राहुल गांधी को चाहिए बिहार में दलित, अति पिछड़े और मुस्लिम वोट ताकि

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राहुल गांधी पिछले दिनों फिर बिहार पहुंच गए। पहले बेगूसराय गए और कन्हैया कुमार द्वारा जारी ‘पलायन रोको, रोजगार दो यात्रा’ में शामिल हुए और फिर पटना पहुंचकर संविधान सम्मान सम्मेलन में शिरकत किए। बेगूसराय से लेकर पटना तक भीड़ देखने लायक थी। इस भीड़ में पुराने कांग्रेसी तो शामिल थे ही, बड़ी संख्या में महिलाएं, नौजवान, युवा महिलाएं और युवा छात्रों का रेला लगा रहा। भीड़ को देखकर राहुल गांधी गदगद हो गए लेकिन बाकी पार्टियाँ निराश भी हुईं। महागठबंधन की बड़ी पार्टी राजद भी भीड़ देखकर परेशान दिखी तो बीजेपी की परेशानी कुछ बढ़ती दिख रही थी।

याद रहे बिहार में इसी साल के अंत तक चुनाव होने हैं और इस चुनाव में कांग्रेस अपनी बड़ी भूमिका अदा करने की तैयारी में जुट गयी है। राहुल का बार-बार बिहार दौरा यही बता रहा है कि वह बिहार की मौजूदा समस्या से खुद को कनेक्ट करने की तैयारी में हैं, साथ ही बिहार के युवाओं के साथ जो कुछ भी हो रहा है उसे आधार बनाकर युवाओं का बड़ा वोट बैंक कांग्रेस से जोड़ने का प्रयास भर है। लेकिन राहुल और कांग्रेस की नजर केवल युवाओं तक ही नहीं है। सच तो यह है कि जातीय राजनीति के लिए मशहूर बिहार में कांग्रेस को भी जातीय वोट की दरकार है।

एक समय था जब कांग्रेस के पास बिहार में बड़ा वोट बैंक था। सभी जातियों के वोट कांग्रेस के साथ जुड़े थे। समय बदला तो कई जातियाँ कांग्रेस से छिटक गईं। फिर भी अधिकतर जातियों का वोट कांग्रेस को ही मिलता था। जिन वोटों पर कांग्रेस की पकड़ थी, उनमें शामिल थीं ब्राह्मण, भूमिहार, दलित, पिछड़े और मुसलमान जातियाँ। लंबे समय तक कांग्रेस की इन जातियों पर पकड़ बनी रही। लेकिन 1990 के बाद बिहार में बड़ा बदलाव आया, मंडल की राजनीति कुलांचे मारने लगी। कुछ नई पार्टियों का उदय हुआ। जिन पार्टियों का उदय हुआ, वे सब कांग्रेस विरोध के नाम पर ही सामने आईं। जातियों के नाम पर पार्टियों का गठन शुरू हुआ। बीजेपी भी ताकत बनकर उभरी। कई क्षेत्रीय पार्टियों के सामने कांग्रेस और बीजेपी बड़ी चुनौती बनीं, लेकिन सबसे ज्यादा सेंधमारी कांग्रेस में ही हुई।

पार्टी में टूट होती गई। पार्टी के नेता दूसरी जातिगत पार्टियों में जाने लगे। वोटों का बंटवारा शुरू हुआ। एक तरफ सवर्ण जातियों को बीजेपी अपने पाले में ले जा रही थी तो दूसरी तरफ पिछड़े, अति पिछड़े और मुसलमान को क्षेत्रीय पार्टियाँ अपने खेमे से जोड़ रही थीं। करीब 20 वर्षों तक बिहार में जातियों की राजनीति कुलांचे मारती रही। कांग्रेस सिमटती गई। कांग्रेस से लगभग सभी सवर्ण जातियां बाहर निकल गईं। ब्राह्मण और भूमिहार जो बिहार में सबसे प्रभावशाली जातियाँ थीं, वे बीजेपी के साथ चली गईं। राजपूत समाज भी कांग्रेस से निकलकर बीजेपी के साथ जुड़ गया।

पिछड़ी जातियाँ कई क्षेत्रीय पार्टियों के साथ जा जमीं। बाकी जातियाँ अलग-अलग दलों में अपने स्वार्थ और निजी हित को देखते हुए कांग्रेस से निकल गईं। मुसलमान समाज पर अधिकतर क्षेत्रीय दलों का ही प्रभाव रहा। अधिकतर मुस्लिम समाज राजद के साथ जुड़ा। जो बचे, वे कांग्रेस और बाकी पार्टियों के साथ आते-जाते रहे। जब कमंडल की राजनीति शुरू हुई तो मुस्लिम समाज बीजेपी को हराने वाली पार्टियों के साथ आता-जाता रहा। और अंत यही हुआ कि कांग्रेस के पास बिहार में किसी भी जाति का आधार वोट नहीं बचा।

