चीखती हुई चुप्पी: चंदौली में बेलगाम सूदखोरों की दरिंदगी, इंसानियत को रौंदती ‘तालिबानी सजा’ और भय के साये में कांपता धान का कटोरा—ग्राउंड रिपोर्ट

चंदौली।“धान के कटोरे” के नाम से पहचाना जाने वाला चंदौली जनपद इन दिनों एक दर्दनाक घटना के चलते चर्चा में है। यह वारदात खेती, हरियाली या मेहनतकश किसानों की कामयाबी नहीं, बल्कि सूदखोरों की हैवानियत है। चंदौली का बबुरी कस्बा, जो कभी गांवों की सादगी, बाजारों की चहल-पहल और किसानों की मेहनत के लिए जाना जाता था वह इन दिनों खामोश है। यहां की हवा में अब खौफ घुला है, क्योंकि सूदखोरी ने अब सिर्फ जेबें नहीं, जिस्म भी नोचना शुरू कर दिया है।

बबुरी कस्बे में घटी हालिया घटना ने न सिर्फ स्थानीय लोगों को दहला दिया है, बल्कि यह गंभीर संकेत भी दिया है कि कैसे सूदखोरी का अंधाधुंध धंधा अब तालिबानी स्तर की क्रूरता तक जा पहुंचा है। चकिया थाना क्षेत्र के बुढ़वल गांव निवासी नील दास आज अस्पताल के बिस्तर पर बेसुध पड़े हैं। उनके शरीर पर बेरहमी की कहानी उकेरी हुई है। कहीं लाठी-डंडे के नीले निशान, कहीं नाखून उखाड़ने की कोशिश के घाव, और शरीर पर सिगरेट से जलाने के ताज़ा जले के निशान। यह किसी फिल्म का दृश्य नहीं, चंदौली की हकीकत है।

नील दास का कसूर? उनका भाई रंग दास एक मीडिएटर के रूप में बबुरी के रतनदीप वर्मा और एक जरूरतमंद युवक सतीश के बीच सूद पर पैसा दिलाने का काम करता था। सतीश ने अपनी कार टाटा जेस्ट गिरवी रखकर 1.80 लाख रुपये छह फीसदी मासिक ब्याज पर लिए थे। समय पर किस्त न दे पाने पर, सूदखोरों ने मीडिएटर को नहीं, बल्कि उसके भाई नील को शिकार बनाया।

पचास रुपये के स्टांप पेपर पर सूद का करार

समझौते के बहाने नील को बबुरी बुलाया गया… कहा गया, “चलो बैठकर समझते हैं।” फिर वही हुआ, जो जानवर भी नहीं करते। डंडे बरसाए गए, नाखून उखाड़े गए  और जब वह बेसुध हो गया, तो सिगरेट से जलाकर उसे “जिंदा” किया गया। इतना ही नहीं, उसके खाते से ₹23,500 निकाल लिए गए, और उसकी बाइक व अंगूठी भी छीन ली गई। यह कोई फिल्म नहीं थी। यह चंदौली था। हमारा समाज था। हमारा मौन था।

नील दास, बुढ़वल गांव का एक सीधा-सादा इंसान, अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा है। हाथ-पांव में पट्टियां बंधी हैं, शरीर पर जले हुए सिगरेट के निशान हैं  और उंगलियों के पास से खून अब भी रिस रहा है। वह कुछ नहीं बोलता… सिर्फ ताकता है। मानो आंखें पूछ रही हों, “क्या अब भी तुम्हें लगता है कि कानून जिन्दा है?”

घटना के बाद पीड़ित ने बबुरी थाने में तहरीर दी। पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर एक व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया है और अन्य आरोपियों की तलाश जारी है। अपर पुलिस अधीक्षक अनंत चंद्रशेखर ने मीडिया से कहा, “मामले को गंभीरता से लिया गया है, दबिश दी जा रही है, और सभी आरोपियों की गिरफ्तारी जल्द सुनिश्चित की जाएगी।”

