Saturday, April 27, 2024

गहरे असंतोष में हैं जम्मू और कश्मीर के सिख 

भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति के चलते अब जम्मू और कश्मीर के सिख असंतोष की आग में सुलग रहे हैं। 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 निरस्त कर दिया गया था और साथ ही जम्मू कश्मीर पुनर्गठन एक्ट-2019 में संशोधन का प्रस्ताव पारित किया गया था। इस संशोधन में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में तीन सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है। इनमें से दो कश्मीरी पंडितों तथा एक सीट कथित आजाद कश्मीर (पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से विस्थापित हुए लोगों) के लिए आरक्षित होगी।

जम्मू में लगभग साढ़े तीन लाख सिख हैं तो कश्मीर घाटी में तकरीबन एक लाख से ज्यादा। लंबे अरसे से सिखों की मांग रही है कि उनके लिए दो सीटें आरक्षित की जाएं। लेकिन हर बार उन्हें महज आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिला। सिखों में फिर असंतोष है और उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर विधानसभा में उनके लिए दो सीटें आरक्षित नहीं की गईं तो वे जम्मू और कश्मीर से स्वैच्छिक पलायन कर देंगे। केंद्र सरकार इसके लिए जिम्मेदार होगी।

जम्मू और कश्मीर में आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया तो सिखों को भी नहीं बख्शा। 21 मार्च, सन् 2000 का छत्तीसिंहपुर का सिख नरसंहार कोई नहीं भूला जब आतंकवादियों ने घेराबंदी करके सिखों को मौत के घाट उतार दिया था। इतने बड़े सामूहिक हत्याकांड के बाद भी सिखों ने पलायन नहीं किया। अब उनका मानना है कि केंद्र उनकी घोर उपेक्षा कर रहा है। कश्मीरी पंडितों को और कथित आजाद उम्मीदवार के लिए विधानसभा में सीटें आरक्षित करने की कवायद हो रही है लेकिन सिख समुदाय के दावे को उपेक्षा के हवाले कर दिया गया है। जबकि जब आतंकवादी कश्मीरी पंडितों को चुन-चुन कर निशाना बना रहे थे तो सिखों को भी मारा जा रहा था।

कश्मीरी पंडित घाटी से पलायन कर गए और कश्मीर में एक लाख से ज्यादा की आबादी वाले एक भी सिख परिवार ने हिजरत नहीं की। सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी और अब मीट-अंडों का थोक व्यापार करने वाले मनजीत सिंह के अनुसार, जो छिट-पुट गए भी कुछ समय के बाद वापस लौट आए। “कश्मीरी होना उनकी पहचान है। कश्मीरी सिखों ने डटकर आतंकवादियों का सामना किया है।” एक सिख व्यापारी करनैल सिंह का कहना है कि कश्मीरी पंडितों ने पलायन किया था लेकिन सिख डटे रहे। अब उन्हें उनके अधिकार नहीं दिए जा रहे। यह नाइंसाफी है। जबकि भाजपा खुद को सिख हितैषी कहती है।             

जम्मू-कश्मीर गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष बलदेव सिंह के अनुसार, “तीन दशक से सिखों ने आतंकवाद के दौर में अनेक बलिदान दिए हैं और धमकियों के बावजूद पलायन का रास्ता नहीं चुना। अब जब केंद्र सरकार प्रवासी कश्मीरी पंडितों के लिए विधानसभा में सीटों के आरक्षण की तजवीज करने जा रही है तो हमारे बलिदानों को नजरअंदाज किया जा रहा है। अगर अल्पसंख्यक सिख समुदाय को आरक्षण नहीं दिया जाता और नई विधानसभा में उन्हें प्रतिनिधित्व देने के लिए  दो सीटें आरक्षित नहीं की जाती हैं तो जम्मू और कश्मीर में रहने का कोई मतलब नहीं। हमारी भावनाओं से खिलवाड़ भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को महंगा पड़ेगा।”

दरअसल, अनुच्छेद-370 रद्द होने के बाद नए प्रस्तावित संशोधनों के मुताबिक चार विधेयकों में जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) 2023, संविधान (जम्मू और कश्मीर) अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) विधेयक और जेएंडके आरक्षण (संशोधन) विधेयक 2023 शामिल हैं। लोकसभा में मणिपुर हिंसा पर हंगामे के बीच इन्हें पेश किया गया। यानी जब मणिपुर पर बड़ी चर्चा हो रही थी तो इन विधेयकों को स्वाभाविक रूप से सुर्खियां हासिल नहीं हुईं और न कायदे से बहस।

