सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (9 मई) को आंध्र प्रदेश के एक डिप्टी कलेक्टर को पदावनत करने का निर्देश दिया। डिप्टी कलेक्टर पर आरोप था कि उन्होंने तहसीलदार के रूप में हाईकोर्ट के निर्देशों की अवहेलना की और गुंटूर जिले में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की झोपड़ियों को जबरन हटा दिया, जिससे वे विस्थापित हो गए।
जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने आदेश दिया कि आंध्र प्रदेश राज्य याचिकाकर्ता-डिप्टी कलेक्टर को तहसीलदार के पद पर पदावनत करे। साथ ही निर्देश दिया गया कि याचिकाकर्ता 4 सप्ताह के भीतर एक लाख रुपये का जुर्माना जमा कराए।
न्यायालय याचिकाकर्ता/डिप्टी कलेक्टर की ओर से हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर याचिका पर विचार कर रहा था, जिसमें उन्हें न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया गया था और 2 महीने के साधारण कारावास की सजा सुनाई गई थी।
यह मानते हुए कि “कानून की महिमा दंड देने में नहीं, बल्कि क्षमा करने में है”, आदेश में कहा गया,”हालांकि याचिकाकर्ता किसी भी नरम रुख का हकदार नहीं है, लेकिन हम पाते हैं कि याचिकाकर्ता के अड़ियल और कठोर रवैये के कारण उसके बच्चों और परिवार को कष्ट नहीं दिया जाना चाहिए। अगर उसे दो महीने की सजा होती है, तो उसे अपनी सेवाओं से बर्खास्त कर दिया जाएगा, जिससे उसके परिवार की आजीविका छिन जाएगी।
इसलिए, हम याचिकाकर्ता की दोषसिद्धि की पुष्टि करने के लिए इच्छुक हैं, लेकिन सजा पर नरम रुख अपनाते हैं। एक संदेश दिया जाना चाहिए… याचिकाकर्ता को उसकी सेवा के पदानुक्रम में एक स्तर कम करने का निर्देश दिया जाता है। आंध्र प्रदेश राज्य को याचिकाकर्ता को तहसीलदार के पद पर पदावनत करने का निर्देश दिया जाता है। आगे पदोन्नति के अवसरों पर विचार किया जाएगा… उसे एक लाख रुपये का जुर्माना भी देना होगा।”
सुप्रीम कोर्ट ने खास तौर पर इस बात पर जोर दिया कि जब कोई संवैधानिक कोर्ट या कोई अन्य कोर्ट कोई निर्देश जारी करता है, तो हर अधिकारी, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसका पालन करना चाहिए। कोर्ट के आदेश की अवहेलना कानून के शासन की नींव पर हमला है, जिस पर लोकतंत्र आधारित है।
याचिकाकर्ता की ओर से नरमी बरतने की मांग के संबंध में न्यायालय ने कहा,”वरिष्ठ अधिवक्ता देवाशीष भारुका ने कहा कि याचिकाकर्ता और उनका पूरा परिवार सड़कों पर आ जाएगा। उन्होंने आगे कहा कि याचिकाकर्ता के 2 बच्चे जो 11वीं और 12वीं कक्षा में शिक्षा ले रहे हैं, वे अपनी शिक्षा जारी रखने की स्थिति में नहीं होंगे और उनका करियर बर्बाद हो जाएगा। हमारा मानना है कि याचिकाकर्ता को इन सब बातों के बारे में तब सोचना चाहिए था जब उसने झुग्गीवासियों के ढांचों को गिरा दिया और उन्हें उनके सामान के साथ सड़क पर फेंक दिया। यदि याचिकाकर्ता मानवीय दृष्टिकोण की अपेक्षा करता है, तो उसे अमानवीय तरीके से काम नहीं करना चाहिए था।”
इससे पहले एक अवसर पर न्यायालय ने याचिकाकर्ता से पूछा था कि क्या वह जेल जाने से बचने के लिए पदावनत होने को तैयार है। हालांकि, उन्होंने पदावनति स्वीकार करने से इनकार कर दिया और हाईकोर्ट के आदेश का अवमाननापूर्ण उल्लंघन करने के बावजूद बेदाग छूट जाने की उम्मीद करने के लिए न्यायालय की नाराजगी मोल ली। वरिष्ठ अधिवक्ता देवाशीष भारुका द्वारा याचिकाकर्ता को समझाने के लिए समय मांगे जाने पर मामले की सुनवाई आज तक के लिए स्थगित कर दी गई थी।