चंदौली के प्रगतिशील किसानों का कहना है कि सूदखोरी अब गली-मोहल्लों में खुलेआम माफिया शैली में फैल रही है। पुलिस को पहले से शिकायतें दी जाती रही हैं, लेकिन कार्रवाई न होने से सूदखोरों का मनोबल बढ़ गया है। बबुरी कस्बे के एक बुजुर्ग ग्रामीण ने कहा, “ब्याज के नाम पर लूट, अपहरण, मारपीट और अब अंग भंग करना… यह कौन सा कानून है? ‘धान के कटोरे’ में किसानों की मेहनत से ज़्यादा सूदखोरों की दहशत बोई और काटी जाएगी।”

चंदौली में फल-फूल रही सूदखोरी

चंदौली जनपद में सूदखोरी इन दिनों एक गंभीर सामाजिक और कानूनी चुनौती बनती जा रही है। ग्रामीण इलाकों से लेकर कस्बों तक, छोटे व्यापारियों, किसानों और जरूरतमंद परिवारों को सूद पर रुपये देने वालों ने अपने शिकंजे में जकड़ लिया है। बिना किसी लाइसेंस और सरकारी अनुमति के ये लोग सादे कागजों पर हस्ताक्षर कराकर पहले जरूरतमंदों को थोड़ी रकम देते हैं और फिर धीरे-धीरे उन्हें कर्ज के दलदल में धकेल देते हैं। समय पर भुगतान न करने पर न केवल भारी ब्याज वसूला जाता है, बल्कि दबाव बनाकर कीमती सामान, जमीन और यहां तक कि इज्जत तक छीन लेने की घटनाएं सामने आ रही हैं।

”बैंकिंग सिस्टम की पहुंच सीमित, ज़मीनी कागजात की जटिलताएं और तत्काल जरूरतें किसानों और दुकानदारों को सूदखोरों की ओर धकेल रही हैं। लेकिन अब ये सूदखोर सिर्फ पैसे वसूलने वाले नहीं, संगठित अपराधी गिरोह बनते जा रहे हैं। नील के घर की दीवारें अब भी कांप रही हैं। उसकी मां पूछ रही है, “क्या मेरा बेटा सिर्फ इसलिए मारा गया क्योंकि वो गरीब था?” गांव में हर कोई कह रहा है, “हममें से कोई भी अगला हो सकता है। जब वसूली का तरीका नाखून उखाड़ना, सिगरेट से जलाना और रिवॉल्वर दिखाकर धमकाना हो जाए, तो यह सिर्फ आर्थिक शोषण नहीं, आपराधिक हिंसा बन जाती है।”

गंभीर रूप से जख्मी नील

गोरखपुर जिले में पहले ही ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं, जो अब पूरे पूर्वांचल के लिए चेतावनी बन चुकी हैं। वहां की घटनाओं से यह स्पष्ट हो चुका है कि यदि समय रहते इस काले कारोबार पर लगाम नहीं लगाई गई तो परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं। गोरखपुर के चिड़ियाघर इलाके में एक महिला को सिर्फ 50 हजार रुपये दिए गए थे, लेकिन सूदखोरों ने उससे 10 लाख रुपये वसूल लिए। इतना ही नहीं, सादे कागजात पर हस्ताक्षर कराने के बाद न केवल ब्लैकमेल कर शारीरिक शोषण किया गया, बल्कि विरोध करने पर उसके घर में घुसकर मारपीट की गई और गहने, कपड़े तक उठा ले गए। इस मामले में छह लोगों पर डकैती, छेड़खानी, मारपीट और साहूकारी अधिनियम के तहत केस दर्ज किया गया।

यह कोई इकलौती घटना नहीं थी। गोरखपुर में सूदखोरों के उत्पीड़न से परेशान होकर कई लोगों ने आत्महत्या तक कर ली। दिसंबर 2023 में गोला कस्बे का एक दुकानदार सूदखोरों की प्रताड़ना से फंदे पर झूल गया। समय पर पहुंची पुलिस ने उसकी जान बचाई। इससे पहले दिसंबर 2022 में पिपराइच के जंगल धूसड़ में एक पुरोहित ने पत्नी संग आत्महत्या कर ली थी। नवंबर 2022 में शाहपुर के गीता वाटिका में सिलाई करने वाले एक व्यक्ति ने दो बेटियों के साथ जान दे दी थी। चिलुआताल के भंडारों में सैलून चलाने वाले युवक की मौत और राजघाट निवासी व्यापारी द्वारा पूरे परिवार को खत्म कर खुदकुशी करने की घटना भी इसी श्रृंखला का हिस्सा रही है।