आज बिहार में कांग्रेस का कोई आधार वोट नहीं है। किसी भी एक जाति पर उसकी खास पकड़ नहीं है। किसी भी मुस्लिम समाज पर कांग्रेस की पकड़ नहीं रही। फिर कांग्रेस के जितने भी प्रदेश अध्यक्ष बने, वे भी कांग्रेस को धोखा देते रहे। पार्टियाँ बदलते रहे और कांग्रेस के वोट बैंक को भी बेचते रहे। कांग्रेस वोट विहीन होती चली गई। बस बिहार में कांग्रेस ज़िंदा भर रही। हर चुनाव में कुछ सीटें उसे मिलती रहीं जो बाद में पाला बदलकर दूसरी पार्टियों की मजबूती में कारगर होती रहीं। जाहिर है कांग्रेस की इस बर्बादी में सबसे ज्यादा दोषी तो कांग्रेस नेता ही रहे लेकिन बाद में प्रदेश की सभी क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को कमजोर करने में कोई कोताही बरतने में कोई कंजूसी नहीं की।

लेकिन अब कांग्रेस खुद के पैर पर खड़ा होने को तैयार है। उसे संगठन भी मजबूत करना है। उसे प्रदेश में कांग्रेसी नेता भी खड़ा करना है और उसे जातीय वोट भी चाहिए। युवाओं की शक्ति चाहिए। महिलाओं की ताकत चाहिए और किसान, मजदूरों का साथ भी चाहिए। कांग्रेस को बेरोजगार लोगों का झुंड भी चाहिए और प्रदेश से पलायन कर दूसरे प्रदेश में बेइज्जत होने वाले बिहारी समाज का साथ भी चाहिए। यही वजह है कि इस साल भर राहुल के अजेंडे में सिर्फ बिहार ही है।

कांग्रेस के एक बड़े नेता कहते हैं कि बिहार में हम कितना ताकतवर होंगे अभी इस पर कुछ नहीं कह सकते। लेकिन एक बात तय मानिए बिहार के चुनावी परिणाम को हम इस बार बदलने की तैयारी में हैं। हम बिहार को उस स्थिति में लाने की तैयारी कर रहे हैं जहाँ कांग्रेस के बिना कुछ भी संभव नहीं। हम भले ही बिहार में अकेले सरकार न बनाएँ लेकिन हम मिलकर सरकार बनाएँगे और यही समझ के साथ कांग्रेस बिहार में बहुत कुछ करती दिख रही है।

जाहिर है कांग्रेस के लोग बिहार को लेकर कुछ अलग रणनीति भी बना रहे हैं। गुजरात में हो रहे कांग्रेस अधिवेशन के बाद बिहार के लिए कई और रणनीतियाँ सामने आ सकती हैं। राहुल गांधी के साथ ही प्रियंका गांधी और पार्टी के कई बड़े नेताओं को बिहार में उतारने की तैयारी चल रही है। पप्पू यादव को कोई बड़ी भूमिका देने की बात की जा रही है। सीमांचल की पूरी जिम्मेदारी पप्पू यादव को दी जा सकती है और ऐसा हुआ तो जाहिर है कि कांग्रेस बिहार चुनाव में कुछ अलग कर सकती है।

अभी बिहार में राहुल गांधी की नजर खासकर दलित, अति पिछड़े और मुस्लिम वोट पर है। इन तीनों जातियों के वोट बैंक को एक साथ कर दिया जाए तो लगभग 50 फीसदी से ज्यादा वोट बैंक बन जाते हैं। इन वोट बैंकों में से कुछ जातियों के वोट को भी कांग्रेस के साथ जोड़ दिया गया तो बिहार की राजनीति पलटी मार सकती है। जिस तरह से भूमिहार समाज से आने वाले कन्हैया कुमार को मैदान में उतारा गया है, उसका लाभ कांग्रेस को मिलता भी दिख रहा है।

इसी तरह से रविदास समुदाय से आने वाले राजेश कुमार राम को पार्टी का अध्यक्ष बनाकर करीब पाँच फीसदी रविदास वोट पर कांग्रेस की नजर लग गई है। और अति पिछड़ों की आबादी बिहार में 36 फीसदी से ज्यादा है। अगर इनमें से कुछ जातियाँ भी कांग्रेस के साथ जुड़ती हैं तो बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है।

बिहार के मुसलमान अभी तक राजद के साथ जुड़े रहे हैं। वक्फ बिल के बाद संभव है कि मुसलमानों का वोट राजद के साथ बना रहेगा लेकिन करीब पाँच से सात फीसदी मुसलमान कांग्रेस में भी रहे हैं। यह बात और है कि बिहार के सीमांचल इलाकों में ओवैसी की पार्टी की भी पकड़ है और इस बार ओवैसी भी वहाँ बड़ा खेल कर सकते हैं लेकिन सीमांचल में अगर सांसद पप्पू यादव, सांसद जावेद और सांसद तारिक अनवर की तिकड़ी मजबूती से आगे बढ़ी तो खेल दिलचस्प होगा और कांग्रेस को इसका लाभ भी मिलेगा। राहुल गांधी बिहार में पार्टी की मजबूती चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि बिहार की दशा और दिशा भी बदले। बिहार राहुल की तरफ हसरत भरी निगाहों से देख भी रहा है।

(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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