दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंघा के उत्तरी सिरे की तलभग तलहटी में स्थित साउथ लोहनाक लेक के फट पड़ने के बाद तीस्ता नदी में आई बाढ़ ने सिक्किम में जो तबाही मचाई है, वह इस सूबे ने पिछले 50 सालों में कभी नहीं देखी। जलवायु परिवर्तन को लेकर हो रही तमाम बातों के बावजूद इस तबाही में हमारा अपना योगदान सबसे ज्यादा है। अफसोस यह कि एक तो पहले ही उत्तर-पूर्व को लेकर देश के बाकी इलाकों में चिंता व जानकारी, दोनों ही कम है, और ऊपर से कथित मुख्यधारा मीडिया अपने हितों के अलावा बाकी चीजों से आंखें मूंद लेता है। सिक्किम में आई बाढ़ इसका सुबूत है।
बचपन में स्कूलों में जब सामान्य ज्ञान पढ़ाया जाता था तो कई नदियों को अलग-अलग इलाकों, सूबों, देशों की पीड़ा (अंग्रेजी में sorrow) कहा जाता था। ऐसा उन नदियों के बारे में कहा जाता था जो अक्सर उन इलाकों में बाढ़ से तबाही मचा देती थीं। हालांकि मुझे कभी समझ में नहीं आता था कि जीवनदायिनी नदियों को भला क्यों पीड़ा का नाम दिया जाता था। उन्हें अपने पीड़ा में तो हम खुद तब्दील करते हैं, अपने लालच व बेवकूफियों से। खैर, इसी सूची में तीस्ता नदी को सॉरो ऑफ सिक्किम कहा जाता था।
तीस्ता एक पहाड़ी नदी है। पहाड़, खास तौर पर हिमालयी पर्वतों में बहने वाली नदियों का स्वरूप और प्रवाह मैदानी नदियों से बिलकुल अलग होता है।
तीस्ता का रौद्र रूप मैंने पहली बार 1982 में देखा था जब मैं 13 साल की उम्र में अपने परिवार के साथ दार्जीलिंग से गंगटोक जा रहा था। उसके लिए आपको पहले नीचे तीस्ता नदी के किनारे तक उतरना होता है क्योंकि दार्जीलिंग ऊंचाई पर है। कालिम्पोंग के करीब से रास्ता जाता है। अगर कालिम्पोंग जाना हो तो फिर से शहर तक चढ़ाई चढ़नी होती है, क्योंकि वह ऊंचाई पर है, वरना आप नीचे से सीधे गंगटोक की तरफ जा सकते हैं। लिहाजा लंबा रास्ता तीस्ता नदी के किनारे-किनारे गुजरता है। अब तो सड़क काफी चौड़ी हो गई है, उस समय यह हाल नहीं था।
घनघोर बारिश के बाद भूस्खलन की वजह से दार्जीलिंग से गंगटोक का सफर पहले ही एक दिन लेट हो चुका था। दूसरे दिन जब हम बस से रवाना हुए तब भी रास्ता कोई अच्छे हाल में न था। एक जगह भूस्खलन इतना ज्यादा था कि सड़क पर वाहनों के निकलने का रास्ता बहुत कम बचा था। हमारी बस के ड्राइवर ने उसी में से बस को निकालने की कोशिश की। लेकिन उससे पहले उसने बस की सभी सवारियों को नीचे उतार दिया।
हमने पैदल वह हिस्सा पार किया और आगे सड़के के साफ हिस्से तक पहुंचे। पीछे पलटकर मैंने उस रास्ते को पार करती हमारी बस को देखा तो उसके नदी की तरफ के दोनों पहिये तकरीबन आधे नदी के ऊपर हवा में थे। उफनती तीस्ता उस जगह से बस कुछ ही मीटर नीचे बह रही थी। हम बस के बाहर थे, लेकिन उस दृश्य को देखकर रोंगटे खड़े हो गए थे। तीस्ता का रौद्र रूप पहली बार देखा था।
उसके बाद और भी मौके सिक्किम जाने के आए। साल 2009 में जब हम सिक्किम गए थे, तब हमें आज की तबाही की जड़ें दिखाई देने लगी थीं। बाकी भी सबको दिखाई दे रही होंगी- उन्हें भी, जिनकी आवाज मायने रखती होंगी- लेकिन हैरानी की बात है कि सबने चुप रहना पसंद किया।
साल 2009 में भी हमने सिक्किम का काफी लंबा हिस्सा घूमा था, खास तौर पर उत्तर सिक्किम का।