उत्तर प्रदेश के बाजारों, चौराहों, यहां तक कि गांवों में भी कुछ दबंग किस्म के लोग ब्याज पर रुपये देने का धंधा कर रहे हैं। इनमें से किसी के पास कानूनी लाइसेंस नहीं है। जो लोग समय पर पैसा नहीं लौटा पाते हैं, उनसे मूलधन से कई गुना रकम वसूली जाती है। ब्याज पर ब्याज, और फिर दंड। यह पूरी प्रक्रिया गरीब आदमी को मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से तोड़ देती है।

अस्पताल में जख्मी ग्रामीण

जनवरी 2023 में बरेली के सिरौली क्षेत्र में एक महिला ने थाने के सामने ज़हर खाकर आत्महत्या की कोशिश की। वजह थी सूदखोरों की लगातार धमकियां और हर महीने ‘ब्याज’ के नाम पर की जा रही जबरन वसूली। महिला का परिवार पहले ही मूल कर्ज से तीन गुना ज्यादा राशि चुका चुका था, फिर भी राहत नहीं मिली। प्रशासन ने तत्काल कार्रवाई करते हुए केस दर्ज किया। ऐसी ही त्रासदी 2021 में एक व्यापारी के साथ घटी, जो सूदखोरी से परेशान होकर अपना व्यवसाय बंद कर बरेली छोड़ गया। धमकियों और आर्थिक शोषण ने उसे पूरी तरह तोड़ दिया था, लेकिन उस समय पुलिस की ओर से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।

दमखोदा गांव के किसान छेदा लाल उपाध्याय ने बताया कि 1.90 लाख रुपये के कर्ज पर वह 1.96 लाख चुका चुके हैं, बावजूद इसके सूदखोर अब उनसे 5 लाख की मांग कर रहे हैं। जमीन कब्जाने की धमकी से उनका परिवार भय में जी रहा है। यह साफ संकेत है कि सूदखोरी अब एक संगठित अत्याचार का रूप ले चुकी है।

एक और दिल दहला देने वाली घटना 28 जून 2019 को आगरा के रामपुर गांव में हुई, जहां 60 वर्षीय किसान रामप्रकाश ने पांच लाख रुपये के कर्ज के बोझ तले आत्महत्या कर ली। उसमें एक हिस्सा बैंक का था, बाकी गांव के सूदखोरों का। परिजनों के अनुसार वह कई दिनों से तनाव में था और अंततः खेत में जाकर फांसी लगा ली।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, मुजफ्फरनगर में यह कारोबार अधिकतर बिना लाइसेंस के, अवैध रूप से चल रहा है। शहर के लगभग हर मोहल्ले, चाहे वो खालापार हो या पॉश कॉलोनियां, इन सूदखोरों का जाल फैला हुआ है। गरीब, मजदूर और जरूरतमंद इनके चंगुल में जल्दी फंसते हैं, और उन्हें छोटी रकम के बदले भारी कीमत चुकानी पड़ती है। कई बार अपना मकान  और कई बार आत्मसम्मान। जिले के खालापार की सईदा ने एक साहूकार से तीन लाख रुपये का कर्ज लिया। बदले में मकान का पांच लाख में एग्रीमेंट कराया गया। ब्याज बढ़ते-बढ़ते रकम 23 लाख पहुंच गई। जब साहूकार ने मकान कब्जाने की कोशिश की, सईदा ने पांच लाख वापस किए, लेकिन साहूकार ने धोखाधड़ी और अमानत में खयानत का केस दर्ज करा दिया। हालांकि बाद में पुलिस ने इस केस में एफआर लगा दी।

लद्दावाला के रिक्शा चालक अनीस की कहानी और भी दर्दनाक है। अपनी बच्ची की बीमारी में 30 हजार रुपये का कर्ज लिया, लेकिन लौटाने में असमर्थता के चलते सूद बढ़कर चार लाख हो गया। अंततः अनीस को अपना मकान साहूकार को सौंपना पड़ा। रामपुरी निवासी सब्जी विक्रेता सुभाष कश्यप ने 50 हजार का कर्ज लिया, और लौटाए एक लाख 80 हजार। ऐसी कहानियां मुजफ्फरनगर ही नहीं, समूचे उत्तर प्रदेश में आम होती जा रही हैं।

