जन्मदिवस पर विशेष: संयुक्त पंजाब के किसानों के रहबर सर छोटूराम

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“पलवल से पेशावर तक जो हल की मूठ पर हाथ रखता है और जिसके कुर्ते से मेहनत के पसीने की गंध आती है वो सब मेरे बेटे है”… किसानों के रहबर, सर छोटू राम के इन चंद शब्दों ने इतिहास के पन्नों में किसानों को न केवल एक महत्वपूर्ण स्थान दिया बल्कि उनकी आवाज़ को बुलंदी भी दी। शायद उनकी इसी बुलंदी की वजह से आज भी सर छोटूराम को किसानों का मसीहा कहा जाता है।

एक किसान का बेटा और देश के किसानों के हितों का रखवाला, जिसके लिए गरीब और जरुरतमन्द किसानों की भलाई हर एक राजनीति, धर्म और जात-पात से ऊपर थी। ब्रिटिश शासनकाल में उन्होंने किसानों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। सर छोटूराम को नैतिक साहस की मिसाल माना जाता है।

दीनबंधु सर छोटूराम का जन्म 24 नवम्बर 1881 में झज्जर के एक छोटे से गांव गढ़ी सांपला में किसान परिवार में हुआ था। झज्जर तब रोहतक जिले का ही हिस्सा था। 1880 के दशक में रोहतक पंजाब प्रांत का भाग था। रोहतक पंजाब की राजधानी लाहौर से बहुत दूर एक अलग-थलग पड़ा शहर था। पंजाब प्रांत भारत में उत्तर से रावलपिंडी से लेकर राजस्थान की सीमाओं तक 500 मील से अधिक दूरी तक फैला हुआ था।

सर छोटूराम का असली नाम राम रिछपाल था। चूंकि ये घर में सबसे छोटे थे तो इन्हें छोटू राम कहकर बुलाया जाने लगा। 11 साल की छोटी सी उम्र में ही उनकी शादी ज्ञानो देवी से हो गई थी। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा तो गांव के पास के स्कूल में हुई। पर वे आगे भी पढ़ना चाहते थे। इसलिए उनके पिता उनकी आगे की पढ़ाई के लिए साहूकार से कर्जा मांगने गये। पर वहां साहूकार ने उनका बहुत अपमान किया। अपने पिता के इस अपमान ने बालक छोटू राम के कोमल मन में विद्रोह के बीज बो दिए।

पढाई जारी रखने के लिए उन्होंने एक इसाई मिशनरी स्कूल में दाखिला ले लिया, जहां से उनके जीवन की पहली क्रांति की शुरुआत हुई। उन्होंने अन्य छात्रों के साथ मिलकर स्कूल के हॉस्टल के वार्डन के ख़िलाफ़ हड़ताल की, जिसकी वजह से स्कूल में उन्हें ‘जनरल रॉबर्ट’ के नाम से जाना जाने लगा।

साल 1905 में उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से ग्रेजुएशन की। आर्थिक हालातों के चलते उन्हें मास्टर्स की डिग्री छोड़नी पड़ी। उन्होंने कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह के सह-निजी सचिव के रूप में काम किया और यहीं पर साल 1907 तक अंग्रेजी के हिन्दुस्तान समाचारपत्र का संपादन किया। इसके बाद वे आगरा में वकालत की डिग्री करने चले गये।

साल 1911 में इन्होंने वकालत की डिग्री प्राप्‍त की और 1912 से चौधरी लालचंद के साथ वकालत करने लगे। चौधरी लालचंद पंजाब प्रांत के 20वीं सदी की शुरुआती दौर के राजनीतिक हस्तियों में से एक थे। उसी साल जाट महासभा का गठन हुआ। साथ ही अनेक शिक्षण संस्थानों की स्थापना हुई।

वकालत में भी उन्होंने नए आयाम जोड़े। उन्होंने झूठे मुकदमे न लेना, बेईमानी से दूर रहना, गरीबों को निःशुल्क कानूनी सलाह देना, मुव्वकिलों के साथ सद्‍व्यवहार करने जैसे सिद्धांतों को अपने वकालती जीवन का आदर्श बनाया। वकालत करने के बाद जब उस समय अधिकतर लोग ब्रिटिश इंडियन आर्मी और जाट प्रिंसली स्टेट में शामिल हो रहे थे तब छोटूराम ने राजनीति को चुना। और 1916 में कांग्रेस में शामिल हो गए। इससे पहले 1915 में उन्होंने अपना न्यूजपेपर जाट गजट भी लॉन्च कर दिया था।

