धर्म पर धर्मांधता का नशा हावी : अराजक तत्वों के हौसले बुलंद

धर्म पर धर्मांधता हावी है। क्या धर्म यह सिखाता है कि राह चलते किसी के साथ मारपीट की जाय। क्या धर्म यह सिखाता है कि दुष्कर्म को जाति धर्म के हिसाब से तय किया जाय और फिर मुंह खोला जाय। भई अपराधियों को अपराधियों के तौर पर क्यों नहीं देखा जा सकता?

आतंकवादियों ने धर्म पूछकर मारा तो क्या आप भी उसी वहशियाने अंदाज पर उतर आओगे? क्या आप भी आतंकवादी बनकर उसी तर्ज पर अकारण ही धर्म के नाम पर निर्दोषों को प्रताड़ित करके अपनी रक्तपिपासा शांत करोगे? आतंकवादियों का बदला बेगुनाहों से लेकर अपने पौरुष की पताका फहराओगे? तुम्हारा मन नहीं धिक्कारता तुम्हें। धिक्कारेगा भी कैसे जब दिलो-दिमाग में पशुता भरी है। 

जब तक धर्म को आतंक का पर्याय न बना लेना, जब तक सबसे लोकतांत्रिक और उदार धर्म का मर्सिया न पढ़ लेना, जब तक समाज को खंड-खंड नहीं कर लेना, तब तक चैन से नहीं बैठना है। जब प्रधानमंत्री विदेश जाएं तो यह न कह पाएं कि हमारे यहां विविधता में एकता है। 

गोदी मीडिया को सत्ता की आरती करने से ही फुरसत नहीं है, वह क्योंकर सत्ता से सवाल पूछने लगी? उसे तो बस विपक्ष को घेरने से मतलब है। 

आतंकवादी तो धार्मिक विभाजन के आधार पर ही चलते हैं क्योंकि उनके आका इस मनोवैज्ञानिक खेल में भारी संभावनाएं देखते हैं। उनसे सद्भावना की उम्मीद कोई मूर्ख ही करेगा।

परंतु अफसोस है कि बहुत सारे लोग आतंकवादियों के खेल में फंसकर धर्म-धर्म चिल्ला रहें हैं। जिन्होंने मदद की उनकी सद्भावनाओं की चिंता किसी को भी नहीं है, उल्टे जो भुक्तभोगी, पीड़ित लोग ये कह रहें हैं कि वहां के लोगों ने हमारी बड़ी मदद की, उनको भी निशाने पर लिया जा रहा है। 

उमर अब्दुला ने जिस तरह से पीड़ितों के प्रति संवेदनाएं दिखाईं; सीमित सीमाओं के बावजूद लोगों को न बचा पाने की जिम्मेदारी खुद पर ले ली, यह उनके बड़प्पन की निशानी है। आज के दौर के नेताओं को उनसे सीखना चाहिए। लेकिन विडंबना है कि सवाल कुछ और ही उछाले जा रहे हैं। सद्भावनाओं की जगह दुर्भावनाओं की तलाश है। कोई मौका मिले बस बांटने के लिए तैयार रहना है।

सवाल यह नहीं पूछा जाएगा कि ऐसे में पीड़ितों के प्रति सहानुभूति जताने की जगह रैलियां और उद्घाटन क्यों हो रहे हैं? यह भी नहीं पूछा जाएगा कि इन घटनाओं की जिम्मेदारी किस पर है? आखिर यह सब कैसे हुआ और आतंकवादी इतनी बड़ी सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगाकर कैसे बैसरन में घटना को अंजाम देने में कामयाब हो गए? कोई इस बात की जिम्मेदारी क्यों नहीं ले रहा? 

देश में जाहिलों की फौज बढ़ती जा रही है। क्या पढ़े-लिखे क्या बे पढ़े-लिखे सब एक ही उन्माद में बहे जा रहे हैं। जो नौकरी में हैं उन्हें बेरोजगारी के दंश से क्या मतलब? जब था तब था। उन्हें यह नहीं दिखता कि हिंदुओं के बड़े-बड़े ठेकेदारों के लड़के विदेशों में पढ़ और नौकरी कर रहें हैं, लेकिन जुलूस का झंडा उनके लड़कों को ही थमाया जाता है। 

रही बात अराजक तत्त्वों की तो उनके हौसले बुलंद हैं। आख़िर सत्ता ऐसे लोगों पर कार्यवाही क्यों नहीं करती है। अपराधी, अपराधी है फिर वह चाहे जिस धर्म जाति का हो, उसे क्यों बख्शा जाय। 

किसी का रोजगार की तरफ ध्यान न जाए इसलिए ऐसे मुद्दों को हवा देना सत्ता की नियति है। खैर ऐसे लोग अपने पीछे बहुत गंदगी छोड़ जाएंगे………. फिलहाल देश और समाज अभिशप्त है इनको झेलने के लिए।

(संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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