गांव-शहर सभी इसके चंगुल में

सूदखोरी का अवैध कारोबार आज सिर्फ़ शहरों तक सीमित नहीं है, बल्कि गांवों में भी इसकी गहरी जड़ें फैल चुकी हैं। एक ओर जहां शहरों में दबंग और लाइसेंसधारी लोग सूद पर पैसे बांट रहे हैं, वहीं दूसरी ओर गांवों में महिलाएं भी छोटे स्तर पर यह काम कर रही हैं। फर्क बस इतना है कि शहरों में यह कारोबार अधिक संगठित और भय पैदा करने वाले रूप में है, जबकि गांवों में महिलाएं इसे अपने व्यवहार और संबंधों के सहारे चला रही हैं।

शहरों में सूदखोर अपने कर्जदारों से बाकायदा स्टांप पेपर पर लिखवा लेते हैं। सूत्र बताते हैं कि 50 हजार रुपये का कर्ज देने वाले कई सूदखोर 3 से 10 प्रतिशत मासिक ब्याज वसूलते हैं। कई स्थानों पर तो यह ब्याज प्रतिदिन के हिसाब से तय होता है। खासकर फलमंडी और सब्जीमंडी जैसे इलाकों में काम करने वाले ठेले और खोमचे वालों को सुबह 1000-2000 रुपये उधार देकर शाम तक 200 से 400 रुपये तक अधिक वसूले जाते हैं। यानी एक ही दिन में 20 प्रतिशत तक की वसूली!

कुछ सूदखोर कर्ज देने के बाद चुप्पी साध लेते हैं, लेकिन सूद की रकम जोड़ते-जोड़ते वह मूलधन इतना बड़ा बना देते हैं कि कर्जदार की जमीन या गहने बिकवाना पड़ता है। कई बार कर्जदार दबाव और शर्मिंदगी के चलते गांव या शहर छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं।

सूदखोरों ने नील को यहीं दी तालिबानी सजा

गांवों में सूदखोरी का तरीका थोड़ा अलग है लेकिन परिणाम उतने ही खतरनाक। ग्रामीण सूदखोर आमतौर पर गरीब किसानों और मजदूरों को थोड़ी-थोड़ी रकम पर कर्ज देते हैं। बदले में उनसे खेत-खलिहान में मुफ्त में काम करवाया जाता है। जब तक कर्ज नहीं चुकता, तब तक वे सूदखोर के घर मजदूरी करते रहते हैं। यानी एक तरफ़ कर्ज और दूसरी तरफ़ मुफ्त श्रम।

गांवों में कुछ महिलाएं भी सूदखोरी में शामिल हैं। हालांकि उनका तरीका थोड़ा नरम होता है। वे आमतौर पर रिश्तेदारी या जान-पहचान के सहारे 1000-2000 रुपये का कर्ज देती हैं और महीने की पहली तारीख से ही सूद मांगने लगती हैं। उनके प्रेमभाव और सामाजिक रिश्ते के दबाव में कर्जदार हर हाल में सूद चुका देता है।

क्या कहता है साहूकारी कानून

सरकारी नियम के मुताबिक साहूकारों को तीन साल के लिए पंजीकरण कराना होता है और हर साल 20 से 60 रुपये तक की फीस देनी होती है। इस प्रक्रिया से बचने और कड़ी निगरानी से दूर रहने के लिए कई साहूकार बिना रजिस्ट्रेशन ही कारोबार कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश साहूकारी अधिनियम 1976 के अनुसार किसी को भी सूद पर कर्ज देने के लिए पंजीकृत होना अनिवार्य है। इस अधिनियम के तहत साहूकार 12 से 14 प्रतिशत वार्षिक ब्याज तक ही वसूल सकते हैं। इससे अधिक ब्याज लेने पर उनके खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई हो सकती है।

