(उर्दू शायरी में विशिष्ट पहचान रखने वाले और मुशायरों में लोकप्रियता की बुलंदी हासिल करने वाले शायर राहत इंदौरी का आज मंगलवार को इंतक़ाल हो गया। उन्हें कोरोना वायरस के संक्रमण के कारण कल इंदौर के अरविंदो अस्पताल में दाख़िल कराया गया था। उन्होंने अपनी बीमारी की ख़बर खुद ट्वीट के जरिये दी थी। उनके निधन से अदब की दुनिया में रंज-ओ-ग़म की लहर छा गई है। उनकी शायरी में एक अलहदा क़िस्म का तेवर था। देश के मौजूदा सियासी हालात में उनके शेर बार-बार कोट किए जाते रहे हैं। आख़िर उन्हें यह कहने का मोराल और सलीक़ा हासिल था- “सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में/किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है”।
मुशायरों में राहत साहब के साथ एक पूरा सफ़र तय कर चुके एक बड़े और संजीदा शायर इक़बाल अशहर ने `जनचौक` के साथ अपनी संवेदनाएं साझा की हैं।)
शायरी का सुतून गिर पड़ा है। उनका जाना, मेरे लिए घर के किसी बड़े का चला जाना है। ख़बर सुनी तो देर तक बस रोता ही रहा। वे हमारे कुनबे के बड़ों में थे। वसीम साहब, मुनव्वर साहब की तरह। शायरी का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है।
राहत साहब सिर्फ़ बड़ा नाम ही नहीं थे, वे मुशायरों को संभालने वाले शायर थे। दिलों पर राज़ करने वाले शायर। लाखों-हज़ारों लोग उनके नाम पर उमड़े चले आते थे। मुशायरों में ही नहीं, कवि सम्मेलनों में भी। उन्होंने जिस तरह पूरी दुनिया में अदब का नाम रौशन किया, उसकी पूर्ति मुमकिन नहीं है। इस ख़ला को भरा नहीं जा सकता है।
राहत साहब को मैंने पहली बार 1980 में दिल्ली में लाल क़िले पर सामने की सफ़ में बैठ कर सुना था। पाँच साल बाद दिल्ली के टाउन हॉल में उनके साथ मुझे पहली बार मुशायरे में पढ़ने का मौका मिला। आपको हैरानी होगी कि राहत भाई जब मुशायरों की दुनिया में आए तो तरन्नुम में ही पढ़ते थे। काफ़ी ऊंचा ही पढ़ते थे, जैसे अल्ताफ़ ज़िया पढ़ते हैं। उन्होंने जल्दी ही महसूस किया कि उनके लिए तरन्नुम से बेहतर तहत होगा। तरन्नुम में पढ़ने वालों की यूँ भी भीड़ थी।

और उन्होंने अपना एक अलग अंदाज़ पैदा किया जो उनकी ख़ास पहचान बन गया। जब वो पढ़ते थे तो जानते थे कि आवाज़ से क्या काम लिया जा सकता है। आवाज़ से जादू भी पैदा किया जा सकता है, शोर भी, हैरानी भी। वह सब ज़ाहिर कर रहे थे। ऐसे समझिए कि उनका शेर हम पढ़ते तो फिर वह अलग हो जाता। उनका लिखने का लहजा भी अलग था जो उनके पढ़ने के लहजे के साथ एक मुकम्मल शक्ल हासिल करता। अस्ल में वे आवाज़ से तस्वीर बना रहे होते थे जो हमारे दिल में उतर रही होती थी।
राहत भाई की शायरी मल्टी-डाइमेंशनल है। उनके यहाँ रोमेंटिक छाप भी है। उनके यहाँ आयरनी है और कई दूसरे रंग भी। हाँ, यह सही है कि उनकी पहचान एक पॉलिटिकल शायर के तौर पर ज़्यादा है। अस्ल में वे स्कूल ऑफ `सेटायर के शायर` हैं। यागाना चंगेज़ी की तरह या मुज़फ़्फ़र हनफ़ी की तरह। उनकी रोमेंटिक पॉयट्री भी अच्छी थी। फिल्मों में लिखे उनके गीत भी मक़बूल हुए।
राहत भाई कलंदर थे। छोटों का ध्यान रखना उन्हें आता था। वे इस बात का ध्यान रखते थे कि छोटों को कोई परेशानी पेश न आए। ख़ासकर, यूपी और बिहार में जहाँ शायर 12 हों पर मंच पर 1200 लोग चढ़ जाते हैं, राहत भाई ध्यान रखते थे कि किसी शायर को बैठने में कोई परेशानी तो नहीं हो रही है। कीरतपुर (बिजनौर) के एक मुशायरे में मैं पीछे खड़ा हुआ था। उन्होंने देखा और तुरंत कहा कि वे मुशायरे से उठकर चले जाएंगे। मुझे तुरंत जगह दी गई। उन्होंने मुझे अपने से भी बेहतर जगह बैठाया।
सफ़र में भी वे इसी तरह सब का ख़्याल रखते थे। मुशायरों में शायरी की रुसवाई भी उन्हें बर्दाशत नहीं थी। कभी उन्हें लगा कि माहौल संजीदा नहीं है तो उन्होंने तुरंत नाराजगी जाहिर की। एक बार उन्होंने मुझे इसलिए ग़ज़ल पढ़ने से रोक दिया क्योंकि कुछ नौजवान इधर-उधर घूम रहे थे। उन्होंने मुशायरे के नाज़िम अनवर जलालपुरी से कहा कि वे पहले लोगों को सलीक़ा सिखाएं। वे थोड़े कड़वे और तुनक-मिज़ाज भी थे पर गुस्सा सही जगह पर करते थे।

राहत इंदौरी हमेशा ही एक मशहूर शायर रहे। लेकिन, एक दिलचस्प बात यह है कि कुछ साल पहले वे कपिल शर्मा के शो में आए तो उन्होंने नयी पॉपुलेरिटी गेन की। ऐसा भी एक बड़ा तबका जो शायरी से इतना परिचित नहीं होता, उस तक उनकी पहुंच हुई। 2012 में उन्होंने दुबई में जो मुशायरा पढ़ा, वह उनका सबसे ज़्यादा सक्सेसफुल कहा जा सकता है। उसकी 40-50 मिलियन व्यूवरशिप है। जैसा कि मैंने कहा कि एक सुतून गिरा है। धमाके की गूंज भी बहुत दूर तक होगी। वे बहुत कुछ छोड़ गए हैं। उन्होंने क़रीब 500 ग़ज़लें तो लिखी होंगी। उनका लिखा उर्दू और देवनागरी में उपलब्ध है।
(मशहूर शायर इक़बाल अशहर से जनचौक के रोविंग एडिटर धीरेश सैनी की बातचीत पर आधारित)
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राहत इंदौरी को `जनचौक` की तरफ़ से खिराज-ए-अक़ीदत के तौर पर उनके ही अशआर :
अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो, जान थोड़ी है
ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है
लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है
हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है
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