कोरोना वायरस और लॉकडाउन ने शहरों में भयानक आर्थिक संकट को जन्म दिया है। इसके अहम पहलूओं से अभी भी हम अछूते हैं। शहर में रहने वाली कामकाजी महिलाओं से काम छिन गया है। जॉब का छिन जाना उन पर कहर बनकर टूटा है। राजधानी में बतौर स्कूली अध्यापिका, रेशमा और प्रिया उस कहानी को बयां करती हैं। पहली दफा कमाने वाली, घर की एकमात्र कमाऊ सदस्य के रूप में, वो चाहे ब्यूटिशियन, प्राइवेट स्कूल टीचर, हाउस कीपिंग स्टॉफ, प्रोजेक्ट सुपरवाइजर, रेस्टोरेंट और बार स्टॉफ के तौर पर हो, ऐसी अनेकों महिलाएं हैं जो अपने परिवारों में काम पर जाने वाली पहली पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं। इनमें से कईयों ने छोटे कस्बों से अपने सपनों की उड़ान भरने के मकसद से शहर का रुख किया था। अब जॉब मार्केट से बाहर कर दिए जाने के कारण, वे कर्ज के बोझ से दबी हैं। इनमें से कुछ ने इन हालात से जूझने के लिए घरेलू सामान बेचने शुरू कर दिए हैं, जबकि बाकी जिन स्थानों से आई थीं, उन जगहों के लिए लौटना शुरू कर दिया है। इन सभी को एक अदद नौकरी का बेसब्री से इंतजार है।
इस इंतजार में कुछ और वक्त लग सकता है। यह देखते हुए कि राजधानी में कोरोना के मामले एक बार फिर से तेजी से उठान पर हैं और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के शादी-ब्याह में इकट्ठा होने पर एक बार फिर से अंकुश लगाने के निर्णय और बाजारों में नियमों के पालन में ढिलाई पर अस्थाई तौर पर बंदी की इच्छा की वजह से नौकरी और काम के हालात खराब हुए हैं।
यदि ऐसा होता है तो जो लोग बर्बादी की कगार पर हैं, यह निश्चित तौर पर उनके लिए एक और बड़ा झटका साबित होने वाला है। उदाहरण के तौर पर 34 वर्षीया मेहरुनिस्सा मदनगीर स्थित किराए के मकान में रहती हैं। उन्हें लॉकडाउन के दौरान दिल्ली बार में बाउंसर के अपने काम से हाथ धोना पड़ा है। 29 वर्षीया रेशमा, सोशल वर्क में पोस्ट-ग्रेजुएट हैं। उन्हें अपने एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट, जिससे उन्हें 24,000 रुपये प्रतिमाह की आय हो जाती थी, छूट जाने के बाद अपनी चार साल की बेटी को अपने माता-पिता के पास रहने के लिए भेजना पड़ा है। वे कहती हैं, “यदि मैं कुछ भी नहीं कमा पा रही हूं तो मैं अपनी बच्ची की देखभाल करने में समर्थ नहीं हूं। मैं उसके लिए दिन में एक गिलास दूध तक का इंतजाम कर पाने में अक्षम हूं। सिर्फ एक मां ही ये दर्द समझ सकती है।” उनके पति पिछले एक साल से बेरोजगार बैठे थे और पिछले महीने ही उनकी एक पेट्रोल पंप पर नौकरी लगी है।
दक्षिणी दिल्ली के संगम विहार में रहने वाली एक 40 वर्षीया प्राइवेट स्कूल में काम करने वाली अध्यापिका के पास 12,000 रुपये प्रति माह की नौकरी अप्रैल माह से नहीं रही। वह बताती हैं, “मेरे उपर करीब 40,000 रुपये का कर्जा हो गया है। मैंने ये रकम कुल 11 लोगों से उधार ले रखी है। पांच महीने बाद जाकर मुझे बाउंसर की नौकरी मिली है, लेकिन तनख्वाह कम है। मुझे इस काम में शर्मिंदगी होती है, मेरे परिवार ने ऐसी गरीबी कभी नहीं देखी थी।”
दिल्ल्ली के मूलचंद की 21 वर्षीया प्रिया ब्यूटिशियन है। उन्हें हर महीने 10,000 और ऊपर से टिप्स मिल जाया करती थी। लॉकडाउन में उनका यह रोजगार भी खत्म हो गया, जबकि उनके पिता को भी ड्राई क्लीनिंग स्टोर वाले काम से हाथ धोना पड़ा है। वे कहती हैं, “हमारे पास कोई बचत नहीं थी, सिर्फ कर्ज है। मैं किसी भी प्रकार के काम के लिए तैयार हूं। राशन के नाम पर, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की ओर से छोले मिल रहे हैं, वही हम खा रहे हैं। हम मध्य वर्ग के लोग हैं और बजाय आगे बढ़ने के हम पीछे की ओर जा रहे हैं।”
