मैकियावेली जिन्होंने दुनिया को निर्मम राजनीतिक सिद्धांत “एंड जस्टीफाइस द मीन्स” (“परिणाम अच्छा हो तो साधन बुरा भी हो सकता है”), दिया, ने लिखा था, “जो छल से जीता जा सकता हो, वह बलप्रयोग से जीतने की कोशिश कभी न करें।” इस उक्ति से अनुच्छेद 370 हटाने को सही ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को समझा जा सकता है।
न तो कानूनी वैधता, न ऐतिहासिक तथ्य कुछ मायने नहीं रखता। सबको मर्जी से तोड़ा-मरोड़ा या खारिज किया सकता है। एक नजर में, निर्णय कश्मीर के इतिहास और अनुच्छेद 370 से जोड़े और बंधे इसके भारत से ऐतिहासिक करार की कानूनी व्याख्याओं के उलझे जाल पर आधारित नजर आता है।
अस्पष्टताओं और तर्क के अभाव से भरा यह निर्णय बस 5 अगस्त 2019 को की गई एक त्रुटिपूर्ण राजनीतिक कार्रवाई का अनुमोदन और उस पर स्वीकृति की मुहर लगाना है और इस तरह यह जम्मू एवं कश्मीर के लोगों, जिनके विशेषाधिकारों के हनन पर वैधता की मुहर लगी है और भारतीय लोकतंत्र, जिसके संविधान में निहित संघीय सिद्धांतों को झटका लगा है, दोनों के प्रति गंभीर अन्याय है।
निर्णय के महत्वपूर्ण ऑपरेटिव निष्कर्ष हैं कि अनुच्छेद 370 अस्थायी था, और सरकार की राष्ट्रपति के आदेश के जरिए कार्रवाई वैध है। लेकिन ऐसे निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए कोई उचित स्पष्टीकरण नहीं दिए गए हैं। अनुच्छेद 370 संवैधानिक सेतु था जिसने जम्मू एवं कश्मीर को भारत में शामिल किया था और अपरिहार्य था राज्य के अलहदा इतिहास और उन हालत के मद्देनजर जिनके तहत वह भारत का हिस्सा बना।
इसी के साथ, इसने जम्मू कश्मीर को कुछ सुरक्षाएं और विशेष दर्जा दिया हुआ था। यह केवल तब तक अस्थायी था जब तक जम्मू एवं कश्मीर संवैधानिक सभा अनुच्छेद 370 को पुष्ट करे और अपनाए व राज्य का अलग संविधान बनाए। जम्मू एवं कश्मीर की संविधान सभा के इसके स्वीकार करने के साथ अनुच्छेद 370 और जम्मू एवं कश्मीर के विशेष दर्जे, इसके अलग संविधान और झंडे की निश्चयात्मकता पर मुहर लग गई।
अदालत का यह कहना कि अनुच्छेद 370 अस्थायी प्रावधान था जब तक कि जम्मू एवं कश्मीर संवैधानिक सभा भंग नहीं की जाती, उसके बाद राज्य का पूरी तरह एकीकरण हो गया होता, तर्क से परे है। ऐसा मानना कि यह प्रक्रिया केवल इसलिए अपनाई गई कि अंततः 370, विशेष दर्जे और जम्मू एवं कश्मीर के संविधान को खारिज किया जाएगा, केवल अज्ञान को ही नहीं दर्शाता। यह बेतुकापन है।
जहां अदालत अनुच्छेद 370 में अनुच्छेद 367 के जरिए किए संशोधनों को गुप्त तरीके से किए और विनाशकारी करार देती है और उन्हें भारतीय संविधान के तहत अधिकारातीत बताती है, वहीं यह निष्कर्ष देती है कि राष्ट्रपति के आदेश में कुछ गलत नहीं था। यदि तरीका अवैध है, तो किस आधार पर कार्रवाई को न्यायोचित ठहराया जा सकता है?
