बिहार के भू-जल में मानक से अधिक आर्सेनिक, फ्लोरइड और आयरन, लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का खुलासा

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तमाम प्रयासों के बावजूद पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन की समस्या थमने का नाम नहीं ले रही है। हाल ही में आए आंकड़ों के अनुसार बिहार के भू-जल में आर्सेनिक, फ्लोराइड जैसे तत्वों की मिलावट सामने आई है। जिसका कारण लोगों द्वारा हैंडपंप के व्यापक इस्तेमाल को बताया जा रहा है। परन्तु यह एक व्यापक चर्चा का विषय है जिसकी गंभीरता को सरकार सीमित करने पर आमादा है।

बिहार आर्थिक सर्वेक्षण (2024-25) के दौरान विधानसभा सत्र में प्रस्तुत निष्कर्षों से पता चलता है कि भूजल में खतरनाक पदार्थों की व्यापक रूप से मिलावट हो रही है। राज्य के 4,709 वार्डों में आर्सेनिक, 3,789 वार्डों में फ्लोराइड, और 21,709 वार्डों में आयरन की उपस्थिति पाई गई है।

लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग (PHED) के अनुसार, “राज्य के 38 जिलों में से 31 जिलों के लगभग 26 प्रतिशत ग्रामीण वार्डों के भूजल स्रोतों में आर्सेनिक, फ्लोराइड और आयरन की मात्रा अनुमेय सीमा से अधिक पाई गई है।”

यह जल प्रदूषण बक्सर, भोजपुर, पटना, सारण, वैशाली, लखीसराय, दरभंगा, समस्तीपुर, बेगूसराय, खगड़िया, मुंगेर, कटिहार, भागलपुर, सीतामढ़ी, कैमूर, रोहतास, औरंगाबाद, गया, नालंदा, नवादा, शेखपुरा, जमुई, बांका, सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, अररिया और किशनगंज सहित कई जिलों में फैला हुआ है।

प्रदूषित जल के सेवन से पेट के संक्रमण से लेकर कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों तक का खतरा हो सकता है। जल शुद्धिकरण के तरीके किसी व्यक्ति के जल स्रोत में मौजूद विशिष्ट प्रदूषकों पर निर्भर करते हैं। इसलिए, संबंधित अधिकारियों को जल गुणवत्ता मानकों को विस्तार से लागू करना आवश्यक है।

ऐतिहासिक विश्लेषण

बिहार में आर्सेनिक और फ्लोराइड की समस्या पहली बार 1990 के दशक में सामने आई थी जिसके बिलकुप स्पष्ट प्रमाण 1999 –2002 के बीच में दिखाई देने लगे थे। गंगा के बहाव क्षेत्रों में खास करके मैदानी इलाकों जैसे भोजपुर, बक्सर, सारण, वैशाली, समस्तीपुर और कटिहार में यह मुख्य रूप से सामने आया जब आर्सेनिक की मात्रा भू जल में ज्यादा पाई गई। राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (NEERI) द्वारा जब इस बात का खुलासा किया गया तभी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पश्चिम बंगाल और बिहार दोनों में ही आर्सेनिक की मात्रा बढ़ने का दावा किया था।

वहीं बिहार में फ्लोराइड प्रदूषण को लेकर गंभीर रिपोर्ट्स 2005-2010 के बीच सामने आईं, जब गया, नवादा, रोहतास, औरंगाबाद और कैमूर जैसे जिलों में फ्लोरोसिस (हड्डी और दांतों की बीमारियां) के मामले तेजी से बढ़ने लगे। वर्तमान समय में बिहार के 40 से 70% जिलों में फ्लोरोसिस बीमारी की समस्या देखने को मिली है। गया और नवादा जिलों के अनुसंधान बताते हैं कि यहां पर फ्लोरोसिस की संख्या व्यापक रूप से बढ़ी है। वहीं अन्य क्षेत्रों में भी फ्लोराइड की मात्रा बढ़ने से वह खतरे के निशान से ऊपर जा रहा है।

मूल कारण क्या है?