24 साल की आरती कश्यप, जिनके आठ भाई-बहन हैं, और घर पर बिस्तर पकड़ चुके बीमार पिता हैं। दिल्ली के एक निजी संस्थान में प्रोजेक्ट सुपरवाइजर के तौर पर हर महीने वे 25,000 रुपये कमा लेती थीं, जबकि उनकी मां जंगपुरा में घरों में काम करके 8,000 रुपये प्रति माह घर लाती थीं। अप्रैल में दोनों के पास से काम छिन गया था। इस माह की शुरुआत में फोन पर बात करते हुए कश्यप ने बताया था, “मैंने अपना बैंक बैलेंस चेक किया था, इसमें मात्र 235 रुपये थे। मेरी सारी बचत खत्म हो चुकी है।” उनके परिवार ने अपना पुराना टीवी और आलमारी बेच डाला है, और 50,000 रुपये एक रिश्तेदार से और 30,000 रुपये एक ब्याज पर पैसे देने वाले से ले रखे हैं।
कश्यप एक जीता-जागता उदाहरण हैं। एक ऐसे शहर में जहां उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने रेखांकित किया है कि यहां पर 60 प्रतिशत नौकरियां सर्विस सेक्टर में हैं, जिन पर इस महामारी की सबसे बुरी मार पड़ी है। इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए सिसोदिया ने कहा कि प्री-कोविड सुरक्षा के बावजूद लॉकडाउन के दुष्प्रभाव ने अब अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। “हमारी मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी और मुफ्त यात्रा जैसी योजनाओं से महिलाओं को काफी फायदा पहुंचा है। झुग्गीवासियों ने इस बात को मुझसे अनेकों बार कहा है। अब कठिन दिन चल रहे हैं, इसमें कोई शक नहीं है। हमने इस बात का पुर्वानुमान लगा लिया था, और यही वजह है कि मुख्यमंत्री ने लॉकडाउन खोलने पर जोर दिया था, जबकि शहरों में इसे नहीं किया गया था। अब हर कोई इसे अपना रहा है। इस बीमारी के अलावा भुखमरी, मानसिक अवसाद और बेरोजगारी जैसे अन्य मुद्दे भी हैं।”
इस सबका कुल जमा अर्थ यह हुआ कि कई कामकाजी महिलाओं के लिए जिन आशाओं आकांक्षाओं के साथ वे शहरों में एक बेहतर जिंदगी को देख पा रही थीं, वह पहले से कहीं ज्यादा छलावा हो चली है। कश्यप याद करते हुए कहती हैं, “हमने परिवार को संघर्ष करते देखा है, क्योंकि मेरे फैक्ट्री में काम करने वाले पिता घर पर अकेले कमाने वाले हुआ करते थे। जब मैंने और भाई ने नौकरी करनी शुरू की तो आर्थिक स्थिति में सुधार दिखना शुरू हो गया था और हमने एक बाइक खरीदी थी। इन छह सालों में छोटे-मोटे शौक पूरे किए। हमने सोचा संघर्ष के दिन अब खत्म हो गए और अब हम निम्न मध्यम वर्ग से मध्य वर्ग परिवार में पहुंचने ही वाले हैं… देखिये 2020 ने हमारे साथ क्या कर दिया, हम एक बार फिर से जिंदगी से जद्दोजहद करने में जूझ रहे हैं।”
नोएडा में रहने वाली 38 वर्षीया हेमलता, जिनके पास अध्यापन का 15 वर्षों का अनुभव है, आज खुद को बनाए रखने के लिए उन्हें छोटे-मोटे काम करके गुजारा चलाना पड़ रहा है। एक प्राइवेट स्कूल में स्पोर्ट्स टीचर के तौर पर कार्यरत हेमलता को स्कूल के बंद हो जाने की वजह से काम से छुट्टी दे दी गई थी। वह कहती हैं, “ऑनलाइन पीटी कौन करना चाहता है? अप्रैल से मैं 30-40,000 रूपये कर्ज ले चुकी हूं और तभी चुका पाऊंगी, जब मेरे हाथ में काम होगा। मैंने अपनी जिंदगी में कभी ऐसी आर्थिक तंगी वाले हालात नहीं देखे थे। मैं अपने घर का किराया तक नहीं चुका पा रही हूं। मैंने अपनी बेटी की स्कूल की फीस भी नहीं चुकाई है और बच्चे को ट्यूशन छुड़ाना पड़ा है।”