हालांकि ज़मीनी सच्चाई यह है कि बिना लाइसेंस वाले सूदखोर खुलेआम 60 से 120 प्रतिशत वार्षिक ब्याज वसूल रहे हैं और प्रशासन को तब तक खबर नहीं होती जब तक कोई लिखित शिकायत न आए। सूदखोर आमतौर पर 10 से 20 प्रतिशत प्रति माह की दर से ब्याज वसूलते हैं। यदि कोई व्यक्ति 1 लाख रुपये लेता है, तो हर महीने 10-20 हजार रुपये ब्याज चुकाना होता है। अगर एक महीने भी चूक हुई, तो मूलधन पर ही ब्याज जुड़ता जाता है। इसी चक्रवृद्धि ब्याज के जाल में फंसकर लोग अंततः मकान के एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर कर देते हैं। कई बार सूदखोर दबाव बनाने के लिए पीड़ितों की इज्जत से भी खिलवाड़ करते हैं।

जब पीड़ित थाने पहुंचते हैं, तो साहूकार दस्तावेज़ दिखाकर यह साबित कर देते हैं कि उन्होंने कर्ज नहीं दिया, बल्कि मकान खरीदा है। पुलिस के पास दस्तावेज़ों के आधार पर कार्रवाई करने के सिवा कोई चारा नहीं होता, और पीड़ित ही फंस जाते हैं। कोरोना लॉकडाउन ने हालात और बदतर कर दिए। व्यापार-रोज़गार बंद होने से कई लोग ब्याज नहीं चुका पाए। इससे उनकी देनदारी और बढ़ती चली गई, और अब स्थिति यह है कि कुछ को अपने मकान से हाथ धोना पड़ा है।

सूदखोरी अब सिर्फ एक आर्थिक अपराध नहीं, बल्कि सामाजिक त्रासदी बन चुकी है। यूपी के एक प्रशासनिक अधिकारी राजेश कुमार सिंह कहते हैं कि बैंकिंग प्रणाली काफी सरल और सुरक्षित हो चुकी है। लोगों को चाहिए कि वे बैंकों से ही ऋण लें और बाहरी दबंगों या अज्ञात व्यक्तियों से कर्ज लेने से बचें। जब तक कोई शिकायत नहीं आती, प्रशासन भी कार्रवाई नहीं कर सकता।

चंदौली के एक्टिविस्ट अजय राय कहते हैं, “चंदौली जैसे ग्रामीण और अर्ध-शहरी जिलों में बैंकों की पहुंच सीमित है। छोटे दुकानदार, किसान, सब्जी बेचने वाले, रिक्शावाले या पान वाले जैसे लोग बैंक की जटिल प्रक्रिया और गारंटी सिस्टम में फिट नहीं बैठते। उन्हें छोटी-छोटी जरूरतों के लिए जब पैसे चाहिए होते हैं, तो बैंक या सरकारी योजना नहीं बल्कि स्थानीय सूदखोर ही सबसे आसान रास्ता लगते हैं।”

“उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में बैंकिंग की कमी, माइक्रो फाइनेंस का न पनप पाना और प्रशासनिक अनदेखी मिलकर एक ऐसा कॉकटेल बना चुके हैं, जिसमें गरीब आदमी या तो कर्ज में डूबता है, या फिर इज्जत और जान गंवाता है। यहां न कोई ठोस रणनीति बनी, न कोई भरोसेमंद लोकल नेटवर्क खड़ा हो सका। नतीजा यह हुआ कि आंध्र प्रदेश जैसी जगहों से आईं कंपनियां भी टिक नहीं पाईं और वापस लौट गईं। इसका सबसे बड़ा असर उन लोगों पर पड़ा जिनके पास बैंक लोन लेने के लिए कोई दस्तावेज, गारंटी या नेटवर्क नहीं था।”

अजय कहते हैं, “भारत सरकार ने सिडबी के माध्यम से माइक्रोफाइनेंस बढ़ाने की योजनाएं बनाईं, लेकिन यूपी में जमीनी स्तर पर न उनका प्रचार हुआ, न अमल। आज भी हजारों लोग नहीं जानते कि ब्याज पर पैसा देना एक अपराध है। पुलिस, मीडिया और खुद पीड़ितों को भी इसकी जानकारी नहीं होती। नतीजतन सूदखोरी कानूनी जाल से बचती रही और खामोशी से बढ़ती रही। सूदखोरों का साहस इस कदर बढ़ चुका है कि वे पीड़ितों को खुलेआम धमकी देते हैं, “पुलिस को बुला लो, वो भी हमारा कुछ नहीं कर सकती।”

