उत्तर प्रदेश के स्कूलों में ग्रीष्मकालीन रामायण और वेद कार्यशालाओं को अनिवार्य करने वाले दो सरकारी आदेशों के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की गई है। यह याचिका, डॉ. चतुरानन ओझा ने दायर की है, यह याचिका न केवल संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए है, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए भी है कि हमारी शिक्षा प्रणाली समावेशी, धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक बनी रहे।
क्या है यह मामला?
दिनांक 05 मई 2025 को, अयोध्या के अंतरराष्ट्रीय रामायण एवं वैदिक शोध संस्थान (संस्कृति विभाग, उत्तर प्रदेश) ने एक आदेश जारी किया, जिसमें उत्तर प्रदेश के सभी 75 जनपदों के जिला बेसिक शिक्षा अधिकारियों को सार्वजनिक स्कूलों में रामायण और वेद पर ग्रीष्मकालीन कार्यशालाएँ आयोजित करने का निर्देश दिया गया। इन कार्यशालाओं में रामलीला, रामचरितमानस का गायन और वाचन, चित्रकला, मिट्टी मॉडलिंग, मुखौटा निर्माण और वैदिक गान जैसी गतिविधियाँ शामिल हैं, जिनकी अवधि 5 से 10 दिन है। इसके बाद, महराजगंज के जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी ने 08 मई 2025 को एक और आदेश जारी कर सभी खंड शिक्षा अधिकारियों को इन कार्यशालाओं के लिए प्रबंधकीय सहयोग सुनिश्चित करने का निर्देश दिया।
ये आदेश न केवल संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, बल्कि समाज में जातिगत और लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देने, धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करने और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नुकसान पहुँचाने का जोखिम भी उठाते हैं।
क्यों है यह याचिका आवश्यक?
यह याचिका उत्तर प्रदेश के लाखों छात्रों के हितों की रक्षा के लिए दायर की गई है। ये आदेश निम्नलिखित कारणों से असंवैधानिक और समाज के लिए हानिकारक हैं:
धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता को अपनी मूल विशेषता मानता है (एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994)। रामचरितमानस और वेद, जो हिंदू धार्मिक ग्रंथ हैं, को सार्वजनिक स्कूलों में अनिवार्य करना एक विशेष धर्म को बढ़ावा देना है। यह संविधान के अनुच्छेद 28(1) का उल्लंघन करता है, जो राज्य द्वारा संचालित स्कूलों में धार्मिक शिक्षा पर रोक लगाता है। अरुणा रॉय बनाम भारत संघ (2002) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन धर्मनिरपेक्ष संदर्भ में स्वीकार्य है, लेकिन किसी एक धर्म के ग्रंथ को बढ़ावा देना असंवैधानिक है।
जातिगत और लैंगिक भेदभाव
रामचरितमानस में कुछ छंद, जैसे “ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी” (सुंदरकांड, 58.3) और “नारी स्वतंत्र न भावे, पति बिना दुख पावे” (अयोध्याकांड, 60), शूद्रों और महिलाओं को अपमानित करते हैं। ये छंद संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), अनुच्छेद 15 (भेदभाव का निषेध), और अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) के विरुद्ध हैं। इन ग्रंथों को स्कूलों में बढ़ावा देना न केवल अनुसूचित जातियों और महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन करता है, बल्कि सामाजिक समानता को भी कमजोर करता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर हमला
संविधान का अनुच्छेद 51A(h) प्रत्येक नागरिक को वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और सुधार की भावना को बढ़ावा देने का कर्तव्य सौंपता है। रामायण और वेद जैसे धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों को प्राथमिकता देना तर्कसंगत सोच और वैज्ञानिक जांच को कमजोर करता है। संतोष कुमार बनाम मानव संसाधन विकास मंत्रालय (1994) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शिक्षा को वैज्ञानिक और तर्कसंगत दृष्टिकोण को बढ़ावा देना चाहिए, न कि धार्मिक अंधविश्वास को।
प्रशासनिक अनुचितता