जम्मू-कश्मीर में सिख समुदाय की आबादी तकरीबन दो फीसदी है। यह समुदाय सूबे में एक दर्जन विधानसभा इलाकों में किसी भी राजनीतिक पार्टी की हार-जीत में निर्णायक भूमिका अदा करता है। कश्मीर के कुछ जिलों पुलवामा, श्रीनगर, बड़गांव व बारामुला में सिख मतदाता निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। जम्मू में कठुआ, जम्मू की आरएसपुरा, सांबा जिले की विजयपुर, जम्मू की गांधीनगर और पुंछ विधानसभा क्षेत्रों में सिख मतदाता निर्णायक साबित होते हैं। जम्मू जिले के सुचेतगढ़़ व विशह और कठुआ के हीरा नगर में भी इनकी अच्छी-खासी तादाद है।

जम्मू-कश्मीर के सिखों के असंतोष की कई अन्य वजहें भी हैं। अब जम्मू और कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश हैं। सन् 2002 के बाद जम्मू-कश्मीर प्रदेश में कोई सिख कैबिनेट मंत्री नहीं रहा। 2002 में जब मुफ्ती मोहम्मद सईद गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने विजयपुर विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित मनजीत सिंह को राज्य मंत्री बनाया था। 2009 में उमर अब्दुल्ला और 2015 में बनी  पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार में किसी सिख नेता को कैबिनेट या राज्य मंत्री नहीं बनाया गया। विधानसभा परिषद में सिख समुदाय का एक सदस्य था। सिखों की मांग थी कि उसे मंत्रिपरिषद में लिया जाए लेकिन टाल-मटोल होती रही।       

नेशनल सिख फ्रंट के मुखिया सरदार इंद्रजीत सिंह कहते हैं, “सिख समुदाय अनेक सीटों पर निर्णायक साबित होता है, लेकिन कभी भी किसी भी दल ने प्राथमिकता के आधार पर सिख उम्मीदवारों को चुनाव में नहीं उतारा। 5 अगस्त, 2019 के बाद हालात बदल गए हैं। नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस, पीडीपी और भाजपा सहित विभिन्न राजनीतिक दलों की सियासत सिरे से बदली है। नए हालात में इन तमाम दलों का परंपरागत वोट बैंक प्रभावित हुआ है। इसलिए सभी सिख समुदाय में नए सिरे से पैठ बनाने की कोशिश में है।

गौरतलब है कि एक पुख्ता अनुमान के अनुसार 1947 के विभाजन के वक्त कश्मीर पर कबायली हमले में लगभग एक लाख सिख मारे गए थे। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के लिए किए गए शोध में डॉ. कोमल जीबी सिंह ने ‘विभाजन की अधूरी दास्तानें’ में तथ्य दिया है कि जम्मू-कश्मीर के दूरस्थ इलाकों में 20 हजार से ज्यादा सिखों की हत्याएं 21 अक्टूबर से 26 अक्टूबर के दौरान हुईं थीं। ये कहीं भी दर्ज नहीं हैं। अन्य इलाकों में क्या हुआ होगा, इसका अनुमान बखूबी लगाया जा सकता है।

सिख हिंदुओं की अपेक्षा इसलिए भी कत्लेआम का ज्यादा शिकार हुए कि वे अपनी पोशाक, दाढ़ी और पगड़ी से दूर से पहचाने जाते थे। उस समय कबायली हमलावरों का नारा था, हिंदू का जर, सिख का सर, मुस्लिम का घर (हमारा) है। अर्थात हिंदुओं की दौलत, सिखों के सिर या जान तथा मुसलमान के घर पर कब्जा करना उनका लक्ष्य है। डॉ. कोमल ने अपनी थीसिस में लिखा है कि हिंदुओं तथा मुसलमानों को तो सिर्फ लूट कर उन्हें जिंदा छोड़ दिया जाता था, लेकिन सिखों को कत्ल किया जाता था। तब के इतिहासकारों ने इसे दर्ज नहीं किया और यह सिखों के साथ हुए क्रूर मजाक से कम नहीं।                           

अब शिरोमणि अकाली दल के प्रधान सांसद सुखबीर सिंह बादल, सांसद सिमरनजीत सिंह मान और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेयरमैन त्रिलोचन सिंह जम्मू और कश्मीर के सिखों की मांगों का खुलकर समर्थन कर रहे हैं। भरोसेमंद सूत्रों के मुताबिक खुफिया एजेंसियां केंद्र और आला अधिकारियों को सावधान कर रही हैं कि सिखों के असंतोष को अतिरिक्त गंभीरता से लिया जाए।

विधानसभा में दो सीटों के आरक्षण का मसला अतिरिक्त संवेदनशीलता के साथ लिया जाए। जम्मू और कश्मीर के सिखों का असंतोष आखिरकार भाजपा को ही महंगा पड़ेगा। जम्मू-कश्मीर गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष बलदेव सिंह कहते हैं कि हम हर सीमा तक जाकर संघर्ष करेंगे। केंद्र सरकार से अपना बनता हक लेकर ही रहेंगे, बेशक कुछ हो जाए।

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं।)

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