यदि परिवार के खर्चे हेमलता के लिए पहाड़ बने हुए हैं तो 24 वर्षीया पूजा दिवाकर जैसों के लिए स्वतंत्र रहने की कीमत चुका पाना वश से बाहर होता जा रहा है, जो आज से तीन साल पहले बरेली से दिल्ली आईं थीं। यह एक ऐसा कदम था जिसके चलते उनका अपने माता-पिता से रिश्तों पर असर पड़ा था, जो अपनी बेटी के ‘बड़े शहर’ में जाकर रहने के खिलाफ थे। उनके पास गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसेस में एक रेस्टोरेंट में गेस्ट रिलेशन एग्जीक्यूटिव के तौर पर 23,000 रुपये की मासिक नौकरी थी। अप्रैल में उनकी यह नौकरी जाती रही और पिछले छह महीनों से वे खाली हैं। दिवाकर कहती हैं कि वे दिल ही दिल में इस बीच रोती रही हैं, क्योंकि उनके सर पर कमरे के किराए के साथ-साथ बरेली में घर पर कॉलेज जाने वाली छोटी बहन को मदद करने को लेकर लगातार भय बना हुआ है।
उनके पास की सारी बचत खत्म हो गई तो अपने पिछले क्लाइंट से 8,000 रुपये उधार लेकर किसी तरह किराया चुकता किया है। इस महीने उसे एक नौकरी मिल गई है, लेकिन तनख्वाह पहले से कम है। दिवाकर कहती हैं, “छोटे शहरों में कोई ग्रोथ नहीं है। मेरे माता-पिता ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके बच्चे, वो भी लड़की दिल्ली जाकर रहने लगेगी। यहां पर विकल्प हैं… मैंने अनुवादक के तौर पर काम करने के मकसद से कनाट प्लेस में एक संस्थान में जर्मन सीखने के लिए एक लाख रुपये के आस-पास जमा कर लिए थे। मैं जिंदगी भर रेस्टोरेंट्स में ही काम करते नहीं रहना चाहती थी। मैं अनुवादक बनना चाहती थी। अब मुझे एक बार फिर से सब कुछ शुरू करना होगा। मेरा सपना मुझसे दूर जा चुका है।”
नौकरी कितनी महत्वपूर्ण है और इसकी पगार में परिवार के दबाव का मुकाबला करने और अपने लिए शहर में एक स्वतंत्र स्थान बना पाने का क्या जूनून होता है, इसे 34 वर्षीया मेहरुन्निसा शोकत अली को अच्छे से पता है। वह कहती हैं, “मैं एक सहारनपुर के एक परंपरागत मुस्लिम परिवार से हूं। यहां औरतों को बाहर काम करने की मनाही है। मैं इसके लिए सबसे पहले अपने अब्बू और भाई से लड़ी, फिर पड़ोसियों से और फिर मैं बाउंसर कहे जाने के लिए लड़ी, बजाय कि सिक्यूरिटी गार्ड कहे जाने के।”
एक समय उनके पास दो-दो काम थे। शाहपुर जाट में एक महिला व्यवसायी के पास निजी बाउंसर के तौर पर दोपहर के बाद का समय, और देर रात तक हौज़ खास विलेज के एक व्यस्त बार में काम। इन दो नौकरियों और टिप्स के सहारे उन्हें 45-50,000 रुपये प्रति माह की कमाई हो जाया करती थी।
वे कहती हैं, “जब पैसा आना शुरू हुआ तो मैं घर की रानी हुआ करती थी। हम अब गरीब नहीं थे…।” जब तक कि मार्च में जाकर बार वाला उनका काम नहीं छिन गया और वह महिला व्यवसायी पंजाब चली गईं। अली कहती हैं, “मेरे पास बैंक में 3.5 लाख बचत के तौर पर थे, और अब कुछ भी नहीं रहा।” अभी तक तो फिलहाल उन्होंने कोई कर्ज नहीं लिया है, लेकिन मदनगीर के अपने इस घर में अब प्रत्येक दिन उन्हें कुछ न कुछ चीजों से समझौता करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। “मुझे एक काम मिला है, लेकिन मैं नहीं जानती कि वे मुझे इसके एवज में कितना पैसा देंगे, शायद 15,000 रुपये प्रति माह दे दें। मैं इसे करुंगी, मेरे पास कोई और विकल्प भी नहीं है। “एक समय था जब हम ऊपर की पायदान पर चढ़ रहे थे, और अब लगता है किसी ने सीढ़ी छीन ली है।”
(इंडियन एक्सप्रेस से साभार।)
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