अदालत केवल कारवाई को इसलिए वैध करार देती है कि भले प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया, “इरादा छलने का” नहीं था। जिस तरह जम्मू एवं कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, जिसने अनुच्छेद 370 निरस्त किया और जम्मू एवं कश्मीर को दो केंद्र-शासित प्रदेशों में बांटा, संसद में रखा गया और पारित किया गया जम्मू एवं कश्मीर को सैन्यबलों के तहत विशाल जेल बनाकर पारित किया गया, उसमें छलावे के दर्शनीय संकेत थे।
अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत जम्मू एवं कश्मीर की अवनति कर उसे दो केंद्र-शासित प्रदेशों में बदलने की वैधता पर भी निर्णय करने से इनकार किया जो कि किसी प्रदेश की सीमाएं बदलने के लिए है, अवनत करने के लिए नहीं।
राष्ट्रपति शासन के तहत जम्मू एवं कश्मीर के प्रतिनिधियों से मशविरा किए बगैर जम्मू एवं कश्मीर का राजनीतिक और कानूनी ढांचा तय करने के बहुमत वाली सरकार के निर्णय को वैधता देकर, फैसले ने भारतीय संघवाद की मजबूती और ताकत को भी एक झटका दिया है और एक गलत उदाहरण स्थापित किया है। इससे भी बुरा जम्मू एवं कश्मीर के लोगों के साथ हुआ है जिनके भारतीय संविधान के तहत विशेषाधिकार और खास पहचान मिट गए हैं।
बताने की आवश्यकता नहीं है कि जम्मू एवं कश्मीर एक संवेदनशील और अशांत प्रदेश है जहां अतीत की ऐतिहासिक भूलों ने इसके लोगों, खासकर कश्मीर घाटी के निवासियों और नई दिल्ली के बीच विश्वास की कमी का संकट खड़ा किया है। एक अनुचित निर्णय जिसके दूरगामी परिणाम होंगे, ने भारतीय लोकतंत्र में विश्वास की आखिरी डोर को जैसे तोड़ दिया है।
और भी बड़ा क्रूर मज़ाक है कि न्याय देने के बजाय, फैसला जम्मू एवं कश्मीर के लोगों को रियायतें देने का दिखावा करता है राज्य का दर्जा बहाल करने व चुनावों की बात कर। हालांकि याचिका में इसकी मांग नहीं की गई थी, अदालत ने इस दिशा में स्पष्ट दिशानिर्देश या समयसीमा नहीं दी और निर्णय एक तरह से सरकार पर ही छोड़ दिया है।
चुनाव लोकतान्त्रिक नियम हैं और इन्हें सुप्रीम कोर्ट की स्वीकृति की आवश्यकता की दरकार नहीं है। आश्चर्यजनक रूप से एक ही कानून की व्याख्या करते हुए, अदालत ने केंद्र शासित जम्मू एवं कश्मीर के राज्य के दर्जे के मामले को वैधता दी, लद्दाख के लिए नहीं।
एक न्यायाधीश ने सच एवं सुलह आयोग (ट्रुथ एण्ड रिकन्सिलीऐशन कमिशन- टीआरसी) की वकालत की जम्मू एवं कश्मीर के लोगों से हुए अन्यायों के मरहम के रूप में।
टीआरसी युद्धग्रस्त समाज में हालात सुधारने का एक महत्वपूर्ण उपकरण है लेकिन इसका प्रभावीपन संघर्ष के हल पर टिका होता है – जिसके सारे दरवाजे बंद किए जा चुके हैं जम्मू एवं कश्मीर के लोगों से विशेष सुरक्षा छीनकर।
इसके बावजूद यदि जम्मू एवं कश्मीर में टीआरसी गलतियों को सुधारने का जादू कर सकता है तो सरकार को कम से कम अनुच्छेद 370 संबंधित छलावों और शांति व नॉर्मलसी का भ्रम बनाए रखने के लिए लोगों पर किए अन्यायों को स्वीकार करने से शुरुआत करनी चाहिए।
(कश्मीर टाइम्स से साभार, अनुवाद- महेश राजपूत)