गुंटूर जिले में कुछ भूमि पर अपना कब्जा होने का दावा करने वाले चार व्यक्तियों ने भूमि के लिए आवास स्थल पट्टे दिए जाने के लिए राजस्व अधिकारियों के समक्ष अभ्यावेदन दायर किया, जिसके बारे में कहा गया था कि वह उनके कब्जे में है। इसके बाद, उन्होंने आंध्र प्रदेश के तत्कालीन हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसमें तर्क दिया गया कि राजस्व अधिकारी उनके अभ्यावेदन पर विचार किए बिना उनके कब्जे वाले भूखंडों से उन्हें बेदखल करना चाहते हैं।
13 सितम्बर 2013 के आदेश द्वारा हाईकोर्ट (एकल पीठ) ने रिट याचिका का निपटारा किया, जिसमें तहसीलदार को याचिकाकर्ताओं की पात्रता के अधीन आवास स्थल अनुदान के लिए उनके आवेदन पर विचार करने और दो महीने की अवधि के भीतर लिए गए निर्णय से अवगत कराने का निर्देश दिया गया। यह भी निर्देश दिया गया कि यदि याचिकाकर्ताओं के पास भूमि का कब्जा है, तो तहसीलदार सहित कोई भी प्रतिवादी उनके कब्जे में बाधा नहीं डालेगा।
लोगों के एक अन्य समूह ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसमें तर्क दिया गया कि वे 2 साल से गुंटूर जिले में भूमि पर कब्जा किए हुए हैं और आवास स्थल अनुदान के लिए उनके अभ्यावेदन पर विचार किए बिना उन्हें हटाने की मांग की जा रही है।
उनके मामले में 11दिसंबर 2013 के आदेश द्वारा, हाईकोर्ट (एकल पीठ) ने याचिका का निपटारा करते हुए कहा कि तहसीलदार जबरन ढांचों को हटाने में लिप्त होकर कानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते। याचिकाकर्ता-संघ द्वारा प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों को तब तक कोई भी ढांंचा खड़ा करने से रोक दिया गया जब तक कि उनके आवास स्थल के पट्टे दिए जाने के अभ्यावेदन पर विचार नहीं किया जाता और तहसीलदार ने भविष्य में अपने कृत्यों को न दोहराने की चेतावनी दी।
इसके बाद, दोनों मामलों में याचिकाकर्ताओं ने अवमानना याचिका दायर की, जिसमें कहा गया कि हाईकोर्ट के आदेशों के बावजूद, तहसीलदार ने 06.12.2013 और 08.01.2014 को जबरन उनकी झोपड़ियां हटा दीं। यह देखते हुए कि 08.01.2014 को तहसीलदार के अनुरोध पर 88 पुलिसकर्मियों को मौके पर लाया गया था, हाईकोर्ट (एकल पीठ) ने माना कि तहसीलदार ने जानबूझकर न्यायालय के आदेशों की घोर अवज्ञा की और उसे 2 महीने के साधारण कारावास की सजा सुनाई तथा 2000/- रुपये का जुर्माना भी भरना पड़ा।
इससे व्यथित होकर, तहसीलदार ने अवमानना अपील दायर की। उनका तर्क था कि वे केवल उन अतिक्रमणों को हटाना चाहते थे, जिन्हें रातों-रात तीसरे पक्ष द्वारा खड़ा कर दिया गया था। हालांकि, हाईकोर्ट की खंडपीठ ने इसे खारिज कर दिया, यह देखते हुए कि उनका रुख विवरणों से रहित था और बहुत विश्वसनीय नहीं था। इस पृष्ठभूमि में, तहसीलदार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
5 मई 25 को, जस्टिस गवई ने उन व्यक्तियों के बारे में पूछताछ की, जिनकी झुग्गियां ध्वस्त की गईं। जवाब में, वरिष्ठ अधिवक्ता भारुका ने प्रस्तुत किया कि तथ्य-खोजी जांच के अनुसार, अवमानना याचिकाकर्ताओं को विषय परिसर में रहते हुए नहीं पाया गया और उनमें से एक को वास्तव में एक योजना के तहत पुनर्वासित किया गया था।