इस रेस्टुरेंट में पहले हुआ झगड़ा

“चंदौली प्रशासन को अब सतर्क होने की आवश्यकता है। गोरखपुर की घटनाएं सबक हैं और वक्त रहते अगर इन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया तो यहां भी वही हालात बन सकते हैं। पुलिस को चाहिए कि ऐसे लोगों की पहचान कर सूची बनाए, साहूकारी अधिनियम के तहत मुकदमे दर्ज करे और जरूरत पड़ी तो गैंगस्टर एक्ट तक की कार्रवाई करे। साथ ही, ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में बैंकिंग और माइक्रोफाइनेंस की सुविधाएं बेहतर करनी होंगी ताकि लोग मजबूरी में सूदखोरों के पास न जाएं।”

सूदखोरों के चंगुल में किसान क्यों?

चंदौली के प्रगतिशील किसान रतन सिंह कहते हैं, “सूदखोरी की समस्या उतनी व्यापक नहीं है जितनी दिखाई देती है। वास्तव में आज के समय में सभी किसान साहूकारों से कर्ज नहीं ले रहे। जो किसान बैंकिंग व्यवस्था से कटे हुए हैं, जिन्हें बैंक से लोन नहीं मिल पाता, या जिनका सिविल स्कोर खराब है, वे ही मजबूरीवश सूदखोरों के चंगुल में फंसते हैं।

“आज साहूकार दो तरह से पैसा उधार देते हैं या तो सीधा ब्याज पर, या फिर फसल या ज़मीन/ट्रैक्टर जैसी संपत्ति के एवज में। पहले के समय में ‘रेहन प्रणाली’ थी, जिसमें लोग अपनी ज़मीन, ट्रैक्टर या भैंस साहूकार के पास गिरवी रख देते थे, लेकिन अब वह कानूनी रूप से अमान्य हो चुकी है। इसके बजाय अगर कोई संपत्ति अस्थायी तौर पर किसी को देनी हो, तो रजिस्ट्री कार्यालय से वैधानिक ‘किरायेदारी अनुबंध’ (Rent Agreement) कराना जरूरी है। लेकिन आज भी गांवों में मुंहजबानी समझौतों पर ही चीज़ें चल रही हैं, जो कि जोखिम भरा है।”

रतन बताते हैं, “मेरे पास दो ऐसी घटनाएं आईं हैं जो गंभीर चिंता का विषय हैं। पहली घटना चंदौली के सिकठा गांव की है, जहां बंसी गोड़ का बेटा अपना ट्रैक्टर एक साहूकार के पास रेहन रख आया। दूसरी घटना सबल जलालपुर के धीरज सिंह की है, जिन्होंने ढाई लाख रुपये के एवज में अपना ट्रैक्टर किसी को दे दिया। अब जब तक वो रकम वापस नहीं करेंगे, ट्रैक्टर पर उनका अधिकार नहीं रहेगा। ये सब कानून की दृष्टि से अनुचित है। इस तरह की व्यवस्था में आप केवल रेंट एग्रीमेंट के तहत ट्रैक्टर या ज़मीन दे सकते हैं, न कि मालिकाना हक।”

“गांवों में आज भी बहुत लोग मजबूरी में कर्ज लेते हैं। ये मजबूरी कभी खेती की लागत, बेटी की शादी, बीमारी या शिक्षा के खर्च के रूप में सामने आती है। इसे केवल किसान की अज्ञानता कहना उचित नहीं है। बैंकों की जटिल प्रक्रियाएं, भ्रष्टाचार, और घूसखोरी भी इसके लिए उतने ही जिम्मेदार हैं। कई बैंक अफसर बिचौलियों के ज़रिये किसानों को लोन दिलवाने की कोशिश करते हैं, जिनसे किसान ठगे जाते हैं।”

