नई दिल्ली। हाल ही में (6 नवंबर 2023) को गुरुग्राम के सेक्टर-92 में रहेजा नवोदय सोसाइटी में सेप्टिक टैंक की सफाई करने उतरे दो सफाई कर्मचारियों राजकुमार (45) और परजीत (36) की जहरीली गैस के कारण दम घुटने से मौत हो गई। इन सफाई कर्मचारियों को 30 फुट गहरे सेप्टिक टैंक में बिना सुरक्षा उपकरणों के उतार दिया गया था।
मैनुअल स्केवेंजर्स रोज़गार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम-2013 तथा सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश (20 अक्टूबर 2023) के अनुसार किसी भी सफाई कर्मचारी को सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए उतारना निषेध है। यहां तक कि आपात स्थिति में भी बिना सुरक्षा उपकरणों के किसी को सीवर-सेप्टिक टैंक में उतारना दंडनीय अपराध है। उसे उतरवाने वाले के खिलाफ जुर्माना और जेल दोनों का प्रावधान है। पर ऐसे मामलों में आरोपी को सजा नहीं होती। क्यों?
जब तक नीयत साफ नहीं होगी तब तक नीति बनाने से कुछ नहीं होगा। मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ तीस साल पहले से कानून बन रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश आ रहे हैं। पर कड़वी सच्चाई यह है कि अब भी मैला ढोने जैसी अमानवीय और घृणित प्रथा जारी है। सीवर-सेप्टिक टैंकों में सफाईकर्मियों की जाने जाना जारी है। आखिर क्यों?
जब किसी सफाई कर्मचारी या कुछ सफाई कर्मचारियों की सीवर या सेप्टिक टैंक साफ करते हुए मौत हो जाती है तो हमारा समाज इसे सामान्य घटना की तरह लेता है। क्या विडंबना है कि सरहद पर मरने वाले को तो हम शहीद का दर्जा देते हैं और सीवर या गटर में मरने वाले का नोटिस तक नहीं लेते। ऐसे में स्वयं सफाई कर्मचारियों को ही यह आवाज उठानी पड़ती है कि हमें मारना बंद करो।
हमें मारना बंद करो (Stop Killing Us)
सफाई कर्मचारी आंदोलन को सीवर और सेप्टिक टैंकाें में सफाई कर्मचारियों की मौतों के खिलाफ आवाज उठाते-उठाते 500 दिनों से भी अधिक हो गये हैं। पर सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं की जा रही है। यहां बात राजनीतिक उदासीनता की भी है और सरकार द्वारा इसे गंभीरता से न लेने की है। वरना मैला प्रथा का जारी रहना और सीवर-सेप्टिक टैंकों में मौतों का सिलसिला रोकना कोई असंभव कार्य नहीं है।
क्या कहते हैं कानून?
मैला ढोने की प्रथा का निषिद्ध करने वाला सबसे पहला कानून आज से 30 साल पहले 1993 में बना था – मैनुअल स्केवेंजर्स के रोजगार तथा शुष्क शौचालय निर्माण (निषेध) अधिनियम-1993। इस कानून के अनुसार मैला ढोने की प्रथा प्रतिबंधित कर दी गई थी। जबरन कोई मैला ढुलवाने का कार्य करवाए तो उसके लिए दण्ड का प्रावधान था। पर यह कानून कागजों में ही रह गया। क्योंकि इसके कार्यान्वयन में किसी ने रुचि नहीं दिखाई। परिणाम यह हुआ कि मैला ढोने की प्रथा यथावत जारी रही।
सफाई कर्मचारी आंदोलन और ऐसे ही समान सोच के संगठनों और व्यक्तियों ने जब 2003 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की तो सुप्रीम कोर्ट का 2005 में अंतरिम आदेश आया था जिसके अनुसार मैला ढुलवाने का कार्य दण्डनीय अपराध था। पर मैला प्रथा फिर भी जारी थी।
अन्य संगठनों व सफाई कर्मचारी आंदोलन ने प्रमुख रूप से मैला प्रथा उन्मूलन के लिए सरकार से हस्तक्षेप करने को कहा तो पहले कानून के बीस साल बाद एक दूसरा कानून बना- मैला ढोने के रोजगार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम-2013। आज इस कानून को बने हुए भी दस साल हो गए। इस बीच सफाई कर्मचारी आंदोलन की याचिका पर 27 मार्च 2014 को सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया। जिसमें सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई पर मैनुअली प्रतिबंध लगा दिया गया।
