जम्मू कश्मीर में हालिया हमले: एक समीक्षा

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हाल ही में, जम्मू कश्मीर में हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार हुई है और वहां पर उमर अब्दुल्ला के साथ मिलकर कांग्रेस ने सरकार बनाई है। यह चुनाव अपने आप में कई मायने से अहम रहा। पहली बात तो यह कि चुनाव आर्टिकल 370 के हटाए जाने के पूरे पांच सालों के बाद हुआ।

इस दौरान कश्मीर को पूरी दुनिया का सबसे बड़ा सैन्यकृत क्षेत्र बना दिया गया, जहां कई दिनों तक इंटरनेट को पूरी तरीके से बंद रखा गया, वहीं अन्य सूत्रों के आधार पर कई मानवाधिकार के हनन की जानकारी पूरे पांच सालों तक मिलती रही।

कश्मीर के कई पत्रकारों के ऊपर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत मुकदमे दर्ज किए गए, और उन्हें परेशान करने के उद्देश्य से किसी को दो साल तो किसी को तीन साल तक जेलों के अंदर बंद रखा गया। सारे प्रमुख नेताओं को बंद करके बंदूक के नोक पर अनुच्छेद 370 को खत्म करने की प्रक्रिया को अंजाम दिया गया।

पर इन सबसे अलग एक समाचार इन सालों में पूरे देश को सुनाया और बतलाया गया कश्मीर की आंतरिक स्थिति बिल्कुल सामान्य हो गई है। सरकार के दावों को पुष्ट करने के लिए अजीत डोभाल कश्मीर के कोने-कोने में कश्मीरियों के साथ बिरयानी खाते हुए फिल्माए गए जिससे भारतीय मीडिया दो चीजें स्थापित करने में कामयाब रही।

पहला तो यह कि इससे पहले के कश्मीर में आतंकवादियों की सरकार चल रही थी और उन्हें सह दिया जा रहा था। दूसरा, कश्मीर में अगर अमन और चैन है तो उसका एक मात्रा कारण अनुच्छेद 370 का हटाया जाना और कश्मीर की अर्ध स्वायत्तता छिन जाना है।

परन्तु यह शांति क्या वास्तविक रूप से शांति थी या रुपयों के लिए बिकी मीडिया के द्वारा दिखाया गया था? क्या सच में जनता प्रसन्न होकर सरकार के केंद्रशासित प्रदेश के निर्णय को मान रही थी या द कश्मीरियत और कश्मीरवाला जैसे चैनलों के पत्रकारों को नेशनल सिक्योरिटी एक्ट और अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट (UAPA) के तहत बंद करके एक जबरदस्ती की शांति बनाने का प्रयास किया गया है?

उमर अब्दुल्ला सरकार में आए हैं और आने के साथ ही कश्मीर में चार बड़ी घटनाएं घट चुकी हैं। सबसे हालिया घटना में कश्मीर के गुलबर्ग जिले में सेना के दो जवानों के साथ दो समान ढोने वालों की मौत हो गई।

इस घटना को तब अंजाम दिया गया जब वहां से थोड़ी देर पहले ही जम्मू कश्मीर के गवर्नर मनोज सिन्हा वहां के सुरक्षा का जायजा लेने के साथ घटनाओं पर चर्चा करके गए थे कि आखिर इतनी आतंकवादी घटनाएं बढ़ कैसे गई हैं।

हालिया घटनाओं पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि सभी घटनाओं के स्थान को सुनियोजित तरीके से चुना गया है। गुलबर्ग से पहले एक पूर्व की घटना में टनल बनाने वाले 6 मजदूरों के साथ एक डॉक्टर को भी मार दिया गया। यह टनल स्ट्रेटेजिक रूप से अहम है, क्योंकि यह z मोह टनल केंद्रीय कश्मीर के गजनेर को सोनमर्ग से जोड़ने की परियोजना है।

इस हमले में एक बिहारी मजदूर की भी मौत हो गई जो शायद एक सुनियोजित घटना का एक अंग हो सकता है। भारतीय राज्य ने कश्मीर के विशेष राज्य का दर्जा छीन लेने के बाद से ही यह लगातार आह्वान कर रही है कि बाहर के लोग आएं और कश्मीर में बसें।

यह कहीं न कहीं उनके संसाधनों पर कब्जा जमाने की तैयारी के रूप में देखा गया है, जहां बाहर से आने वालों के द्वारा अंदर के कश्मीरियों को कम वरीयता दी जा रही है।