रतन यह भी कहते हैं, “केसीसी (Kisan Credit Card) योजना में जब किसान डिफॉल्टर हो जाते हैं, तब उन्हें ब्लैकलिस्ट कर दिया जाता है। इसके बाद वे दोबारा बैंक से लोन लेने में असमर्थ हो जाते हैं। और फिर उन्हें साहूकारों की शरण लेनी पड़ती है। अगर किसान का सिविल स्कोर ठीक है, तो बैंक भी आसानी से लोन देते हैं। अभी एसबीआई जैसे बैंक आवास या प्लॉट खरीदने के लिए भी ऋण दे रहे हैं, लेकिन वहां भी भ्रष्टाचार की वजह से जरूरतमंद किसान पीछे रह जाते हैं।”

“एक और उदाहरण बताता हूं। मानिकपुर के अनिल मौर्य ने किसी से ज़मीन लेकर खेती शुरू की। लेकिन जब उन्होंने उस ज़मीन पर एक स्थायी ढांचा खड़ा किया, तो जमीन मालिक ने ज़मीन वापस ले ली। ये केवल इसलिए हुआ क्योंकि कोई लिखित समझौता नहीं था। अगर रेंट एग्रीमेंट होता तो ये स्थिति नहीं आती। गांवों में आज भी ‘मुंहजबानी’ समझौतों पर बड़ा भरोसा किया जाता है, लेकिन अब समय आ गया है कि किसानों को कानूनी जानकारी दी जाए और बैंकिंग व्यवस्था को भ्रष्टाचारमुक्त बनाया जाए। तभी हम सूदखोरों के शिकंजे से किसानों को मुक्त कर पाएंगे।”

तेजी से क्यों पनप रहे हैं सूदखोर?

चंदौली में ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के अध्यक्ष आनंद सिंह का कहना है कि जिले के अधिकांश किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल रहा। सरकारी खरीद व्यवस्था की एक बड़ी खामी यह है कि भुगतान केवल बैंक खातों के माध्यम से किया जाता है, जबकि अनेक किसानों के पास बैंक खाते ही नहीं हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें मजबूरन बिचौलियों के सहारे जाना पड़ता है। जब किसान सालभर की मेहनत के बाद भी फसल बेचकर मुनाफा नहीं कमा पाता, तो वह अपने परिवार का गुज़ारा कैसे करेगा और कर्ज कैसे चुकाएगा?”

“चंदौली के किसानों के पास आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है। जिले में कुछ ऐसे व्यापारी हैं जो बीज और खाद का व्यवसाय करते हैं और किसानों को कर्ज भी देते हैं। इस ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’ व्यवस्था में यही लोग बाद में किसानों की फसलें औने-पौने दामों पर खरीद लेते हैं और बड़ा लाभ कमा लेते हैं।”

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने प्रदेश में बढ़ती सूदखोरी और किसानों की आत्महत्या को लेकर पिछले दिनों एक भावुक बयान जारी किया था। उन्होंने कहा है कि, “भाजपा सरकार की नीतियों ने किसान और नौजवान को तोड़ दिया है। महंगाई और कर्ज के बोझ तले दबे लोग जब बैंकों से मदद की आस लेकर जाते हैं तो वहां से उन्हें निराशा मिलती है, और जब मजबूरी में वे सूदखोरों से पैसा लेते हैं, तो वही पैसा उनकी जान का दुश्मन बन जाता है।”

अखिलेश यादव ने कहा, “इटावा में एक युवा किसान ने सूदखोरों की प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर ली। हर दिन साहूकारों की धमकियां, वसूली और अपमान का बोझ वह नहीं सह सका। यह अकेली घटना नहीं है।बलिया, प्रयागराज, लखनऊ, कानपुर, शाहजहांपुर से लेकर इटावा तक सूदखोरों ने गरीबों का जीना दूभर कर दिया है।”

उन्होंने कहा कि पिछले 10 वर्षों में देशभर में एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं, जिनमें बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश की है। “भाजपा सरकार ने जनता से झूठे वादे किए, लेकिन जमीन पर कोई राहत नहीं दिखाई देती। किसानों को बैंकों से कर्ज नहीं मिलता क्योंकि सरकारी व्यवस्था इतनी जटिल है कि गरीब किसान उन प्रक्रियाओं को पार ही नहीं कर पाता।”

