सिलिकॉन वैली बैंक: अभी तो सिर्फ एक बबूला फूटा है

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अमेरिका में सिलिकॉन वैली बैंक (एसवीबी) के संकट की खबर फैलने के साथ ही इसकी तुलना 2008 में लीमैन ब्रदर्स के फेल होने की घटना से की जाने लगी है। लीमैन ब्रदर्स के ढहने के साथ ही वह बैंकों और बीमा कंपनियों के कॉलैप्स होने की वह परिघटना शुरू हुई थी, जिसने देखते-देखते वैश्विक मंदी का रूप ले लिया था। अनेक अर्थशास्त्रियों की इस राय में दम है कि पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएं उस मंदी के प्रभाव से आज तक नहीं उबर पाई हैं। और अगर गहराई से गौर करें, तो एसवीबी के संकट के तार भी डेढ़ दशक पहले की उन घटनाओं से जुड़े नजर आएंगे।

चूंकि इतिहास में घटनाएं हमेशा एक जैसे क्रम से ही आगे नहीं बढ़ती हैं, इसलिए अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि कैलिफॉर्निया स्थित एसवीबी का संकट 2008 जैसी मंदी का जनक बन जाएगा। लेकिन यह तो साफ है कि अमेरिका की विनियामक संस्था के सिलिकॉन वैली बैंक (एसवीबी) को बंद कर देने के फैसले से पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों को गहरा झटका लगा है।

यह भी बिल्कुल स्पष्ट है कि एसवीबी का बंद होना एक वित्तीय बबूले का फूटना है। 2008 के बाद अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में अपनाई गई क्वांटीटिव ईजिंग की नीति के तहत बाजार में अत्य़धिक मुद्रा उपलब्ध कराई गई थी, जिससे बबूलों वाली अर्थव्यवस्था ने दुनिया के उन तमाम हिस्सों को अपने प्रभाव में लिया, जिन्होंने बिना किसी आलोचनात्मक समीक्षा के ‘वॉशिंगटन सहमति’ (यानी नव उदारवाद) की नीतियों को अपना लिया था।

क्वांटीटिव ईजिंग की नीति के तहत अमेरिका में तत्कालीन बराक ओबामा प्रशासन हर वर्ष 600 बिलियन डॉलर के अतिरिक्त नोटों की छपाई शुरू की थी। साथ ही वह ब्याज दर को शून्य के करीब ले जाया गया। इससे बाजार में मुद्रा की अधिकता हो गई। कारोबारियों को अत्यधिक सस्ता कर्ज उपलब्ध हुआ, जिसका निवेश उन्होंने शेयर बाजारों या बॉन्ड्स या सिक्युरिटीज (प्रतिभूतियों) की खरीदारी में किया। इससे जहां वास्तविक अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त बनी रही, वहीं शेयर बाजार उछलते रहे। एक बड़ी रकम का निवेश स्टार्ट अप कंपनियों में किया गया। लेकिन गौरतलब यह है कि ये कंपनियां भी मोटे तौर वित्तीय, सर्विस, या हाई टेक क्षेत्र में काम कर रही थीं।

यह ठीक उसी दौर की कहानी है, जब वास्तविक यानी उत्पादक अर्थव्यवस्था और उस पर आधारित विशाल जन समुदाय की आर्थिक मुश्किलें बढ़ती चली जा रही थीं। यह अंतर्विरोध 2020 में और फिर अश्लील रूप में खुल कर दुनिया के सामने आ गया, जब कोरोना महामारी के कारण लॉकडाउन के दौरान जहां लाखों लोगों की नौकरियां और आमदनी खतरे में पड़ी थी, उसी समय शेयर बाजारों और स्टार्ट अप्स के क्षेत्र में अभूतपूर्व खुशहाली देखने को मिली थी।

बहरहाल, महामारी के समय अमेरिका और दूसरे धनी देशों की सरकारों ने अपने लोगों को राहत पहुंचाने के लिए सीधे वित्तीय सहायता देन की नीति जरूर अपनाई। मगर उसके लिए भी अतिरिक्त मुद्रा की छपाई ही की गई। महामारी के बाद उसका स्वाभाविक परिणाम मुद्रास्फीति बढ़ने के रूप में सामने आया। पिछले साल फरवरी में यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के साथ ऊर्जा तथा कई अन्य महत्त्वपूर्ण कॉमोडिटी के अभाव ने मंहगाई की पहले ही गंभीर हो रही समस्या को और भीषण बना दिया।

इन्हीं परिस्थितियों में अमेरिका के सेंट्रल बैंक-फेडरल रिजर्व ने ब्याज दर बढ़ाने की नीति अपनाई है। अब तक वह इसमें लगभग चार प्रतिशत की बढ़ोतरी कर चुका है। लेकिन इससे महंगाई काबू में नहीं आई है। तो फेडरल रिजर्व का ताजा एलान है कि ब्याज दर बढ़ाने की नीति पर वह चलता रहेगा। इससे वित्तीय बाजारों में बेचैनी और बढ़ गई है। उसका पहला परिणाम एसवीबी के संकट के रूप में सामने आया है।