बिहार मूल रूप गंगा ब्रह्मपुत्र मेघना जैसे नदियों के प्रभाव क्षेत्रों से सिंचित इलाका है जिसमें आर्सेनिक की मात्रा पाई जाती है। नदियों द्वारा लाए गए अवसाद के साथ यह तटीय क्षेत्रों के भूजल को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। परन्तु बिहार का एक बहुत बड़ा इलाका बोरवेल और ट्यूबवेल के पानी से सिंचित क्षेत्र है जिसके कारण इन क्षेत्रों में व्यापक आर्सेनिक कॉन्टमिनटी देखा गया है।

बिहार सरकार द्वारा चलाई गई ’हर घर जल’ योजना एक सराहनीय पहल है जिसके द्वारा लोगों को पीने का पानी मिल रहा है पर इन प्लांट में कोई आर्सेनिक फिल्टर करने की क्षमता नहीं है वहीं यह भी बोरवेल की मदद से ही ज्यादातर क्षेत्रों में चलाए जा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ बिहार सरकार द्वारा अशुद्ध जल ट्रीटमेंट के लिए कोई भी पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए हैं जिसका परिणाम यह है कि बहुत सारा अशुद्ध जल बिना ट्रीटमेंट के ही जमीन पर बाहर दिया जाता है या नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता है।

आर्सेनोपायरेट खनिज का बड़ा केंद्र बिहार है। इस खनिज में सल्फर के साथ लोहा और आर्सेनिक जैसे तत्व पाए जाते हैं जो जल और ऑक्सीजन के संपर्क में आने के साथ ही तेजी से ऑक्सीकरण की प्रक्रिया से गुजरते हैं और भूजल में मिल जाते हैं। बिहार में आर्सेनोपायरेट का खनन व्यावसायिक तौर पर तो नहीं हो रहा है परन्तु आर्सेनिक का प्रयोग सीसा, टैक्सटाइल, पिगमेंट, वुड प्रिजर्वेटिव उद्योगों में व्यापक होने के कारण इसकी तस्करी के प्रमाण गंगा, कोसी और गंडक नदियों के क्षेत्र में मिले हैं और ये संभव है कि आने वाले समय में इसकी मांग और बढ़ेगी।

स्वास्थ्य पर प्रभाव

इन तत्वों के बढ़ने से लोगों में अलग अलग तरीके की बीमारियां सामने आई हैं। आर्सेनिक की मात्रा अगर शरीर में बढ़ जाए तो त्वचा पर खुजली, गैस की समस्या, डायरिया, मांसपेशियों में कमजोरी और थकान आदि जैसे लघुकालीन समस्याएं सामने आ सकती हैं। वहीं दीर्घकालिक समस्याओं में त्वचा पर छालों का आना, स्किन कैंसर, ब्लड प्रेसर, हृदय संबंधित बीमारियां, यादाश्त में कमजोरी, गर्भपात, मासिक धर्म में अनियमितता देखने को मिलती हैं। वहीं इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव शरीर से संक्रमण से लड़ने की क्षमता में कमी होती जाती हैं।

वहीं अगल मनुष्य में खास कर उत्तर भारतीय लोगों के शरीर में अगर फ्लोराइड की मात्रा बढ़ जाए तो हड्डियां कमजोर होने लगती हैं, दातें कमजोर हो जाती हैं, घुटने और जोड़ों में व्यापक दर्द होता है हाइपोथायरायडिज्म की समस्या बिल्कुल सामान्य हो जाती है।

ऐसे हालत में यह बेहद जरूरी हो जाता है कि सही रणनीति के साथ इस समस्या को समझते हुए इसके समाधान की ओर बढ़ा जाए। परन्तु आर्सेनिक और फ्लोराइड के प्रदूषण की समस्या को एकाकी में हल नहीं किया जा सकता है। इसके लिए एक सुनियोजित आर्थिक रणनीति के साथ सतत विकास को केंद्र में रखते हुए संसाधनों के उचित प्रयोग को ध्यान देना आवश्यक होगा। वहीं योजनागत स्तर पर डब्ल्यूटीओ जैसे संस्थाओं के मापदंड पर कार्य करना पर्यावरण के लिए घटक सिद्ध हो सकता है।

(निशांत आनंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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