आइए, जरा इस इलाके का नक्शा थोड़ा समझते हैं। कंचनजंघा चोटी ठीक भारत-नेपाल सीमा पर है, यानी उसका पूर्वी सिरा भारत में है और पश्चिमी सिरा नेपाल में। उसके उत्तर में नेपाल में द्रोहमो चोटी है। इन दोनों चोटियों की तलहटी में उत्तर पूर्व में लोहनाक ग्लेशियर से बनी साउथ लोहनाक लेक है।
सिक्किम की राजधानी गंगटोक से जब हम उत्तर सिक्किम की तरफ जाते हैं तो करीब 110 किलोमीटर की दूरी पर चुंगथांग कस्बा है। चुंगथांग में दो नदियों का संगम होता है- लाचुंग चू और लाचेन चू। चुंगथांग से ये दोनों मिलकर तीस्ता नदी बन जाती हैं। यहां से तीस्ता सिक्किम को चीरकर पश्चिम बंगाल होते हुए बांग्लादेश में प्रवेश करती हैं और ब्रह्मपुत्र में मिल जाती है।
स्थानीय भाषा में चू शब्द नदी के लिए आता है। लाचुंग चू लाचुंग गांव की तरफ से आती है। चुंगथांग से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित लाचुंग गांव की गिनती दुनिया के सबसे खूबसूरत गांवों में से एक के तौर पर होती है। दरअसल लाचुंग चू उससे भी करीब 25 किलोमीटर आगे युमथांग घाटी से आती है। युमथांग सिक्किम की सबसे खूबसूरत जगहों में से और फूलों की घाटी के तौर पर विख्यात है। लाचुंग गांव और युमथांग के बीच ही शिंगबा रोडोडेंड्रोन सेंक्चुअरी है, जो बुरांश के फूलों का अपनी तरह का अकेला अभयारण्य है और यहां आपको इतने रंगों के बुरांश मिल जाएंगे जो आपने कहीं और नहीं देखे होंगे।
इसी तरह लाचेन चू नदी लाचेन गांव से आती है। चुंगथांग से दूसरा रास्ता लाचेन होते हुए गुरुडोंगमार लेक की तरफ जाता है, जो दुनिया की सबसे ऊंचाई पर स्थित झीलों में से एक है। लाचेन गांव इसी रास्ते पर करीब 30 किलोमीटर दूर है। लाचेन नदी का उद्गम लाचेन गांव से थोड़ा और ऊपर है। लाचेन से करीब चार किलोमीटर आगे हेमा गांव के पास दो नदियों का संगम है- गुरुडोंगमार लेक वाले रास्ते से आती हुई लाचेन चू और पश्चिम की तरफ से आती हुई ज़ेमू चू। जेमू चू नदी 6888 मीटर ऊंचे सिनिओलचू पर्वत की तलहटी में है। कंचनजंघा चोटी के पूर्वी सिरे से 28 किलोमीटर लंबा ज़ेमू ग्लेशियर निकलता है। इसे पूर्वी हिमालय क्षेत्र का सबसे बड़ा ग्लेशियर माना जाता है। ज़ेमू चू नदी को नाम व पानी, दोनों इसी ग्लेशियर से मिलते हैं।
लोहनाक ग्लेशियर को अपना नाम लोहनाक चोटी से मिला है। करीब 6070 मीटर ऊंचाई वाली यह चोटी नेपाल में स्थित है। यह चोटी भारतीय सीमा के निकट है इसलिए इसके पूर्वी सिरे से निकला लोहनाक ग्लेशियर सिक्किम की तरफ पसरता है। इस इलाके में कई और ग्लेशियर हैं। इन तमाम ग्लेशियरों की बर्फ तमाम धाराओं व छोटी-छोटी नदियों के रूप में दरअसल तीस्ता को सींचती हैं। यह पानी ज़ेमू चू नदी में, और उससे लाचेन चू में और फिर चुंगथांग में तीस्ता में मिल जाता है। लेकिन अगर किसी वजह से यह प्रवाह अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाए तो तेजी से विनाशलीला खड़ी कर सकता है, जैसा कि सिक्किम में हुआ।
चुंगथांग में लाचेन चू व लाचुंग चू के संगम के बाद तीस्ता नदी पर 1200 मेगावाट की तीस्ता III परियोजना बनी है। उस पर बने बांध के ढह जाने से ही 4 अक्टूबर 2023 को सिक्किम में यह विनाश देखने को मिला और बांध को लकर सालों से जाहिर की जा रही आशंकाएं सच साबित हो गईं। जारी..
सिक्किम त्रासदी-2: बांधों का मोह और तमाम चेतावनियों की उपेक्षा
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(लेखक ट्रैवल पत्रकार हैं और मौसम व पर्यावरण में गहरी रुचि रखते हैं।)
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