इसके साथ यह भी आदेश दिया गया कि वर्ष 1993 से लेकर अब तक देश भर में जितनी सीवर या सेप्टिक टैंकों में मौतें हुई हैं- उनका सर्वे किया जाए। मृतकों के परिजनों को 10 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाए। इस आदेश के अनुसार किसी सफाईकर्मी को सीवर या सेप्टिक टैंक में बिना सेफ्टी उपकरणों के घुसाना दंडनीय अपराध है। इसके लिए दो लाख रुपये का जुर्माना या दो साल की जेल का प्रावधान है। पर विडंबना देखिए कि आज तक इस कानून के उल्लंघन करने वाले को सजा नहीं हुई।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार 20 अक्टूबर 2023 को सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश की सरकारों को पूरी तरह से मैनुअल स्कैवेंजिंग यानी हाथ से मैला ढोने/साफ करने की प्रथा को खत्म करने का आदेश दिया है। सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि यह दुर्भाग्य है कि आज भी देश में मैनुअल स्कैवेंजिंग हो रही है। और सीवर सफाई के दौरान कर्मियों की मौत की घटनाएं सामने आ रही हैं।
जस्टिस एस.आर. भट और अरविंद कुमार की पीठ ने गहरी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि सरकारों/सक्षम प्राधिकारों को सीवर सफाई के दौरान मरने वाले कर्मचारियों के परिजनों को 30 लाख रुपये का मुआवजा देना होगा। पीठ ने कहा कि सीवर की सफाई के दौरान स्थायी विकलांगता का शिकार होने वाले कर्मचारियों को कम से कम 20 लाख रुपये और अन्य तरह के विकलांगता के शिकार होने पर 10 लाख रुपये का मुआवजा देना होगा।
उच्च्तम न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया है कि मैनुअल स्कैवेंजिंग अब पूरी तरह से समाप्त हो जाए। फैसला सुनाते हुए जस्टिस भट ने कहा कि सरकारी महकमों/निकायों को यह सुनिश्चित करने के लिए समन्वय करना चाहिए कि ऐसी घटनाएं (सीवर सफाई के दौरान मौत) न हों।
उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालयों को सीवर में होने वाली मौतों से संबंधित मामलों की निगरानी करने से नहीं रोका जाए।
सुप्रीम कोर्ट में डॉ. बलराम सिंह की ओर से दाखिल जनहित याचिका पर विचार करते हुए यह फैसला दिया है। याचिका में मैनुअल स्कैवेंजर के रूप में रोजगार पर प्रतिबंध और उनके पुनर्वास अधिनियम 2013 के प्रभावी कार्यान्वयन की मांग की गई है।
सीवर-सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान मरने वाले सफाई कर्मचारियों के परिजनों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मुआवजा 10 लाख रुपये से बढ़ाकर 30 लाख रुपये कर दिया है। पर यह समस्या का समाधान नहीं है। इंसान की जान की कीमत कोई धनराशि नहीं हो सकती।
सीवर-सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए मशीनीकरण हो अनिवार्य
कानून का सख्ती से पालन करते हुए किसी भी व्यक्ति को सीवर या सेप्टिक टैंक में न घुसाया जाए। यदि कोई व्यक्ति किसी सफाई कर्मचारी को सीवर या सेप्टिक टैंक में प्रवेश करने के लिए बाध्य करता है तो उसके खिलाफ कठोर कानूनी कार्रवाई की जाए। उसे जुर्माना सहित जेल भेजा जाए। एम.एस. एक्ट 2013 में इसका प्रावधान है। इसके साथ ही सीवर-सेप्टिक टैंक की सफाई मशीनों से कराई जाए। आज हम चन्द्रयान-3 सफलतापूर्वक चांद पर लैंड करा चुके हैं तो क्या सीवर-सेप्टिक टैंकों की सफाई कराने के लिए मशीनों का निर्माण और उपयोग नहीं कर सकते। अगर प्रशासन में इच्छा शक्ति हो और मशीनीकरण अनिवार्य कर दिया जाए तो निश्चय ही हम सफाई कर्मचारियों को सीवर-सेप्टिक टैंकों में मरने से बचा सकते हैं।