सपा अध्यक्ष ने कहा, “जब बैंकों से दरवाज़े बंद हो जाते हैं, तो मजबूरी में किसान सूदखोरों के पास जाता है। वहां उसे इतना भारी ब्याज भरना पड़ता है कि उसकी ज़िंदगी का हर सपना दम तोड़ देता है। यह बहुत ही दुखद और क्रूर सच्चाई है कि इस देश में आज भी किसान अपनी ही ज़मीन पर कर्ज के बोझ से मरने को मजबूर है। सूदखोरी के खिलाफ सख्त कानून बने, बैंकों से कर्ज प्रक्रिया सरल की जाए, और हर पीड़ित परिवार को न्याय व सहायता मिले। उन्होंने कहा, “समाजवादी पार्टी किसानों, मजदूरों और नौजवानों की आवाज़ है और हम इस लड़ाई को विधानसभा से लेकर सड़क तक लड़ते रहेंगे।”

बनारस के फार्मर एक्टिविस्ट बल्लभ पांडेय कहते हैं, “अवैध सूदखोरी आज महज़ एक आर्थिक अपराध नहीं, बल्कि सामाजिक त्रासदी बन चुकी है। यह समस्या केवल इसलिए नहीं पनप रही कि कुछ लोग जरूरतमंदों की मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं, बल्कि इसलिए भी क्योंकि सरकारी बैंकिंग तंत्र आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है। जब एक गरीब या मध्यमवर्गीय व्यक्ति बैंकों की जटिल प्रक्रियाओं से हताश होता है, तो वह मजबूरी में सूदखोरों की ओर रुख करता है। वहीं, सूदखोर बिना किसी कानूनी दायरे में आए, 60% से 120% सालाना ब्याज वसूलते हैं, और वसूली के लिए हिंसा, अपमान और दबाव जैसे अमानवीय हथकंडे अपनाते हैं।

“उत्तर प्रदेश के सभी जिले में महाजनों का ऐसा जाल फैला हुआ है कि एक बार कोई किसान इसमें फंस जाए तो फिर निकलना मुश्किल हो जाता है। सालों की कोशिश के बावजूद कर्ज घटने की बजाय बढ़ता ही जाता है। जब सारी उम्मीदें टूट जाती हैं, तो कई किसान आत्महत्या जैसे भयावह कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं। सूदखोरी विरोधी हेल्पलाइन, सरल और त्वरित ऋण प्रणाली, जनजागरूकता और पीड़ितों की सुरक्षा जैसे कदम न सिर्फ इस कुप्रथा पर रोक लगा सकते हैं, बल्कि समाज के सबसे कमजोर तबकों-गरीबों, मजदूरों और छोटे व्यापारियों को राहत भी दे सकते हैं।”

वल्लभ पांडेय कहते हैं, “सरकार को चाहिए कि वह सबसे पहले इन साहूकारों और बिचौलियों के शिकंजे को तोड़े, लेकिन अफ़सोस की बात है कि वह तमाशबीन बनी हुई है। हमारे देश में किसानों की आमदनी आज भी एक चपरासी से कम है। उन्हें न तो फसलों का वाजिब दाम मिलता है, न ही उपज के भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था है, और न ही फसल खराब होने पर कोई मुआवज़ा सुनिश्चित है। ये समस्याएं आज की नहीं हैं, बल्कि वर्षों से चली आ रही हैं। सरकारें बदलती रहीं, पर किसानों की हालत जस की तस बनी रही।”

“चंदौली में सूदखोरी का धंधा गरीबी की मजबूरी, बैंकिंग तंत्र की अनुपलब्धता और प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा है। जब तक लोगों को कानूनी और सुलभ आर्थिक मदद नहीं मिलेगी, तब तक सूदखोर इसी तरह डर, लालच और हिंसा से लोगों को गुलाम बनाते रहेंगे। इस चक्र को तोड़ने के लिए एकजुट सरकारी प्रयास, मीडिया जागरूकता और सामाजिक चेतना की ज़रूरत है। यदि अब भी हम नहीं चेते, तो सूदखोरी हमारी सामाजिक संरचना की जड़ों को खोखला कर देगी और एक दिन यह आर्थिक गुलामी का सबसे वीभत्स रूप बनकर हमारे सामने खड़ी होगी। अब वक्त है बोलने का, कार्रवाई का और न्याय सुनिश्चित करने का।”

(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं और बनारस में रहते हैं)

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