इसके बाद, न्यायालय ने व्यक्त किया कि वह याचिकाकर्ता को उस पद पर पदावनत करेगा जिस पर उसे शुरू में नियुक्त किया गया था, अर्थात उप तहसीलदार, “ताकि उनकी रोज़ी-रोटी प्रभावित न हो”। जस्टिस गवई ने कहा, “उन्हें एक वचन देने के लिए कहें कि वह उप तहसीलदार के रूप में काम करने के लिए तैयार हैं”, जबकि इस बात को रेखांकित किया कि यह एक बहुत ही गंभीर मामला था, क्योंकि याचिकाकर्ता को हाईकोर्ट की चेतावनी के बावजूद विध्वंस की कार्रवाई की गई थी।
जस्टिस गवई ने कहा, “वह गरीब लोगों के घरों को ध्वस्त करने के लिए अपने साथ 80 पुलिसकर्मियों का बेड़ा लेकर गए थे।” जब भारुका ने कार्रवाई का बचाव किए बिना यह समझाने की कोशिश की कि संबंधित समय आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों के बीच तनाव था, और सरकारी भूमि पर अतिक्रमण किया जा रहा था, तो न्यायाधीश ने याचिका को खारिज करने का आदेश दिया। भरुका ने माफी मांगते हुए कहा कि वह इस कार्रवाई को उचित नहीं ठहराएंगे और याचिकाकर्ता से निर्देश लेने के लिए समय मांगा।
इस तरह, मामला 6 मई को सूचीबद्ध किया गया, जब भरुका ने याचिकाकर्ता की पदावनति झेलने की अनिच्छा से अवगत कराया। जब न्यायालय याचिकाकर्ता की जिद से नाखुश हुआ और संकेत दिया कि यदि वह नहीं झुकता है, तो वह न केवल याचिका को खारिज कर देगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगा कि याचिकाकर्ता को फिर से बहाल न किया जाए, तो याचिकाकर्ता को मनाने के लिए समय के लिए भरुका के अनुरोध पर मामला फिर से स्थगित कर दिया गया।
सुनवाई के दौरान जस्टिस बीआर गवई ने मंगलवार को एक याचिकाकर्ता से कहा था कि आज आप अपने छोटे-छोटे बच्चों की दुहाई दे रहे हैं लेकिन जिनका घर आपने उजाड़ा, उनके भी तो बच्चे थे। दरअसल, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की पीठ आंध्र प्रदेश के एक डिप्टी कलेक्टर(DC) की उस अर्जी पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें अधिकारी ने हाई कोर्ट द्वारा अवमानना के मामले में दी गई सजा के खिलाफ अपील की थी।
आरोपी अधिकारी ने तहसीलदार के पद पर रहते हुए हाई कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना की थी और गुंटूर जिले में गरीबों की झुग्गी-झोपड़ियों पर बुलडोजर चलवा दिया था। इस हरकत से नाराज आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने उस अधिकारी को अवमानना का दोषी करार देते हुए दो साल जेल की सजा सुनाई है। अधिकारी ने उस सजा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था कि उसे यहां से राहत मिलेगी लेकिन हुआ ठीक उलटा।
सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारी की हरकत और रवैये पर नाराजगी जताते हुए उसे पदावनत करने की बात कही तो याचिकाकर्ता ने उसका विरोध किया और कहा कि वह न्यायालय की अवमानना के लिए सजा के रूप में पदावनत को स्वीकार नहीं करेंगे। इस पर पीठ ने एक दिन पहले भी याचिकाकर्ता के वकील वरिष्ठ अधिवक्ता देवाशीष भारुका से पूछा था कि वह अपने मुवक्किल से निर्देश प्राप्त करें कि क्या उसे पदावनत की सजा मंजूर है और वचन देने के लिए तैयार हैं? शीर्ष न्यायालय ने डिप्टी कलेक्टर को पदावनत कर फिर से तहसीलदार बनाने की बात कही थी, जबकि याचिकाकर्ता शीर्ष अदालत से बेदाग छूटने की उम्मीद कर रहा था।
(जे पी सिंह कानूनी मामलों के जानकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)