अपने “ जम्मू कश्मीर में भू राजनीति” से जुड़े आर्टिकल में मैने इस बात पर विशेष जोर दिया है कि किस प्रकार जम्मू में लोगों की जमीन छीन कर बाहरी लोगों को दिया जा रहा है या बड़े कंपनियों के लिए लैंड बैंक की स्थापना की गई, जिससे उनके संसाधनों के छिनने का सिलसिला चलता रहे।

इन सारे हमलों को एक श्रृंखला के रूप में देखे जाने की जरूरत है जहां बाहर से आकर लोगों का रोजगार छिनने का सवाल भी अहम है। जहां एक तरफ कश्मीरियों के हाथ से वहां की अर्थव्यवस्था छीन कर बाहरी लोगों के हाथ में पकड़ाई जा रही है, वहीं वहां की आवाम के जीने के लिए रोजगार भी बाहरी लोगों के हाथों में दिए जा रहे हैं।

एक लंबे समय से भारत की सरकार ने कश्मीर के स्व निर्णय के सवाल को पूरी तरीके से खारिज करते हुए किसी भी प्रकार के प्रतिरोध को आतंकवादी घटना बता कर नकार दिया गया। पहले और अब की घटनाओं में एक विशेष अंतर जो देखने में आ रहा है वह यह है कि प्रतिरोध के स्वर जम्मू से ज्यादा आ रहे हैं।

हाल ही में अंबेडकरवादी संगठनों की अगुवाई में जम्मू में बिजली के नए मीटर को लेकर एक बड़ा प्रतिरोध प्रदर्शन हुआ जिसे सुरक्षा बलों द्वारा बुरी तरह से कुचल दिया गया। जम्मू निवासियों का मानना है कि नए प्राइवेटाइजेशन से आए हुए मीटर में बिजली बिल काफी ज्यादा आ रहा है, जबकि उनकी खपत वैसी ही है जैसी पहले थी।

इससे पहले जमीन के मुद्दे को लेकर एक बड़ा प्रदर्शन देखने को मिला था जब कई गांवों से लोग नए भू-नीति के विरोध में सड़कों पर आ गए थे क्योंकि उनकी जमीनें, जिसपर वो कई पुरखों से खेती कर रहे थे और सरकार द्वारा उन्हें दी गई थी उसे नई सरकार ने छीनना शुरू कर दिया है।

जम्मू के अंदर एक और वाकए का जिक्र जरूरी है जिसपर गौर फरमाने की जरूरत है। जनवरी 2023 में लगातार दो आतंकी घटनाओं में सात लोगों की मौत हो गई, जिसे मीडिया ने दावा किया कि यह हिंदुओं के ऊपर हमला है और इसके बाद ही भारतीय प्रशासन ने “गवर्नमेंट स्पॉन्सर्ड विलेज डिफेंस गार्ड्स”को पुनः शुरू कर दिया है।

इसके अनुसार, सुरक्षा के लिहाज से लोगों को सरकार द्वारा हथियार देने के साथ उन्हें ट्रेनिंग देने को बढ़ावा दिया जाता है। इस गार्ड का गठन भारत सरकार द्वारा मध्य 1990 के दशक से शुरू हुआ जिसमें ज्यादातर हिंदू क्षेत्रों को चुना गया और यह जम्मू के क्षेत्रों में हिंदुओं को हथियारबंद बनाते गए।

अगस्त 2024, एक दस्ते ने दो संदिग्ध लोगों के ऊपर फायरिंग की जिसके बाद रजौरी में एक बड़ा सर्च ऑपरेशन चलाया गया जिसमें कुछ भी मूल रूप से प्राप्त नहीं हुआ।

इस प्रकार से सिविल सोसाइटी को हथियारबंद करना एक खतरनाक पहल हो सकती है। खास कर के जब यह निर्णय दोबारा लिया गया है, जिस समय पूरे जम्मू कश्मीर क्षेत्र को बंद रखा गया था। गार्ड का फॉर्मेशन जिस तरीके के हिन्दू बाहुल्य क्षेत्रों में किया जा रहा है, यह पहले से ही फैले अविश्वास को बढ़ावा देगा।

जिसमें समाज के एक भाग को पहले से ही गलत माना जा रहा है और मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण एक पॉपुलर हिंदूवादी अवधारणा के हिसाब से ठीक न होने के कारण, इस तरह से हथियारबंद करने की नीति समाज में दुराव लेकर आएगी। साथ ही दुनिया के सबसे ज्यादा सैन्यकृत क्षेत्र में इस तरह के गार्ड को तैयार करना, एक सही दिशा में संकेत नहीं करते हैं। 

(निशांत आनंद दिल्ली विश्वविद्यालय में विधि के छात्र हैं।)

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