ब्रिटिश अखबार फाइनेंशियल टाइम्स ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि एसवीबी को दीर्घकालिक प्रतिभूतियों (सिक्युरिटीज) में किए गए निवेश पर भारी नुकसान हुआ है। एसवीबी ने 91 बिलियन डॉलर की रकम का निवेश ऐसी प्रतिभूतियों में किया था। बैंकिंग शेयरों में गिरावट के कारण उस रकम में शुक्रवार तक 15 बिलियन डॉलर की गिरावट आ चुकी थी। नतीजतन, बैंक के लिए अपनी वचनबद्धताओं को पूरा करना कठिन हो गया है।

इन तथ्यों पर गौर कीजिएः

* एसवीबी ने 80 बिलियन डॉलर से ज्यादा की ऐसी प्रतिभूतियां खरीदीं। इनमें से 97 प्रतिशत से अधिक की मैच्यूरिटी की अवधि दस साल थी। इन पर बैंक को 1.56 प्रतिशत ब्याज मिलना था।

* 2019 में एसवीबी में 61.7 बिलियन डॉलर की रकम जमा थी। 2021 में जब ईजी मनी का दौर अपने चरम पर था, तब यह रकम बढ़ कर 189.20 बिलियन डॉलर हो गई। लेकिन उस समय बाजार में ऋण की मांग नहीं थी। अगर बैंक ऋण ना दें और रकम जमा करते जाएं, तो उनका कारोबार चल नहीं सकता। आखिर जमा कराई गई रकम पर उन्हें ब्याज देना पड़ता है। ऐसी स्थिति में एसवीबी ने मोर्गेज बैक्ड सिक्युरिटी (मकान की गिरवी आधारित प्रतिभूतियों) में निवेश करने का फैसला किया।

* इसी बीच 2022 में फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों में बढ़ोतरी शुरू कर दी। इससे वित्तीय बाजार में उथल-पुथल का दौर आ गया। मकान के लिए ऋण और ईएमआई महंगा होने के कारण मॉर्गेज प्रतिभूतियों पर दबाव बढ़ता चला गया है।

* गुरुवार को बैंकिंग शेयरों और प्रतिभूतियों की कीमत में भारी गिरावट आई। इससे एसवीबी को 1.8 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ। उससे जमाकर्ताओं की रकम वापस करने की बैंक की क्षमता पर सवाल उठ खड़े हुए। इसी बीच अमेरिका की रेगुलेटर एजेंसी ने दखल दिया है।

गौरतलब है कि यह कहानी सिर्फ एसवीबी की नहीं है। उसके साथ सिर्फ इतनी बात हुई है कि उसका संकट खुल कर सामने आ गया है। असल में तमाम वित्तीय बाजारों से लेकर क्रिप्टो करेंसी तक के बाजार में संकट की झलक देखने को मिल रही है।
फेडरल रिजर्व ने जब ब्याज दरों में बढ़ोतरी शुरू की, तो कई अर्थशास्त्रियों ने इसका ऐसा नतीजा होने को लेकर चेतावनी दी थी।

लेकिन फेडरल रिजर्व की प्राथमिकता मुद्रास्फीति पर नियंत्रण है, जिसके तहत वह ब्याज दर में वृद्धि की नीति पर आगे बढ़ रहा है। अर्थशास्त्रियों ने बताया है कि महंगाई घटाने का एक और उपाय मूल्य नियंत्रण है, जो अतीत में कारगर हो चुका है। लेकिन वह नीति अपनाने पर कॉरपोरेट सेक्टर को क्षति होगी, जबकि आज के दौर में फेडरल रिजर्व की भूमिका कॉरपोरेट और निवेशकों के हितों के संरक्षक की बन चुकी है।

अचानक बेहद सस्ते कर्ज की नीति बदल जाने से पहले बहुत से विकासशील देशों का कर्ज संकट बढ़ा। फिर खुद अमेरिका में होम लोन और क्रेडिट कार्ड ऋण से उपभोक्ता दबाव में आए, क्योंकि उनकी ईएमआई बढ़ गई। अब यह बात बड़े बैंकों तक पहुंच गई है। एसवीबी की खबर आने के बाद यूरोपीय शेयर बाजारों में भारी गिरावट आई है। भारतीय बाजार पर इसकी प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली है, क्योंकि जब ये खबर आई, भारतीय शेयर बाजारों में सप्ताहांत की छुट्टी हो चुकी थी।

लेकिन यह खबर आ चुकी है कि अमेरिका में जो बबूला फूटा है, उसका स्टार्ट अप सेक्टर पर बहुत बुरा असर होगा। जो स्टार्ट अप्स प्रभावित होंगे, उनमें कई भारतीय भी हैँ। उनकी सूची भारतीय अखबारों ने छापी है। इस प्रभाव की वजह यह है कि एसवीबी ने स्टार्ट अप्स को ऋण देने के मामले में अपना प्राथमिकता क्षेत्र बना रखा था। इसलिए स्टार्ट अप्स ईजी मनी के दिनों में एक फूलते-फलते कारोबार के रूप में सामने आए थे। लेकिन अब ईजी मनी के दौर पर विराम लग चुका है।

स्पष्ट है कि वित्तीय पूंजीवाद के जिस संकट का अनुमान लगाया जा रहा था, उसने अब दस्तक दे दी है। इसका असर कितना व्यापक, गहरा और मारक होगा, यह आने वाले दिनों में ही जाहिर हो सकेगा।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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