देश के किसानों को एक करने के लिए उन्होंने यूनियनिस्ट पार्टी का गठन किया, जिसे जमींदार लीग के नाम से जाना गया। किसानों के लिए उनके अभियान और आंदोलनों के चलते छोटूराम भारतीय राजनीति का प्रमुख स्तंभ बन गये। उनकी कलम जब भी चलती, तो भारतीयों के साथ-साथ ब्रिटिश राज को भी झकझोर कर रख देती। लोगों के बीच उनके बढ़ते कद को देख, एक बार रोहतक के ब्रिटिश डिप्टी कमिश्नर ने अंग्रेजी सरकार से सर छोटूराम को देश-निकाला देने का प्रस्ताव दिया था। इस प्रस्ताव पर जब चर्चा हुई तो एक भी आवाज़ डिप्टी कमिश्नर के पक्ष में नहीं आई।

तत्कालीन पंजाब सरकार ने अंग्रेज हुक्मरानों को बताया कि ‘चौधरी छोटू राम अपने आप में एक क्रांति हैं। अगर उन्हें देश निकाला मिला तो फिर से देश में क्रांति होगी और इस बार हर एक किसान चौधरी छोटूराम बन जायेगा।’ सर छोटूराम के देश-निकाले की बात तो रद्द हो ही गयी पर साथ में उस कमिश्नर को उनसे माफ़ी भी मांगनी पड़ी।

ब्रिटिश राज में किसान उन्हें अपना मसीहा मानते थे। वे पंजाब प्रांत के एक बहुत आदरणीय मंत्री (राजस्व) थे और उन्होंने वहां के विकास मंत्री के तौर पर भी काम किया था। ये पद उन्हें 1937 के प्रोवेंशियल असेंबली चुनावों के बाद मिला था।

राजस्व मंत्री रहते हुए सर छोटू राम की पहल पर दो प्रमुख क़ानून बने। पहला था पंजाब रिलीफ़ इंडेब्टनेस एक्ट 1934 और दूसरा था पंजाब डेब्टर्स प्रोटेक्शन एक्ट 1936, जिससे किसानों को सूदखोरों के चंगुल से मुक्ति मिली। इन क़ानूनों की वजह से किसानों को ज़मीन का अधिकार मिलने का रास्ता साफ़ हुआ।

बताया जाता है कि कर्जा माफी अधिनियम न केवल किसानों के लिए था बल्कि लाहौर हाईकोर्ट के एक जज को किसानों के मसीहा का करारा जवाब था। दरअसल इसके पीछे की कहानी यह है कि ‘एक बार कर्जें में डूबे किसान ने लाहौर हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश से कहा कि वह बहुत गरीब है, अगर हो सके तो उसकी सम्पत्ति की नीलामी न की जाये।

तब न्यायाधीश ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था कि ‘छोटूराम नाम का एक आदमी है, वही ऐसे कानून बनाता है, उसके पास जाओ और कानून बनवा कर लाओ।’ वह किसान बड़ी आस लेकर छोटूराम के पास आया और यह बात सुनाई। सर छोटू राम ने कानून में ऐसा संशोधन करवाया कि उस अदालत की सुनवाई पर ही प्रतिबंध लगा दिया गया।

भाखड़ा-नांगल बांध भी सर छोटूराम की ही देन है। उन्होंने ही भाखड़ा बांध का प्रस्ताव रखा था पर सतलुज के पानी पर बिलासपुर के राजा का अधिकार था। तब सर छोटूराम ने ही बिलासपुर के राजा के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। बाद में उनके इस प्रोजेक्ट को बाबा साहेब अम्बेडकर ने आगे बढ़ाया।

साल 1945 में 9 जनवरी को सर छोटूराम ने अपनी आखिरी सांस ली। वे स्वयं तो चले गये पर उनके लेख आज भी देश की अमूल्य विरासत है।

सर छोटू राम का व्यक्तित्व ऐसा था कि उनकी वजह से अविभाजित पंजाब प्रांत में न तो मोहम्मद अली जिन्ना की चल पायी और ना ही हिंदू महासभा की। वो उस पंजाब प्रान्त की सरकार के मंत्री थे जिसका आज दो तिहाई हिस्सा पकिस्तान में है। उन्हें सरकार का मुखिया बनने का अवसर मिला तो उन्होंने कहा कि तत्कालीन पंजाब प्रांत में मुसलमानों की आबादी 52 प्रतिशत थी। इसलिए उन्होंने किसी मुसलमान को ही मुख्यमंत्री बनाने की पेशकश की और खुद मंत्री बने रहे। इसलिए ही उन्हें ‘रहबर-ए-हिन्द’ की उपाधि दी गयी थी।

किसानों के इस नेता ने जो लिखा वह आज भी देश और समाज की व्यवस्था पर लागू होता है। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था, “मैं राजा-नवाबों और हिन्दुस्तान की सभी प्रकार की सरकारों को कहता हूं, कि वो किसान को इस कदर तंग न करें कि वह उठ खड़ा हो….दूसरे लोग जब सरकार से नाराज़ होते हैं तो कानून तोड़ते हैं, पर किसान जब नाराज़ होगा तो कानून ही नहीं तोड़ेगा, सरकार की पीठ भी तोड़ेगा।”        

(रितिक जावला जनचौक में प्रोड्यूसर हैं।)

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