संस्कृति विभाग के अधीन एक संस्थान द्वारा शिक्षा विभाग के अधिकारियों को सीधे आदेश देना प्रशासनिक नियमों का उल्लंघन है। यू.पी. गंगाधरन बनाम केरल राज्य (2006) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि प्रशासनिक कार्यवाही को निर्धारित प्रोटोकॉल का पालन करना चाहिए। यह आदेश शिक्षा विभाग के साथ परामर्श के बिना जारी किया गया, जो इसे अवैध और मनमाना बनाता है।
अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन
अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति और शैक्षिक स्वायत्तता की रक्षा का अधिकार देते हैं। रामचरितमानस को अनिवार्य करना मुस्लिम, ईसाई, सिख और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों पर हिंदू-केंद्रित संस्कृति थोपता है, जो उनके सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन करता है (सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य, 1974)।
सार्वजनिक धन का दुरुपयोग
अनुच्छेद 27 करदाताओं के धन का उपयोग किसी विशेष धर्म को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबंधित करता है। इन कार्यशालाओं के लिए सार्वजनिक धन का उपयोग, जैसे शिक्षक प्रशिक्षण और सामग्री के लिए, हिंदू धार्मिक मूल्यों को बढ़ावा देता है, जो प्रफुल्ल गोराडिया बनाम भारत संघ (2011) के निर्णय के खिलाफ है।
संवैधानिक नैतिकता का अभाव
इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम केरल राज्य (2018) में, सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक नैतिकता को समानता, स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांतों के रूप में परिभाषित किया। रामचरितमानस के जातिगत और लैंगिक पदानुक्रम को बढ़ावा देना इन मूल्यों के विपरीत है।
इस याचिका का महत्व
यह याचिका केवल एक कानूनी चुनौती नहीं है, बल्कि हमारे समाज के भविष्य की रक्षा का प्रयास है। उत्तर प्रदेश के स्कूलों में लाखों छात्र पढ़ते हैं, जिनमें हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, अनुसूचित जाति, और अन्य समुदायों के बच्चे शामिल हैं। इन आदेशों से न केवल सामाजिक विभाजन बढ़ेगा, बल्कि यह शिक्षा को धर्मनिरपेक्ष और समावेशी बनाने के संवैधानिक लक्ष्य को भी कमजोर करेगा।
यह याचिका निम्नलिखित राहतों की माँग करती है:
• 05 मई और 08 मई 2025 के आदेशों को रद्द करना।
• स्कूलों में विशिष्ट धार्मिक ग्रंथों को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को रोकने का निर्देश।
• शिक्षा को समावेशी, धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक बनाने के लिए निर्देश।
हमारी शिक्षा का भविष्य
हमारी शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य बच्चों में वैज्ञानिक सोच, समानता और विविधता के प्रति सम्मान पैदा करना होना चाहिए। रामचरितमानस और वेद जैसे ग्रंथों को अनिवार्य करना न केवल संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि यह समाज में जातिगत और लैंगिक असमानताओं को बढ़ावा दे सकता है। हमारी युवा पीढ़ी को ऐसी शिक्षा चाहिए जो उन्हें तर्कसंगत, समावेशी और प्रगतिशील बनाए, न कि ऐसी जो धार्मिक या सामाजिक विभाजन को बढ़ावा दे।
आप क्या कर सकते हैं?
यह याचिका हम सभी के लिए है। यदि आप भी मानते हैं कि शिक्षा को धर्मनिरपेक्ष, समावेशी और वैज्ञानिक होना चाहिए, तो इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाएँ। अपने समुदाय में, सोशल मीडिया पर, और अपने परिचितों के बीच इस याचिका के महत्व को साझा करें। हमारा संविधान हमें समानता और स्वतंत्रता का अधिकार देता है, और यह हमारा कर्तव्य है कि हम इन अधिकारों की रक्षा करें।
निष्कर्ष
यह जनहित याचिका न केवल एक कानूनी लड़ाई है, बल्कि हमारे समाज के भविष्य को आकार देने का एक प्रयास है। हमारी शिक्षा प्रणाली को धर्म, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव से मुक्त होना चाहिए। आइए, हम एक ऐसे भारत के लिए मिलकर काम करें जो संविधान के मूल्यों-समानता, स्वतंत्रता, और धर्मनिरपेक्षता-को सच्चे अर्थों में अपनाए।
(याची: डॉ. चतुरानन ओझा, देवरिया, अधिवक्ता: राकेश कुमार गुप्ता, उच्च न्यायालय, इलाहाबाद)