सामाजिक मानसिकता बदलने की जरूरत
कानून चाहे कितने भी बन जाएं, चाहे उच्चतम न्यायालय के निर्णय आ जाएं, पर मैला प्रथा का खात्मा तब तक नहीं होगा जब तक इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ सख्त कदम न उठाए जाएं। कानूनों का कठोरता से जब तक कार्यान्वयन नहीं होगा तब तक स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा। सवाल फिर भी है कि मैला प्रथा के विरुद्ध बने कानूनों का पालन क्यों नहीं होता? पालन नहीं होने की प्रमुख वजह है हमारे समाज की मानसिकता। समाज का जातियों में बंटा होना। जातियों में उच्च-निम्न क्रम होना। उसी के अनुसार श्रेष्ठ या हीन होने का भाव। समाज की यह मानसिकता कि मैला ढोना तो इन जाति विशेष के लोगों का काम है।
हिंदू धर्म में जातियों के उच्च-निम्न क्रम के कारण समाज में लोगों की बराबरी की हैसियत नहीं है। मानवीयता का अभाव है। भाईचारे या बंधुत्व की भावना नहीं है। पुराने समय से जिन लोगों के साथ छुआछात की जा रही है उसके प्रति कोई पछतावा नहीं है। अभी भी इस अमानवीयता को बरकरार रखा जा रहा है। हमारे समाज में कथित उच्च जातियों के मन में गंदगी है। श्रेष्ठ और हीन समझने की भावना है। यही कारण है कि आज इक्कीसवीं सदी जिसे तकनीक का युग कहा जाता है इस में भी हमारे देश में मैला ढोने जैसी, सीवर-सेप्टिक टैंक की मैनुअली सफाई जैसी अमानवीय प्रथाएं जारी हैं।
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने यह बात बहुत सही कही थी कि हमारी लड़ाई धन या संपत्ति के लिए नहीं बल्कि मानवीय गरिमा के लिए है। यही कारण है कि आज सफाई कर्मचारी आंदोलन सहित अन्य कई संगठन मैला प्रथा उन्मूलन और सीवर-सेप्टिक टैंकों में माैतों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि समाज के सभ्य और मानवतावादी कहे जाने लोग चाहे वे शिक्षाविद् हों, वकील हों, प्रोफेसर हों, शिक्षक हों, पत्रकार हों, मानवाधिकार कार्यकर्ता हों, सामाजिक कार्यकर्ता हों, राजनेता हों या इंसानियत रखने वाले आम सामाजिक इंसान हों, वे इन सीवर-सेप्टिक टैंक साफ करने वाले सफाई कर्मचारियों के प्रति सहानुभूति नहीं बल्कि समानुभूति रखें। मानव मल ढोने वालों की जगह खुद को रखकर देखें। उनकी पीड़ा को खुद महसूस करके देखें तो निश्चय ही वे इस प्रथा के खात्मे के लिए आवाज उठाएंगे।
दूसरी ओर राजनीतिक लोग इसे जड़-मूल से समाप्त करने का द़ृढ़ संकल्प लें तो इसका खात्मा असंभव नहीं। प्रधानमंत्री चाहें तो मैलाप्रथा उन्मूलन और सीवर-सेप्टिक टैंकों की मैनुअली सफाई की बंदी के लिए एक दिन ऐसी घोषणा कर दें, जैसी नोटबंदी के लिए की थी तो निश्चय ही मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा का खात्मा हो जाएगा। पर क्या प्रधानमंत्री ऐसा करेंगे? क्या हम सभ्य समाज के लोग इस अमानवीय प्रथा और सीवर-सेप्टिक टैंक साफ करने वालों को जहरीली गैसों से दम घुटकर मरने से बचाने के लिए सरकार और प्रशासन को बाध्य करने के लिए अपनी आवाज उठाएंगे? बात मानिसकता और संवेदनशीलता की है वरना अगर ठान लीजिए तो मुश्किल नहीं है मैला ढोने की अमानवीय प्रथा और सीवर-सेप्टिक टैंकों की मानव द्वारा सफाई का अंत।
(सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े राज वाल्मीकि का लेख।)
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