब हमने विरोध किया तो धमकी मिली कि अगली बार बुलडोजर लेकर आएंगे और हमारे घर गिरा देंगे। यह अन्याय कब तक सहा जाएगा?”
महेंद्र कुमार, इकबाल अहमद और आनंद कुमार कहते हैं, “हमारी जमीनें सिर्फ मिट्टी नहीं, हमारी आत्मा हैं। इन्हें छीनकर हमें ऐसा उजाड़ा जा रहा है जैसे हम इस देश का हिस्सा ही नहीं हैं।” मिल्कीपुर और ताहिरपुर के किसान अब एकजुट हो रहे हैं। गांव के प्रधान कन्हैया लाल राव कहते हैं, “हमारी जमीन पर कब्जा करने की कोशिश हो रही है। हमारे पास कुछ नहीं बचा। जमीन छिन जाएगी तो कहां जाएंगे? मछुआरों और किसानों के पास जमीन के अलावा कुछ नहीं होता। सब छिन जाएगा तो हम क्या खाएंगे, कहां जाएंगे?”
फ्रेट विलेज योजना के चलते बौद्ध विहार पर भी संकट है। तथागत विहार, जो शांति का प्रतीक है, खतरे में है क्योंकि इसे हटाने का अल्टीमेटम दिया गया है। यहां का अशोक स्तंभ, बोधिवृक्ष और ध्यान केंद्र खतरे में हैं। बौद्ध विहार से जुड़े प्रभाकर वर्धन सिंह कहते हैं, ” विकास की हर परियोजना केवल ईंट, कंक्रीट और लोहे की मशीनों से नहीं बनती, उसमें ज़मीन से जुड़ी आत्माओं और इंसानी गरिमा का जुड़ना भी आवश्यक होता है। सरकार विकास के नाम पर बौद्ध विहार के इतिहास मिटाना चाहती है।”
प्रभाकर कहते हैं, “सरकार और प्रशासन के लिए यह वक्त आत्ममंथन का है। विकास की अवधारणा तब तक खोखली है, जब तक वह उस व्यक्ति को न संभाल सके, जिसकी ज़मीन पर वह खड़ी की जा रही है। किसानों की पुकार को अनसुना करना, उनके आंसुओं और प्रतिरोध को नजरअंदाज करना, एक बड़ी चिंगारी को जन्म दे सकता है जो भविष्य में एक व्यापक जनांदोलन का रूप ले सकती है। इसलिए ज़रूरी है कि योजनाएं ज़मीन की सच्चाई से जुड़ें, और विकास का अर्थ किसानों को उजाड़ना नहीं, उन्हें सशक्त करना हो।”
“सरकार ने राल्हूपुर के बंदरगाह को ‘विकास’ कहने की ज़िद पाल ली है, जो ठीक नहीं है। यदि सरकार ने किसानों और मछुआरों की मुश्किलों का जल्द समाधान नहीं निकाला तो यह आंदोलन सिर्फ एक गांव तक सीमित नहीं रहेगा। यह संघर्ष गंगा किनारे बसे उन लाखों लोगों की आवाज़ बन जाएगा, जिनके खेत, घर, मंदिर, मस्जिद और बौद्ध विहार सत्ता के बुलडोज़र तले कुचले जा रहे हैं।”
आस्था और विरासत पर बुलडोज़र
चंदौली ज़िले के तथागत चैरिटेबल ट्रस्ट में बने बौद्ध विहार की पांच बीघा ज़मीन को प्रशासन ने “गैर-नामुमकिन” करार दे दिया है। यह वह जमीन है जिसे ट्रस्ट के लोगों ने वैध तरीके से खरीदा है। ये केवल ज़मीन का मामला नहीं है, यह उस धम्म की धरती की बात है जहां हर सुबह बुद्ध वाणी गूंजती है, जहां मछुआरे, किसान, बुनकर और साधक एक साथ जीवन का सत्य खोजते रहे हैं।
भिक्षुक बुद्ध ज्योति, धम्म ज्योति और दीप ज्योति का कहना है, “यह ज़मीन हमने बैनामा के ज़रिए खरीदी थी, एक-एक पैसे जोड़कर। मगर अब सत्ता के कुछ लोग अपने पूंजीपति दोस्तों को ज़मीन दिलाने के लिए हमारे बौद्ध विहार को मिट्टी में मिलाना चाहते हैं। क्या हमारी साधना, हमारा धर्म और हमारी आस्था अब मुनाफे के आंकड़ों से कम हो गई है? “
साहित्यकार विद्याधर, जो वर्षों से इस बौद्ध विहार से जुड़े हैं। वह कहते हैं, “यह सिर्फ़ बौद्ध धर्म का सवाल नहीं है। यह उस भारत की आत्मा का सवाल है जो विविधताओं में एकता की मिसाल रहा है। यहां रोज़ योग होता है और ‘जय भारत’ के स्वर गूंजते हैं। क्या फ्रेट विलेज बनाकर इन स्वरों को चुप करा दोगे? क्या करोड़ों की लागत से बने बंदरगाहों की खाली पड़ी ज़मीनें काफी नहीं हैं, जो गंगा किनारे बौद्ध परंपरा की नींव को ही उखाड़ फेंकना चाहते हो?”
विद्याधर सवाल उठाते हैं, “गंगा में जलपोत चलाने के लिए पर्याप्त जल है भी या नहीं? और जब हाईकोर्ट ने गंगा के 200 मीटर के भीतर निर्माण पर रोक लगा दी है, तो ये फ्रेट विलेज प्रस्ताव किस आधार पर रखा गया? क्या कानून अब सिर्फ़ अमीरों के लिए है, गरीबों के लिए नहीं? साल 2011 में ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गंगा से 500 मीटर तक स्थायी निर्माण पर रोक लगाई थी। तो फिर सरकार किस नीति के तहत गंगा तट को भी नहीं छोड़ रही? हमारी ज़मीनें किसी एक जाति की नहीं, यह धम्म की साझी थाती है, जिसे मौर्य, कुशवाहा, पटेल, कोइरी और दलित समुदाय ने मिलकर खड़ा किया है। जब सरकार मंदिरों को हाथ नहीं लगाती, तो फिर बौद्ध विहार क्यों निशाने पर है?”
सवाल कई हैं, लेकिन जवाब सरकार के पास नहीं है। बौद्ध विहार से जुड़े लोगों ने हाईकोर्ट की शरण ली है। कई किसानों ने भी हाईकोर्ट में याचिकाएं डाली हैं। फिलहाल ताहिरपुर और मिल्कीपुर में तनाव का माहौल है। चंदौली ज़िले के ताहिरपुर और मिल्कीपुर के किसानों, मछुआरों, मजदूरों और दलितों में एक अडिग विश्वास कि जब लोग अपनी अस्मिता और अपने अधिकारों के लिए एकजुट होते हैं, तो कोई भी ताक़त उन्हें हरा नहीं सकती। किसानों और मछुआरों का कहना है कि यह सिर्फ़ एक विरोध नहीं, यह ज़मीन से जुड़ी संवेदना और उनके अस्तित्व की लड़ाई है।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)