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ज़रूरी ख़बर

झारखंड के लातेहार में बढ़ते पुलिस दमन और विस्थापन के खिलाफ ग्रामीण हुए गोलबंद

रांची। झारखंड के लातेहार जिला मुख्यालय के उदयपुरा विद्यालय प्रांगण में ग्रामीणों की एक बैठक में जिले के आदिवासी क्षेत्रों की 3 अहम जन मुद्दों [more…]

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ज़रूरी ख़बर

खबर का असर: सफाई कर्मियों के आंदोलन के दबाव में कंपनी का अफसर हुआ गिरफ्तार

रायपुर। बिलासपुर में हुए सफाईकर्मियों के आंदोलन पर दी गयी जनचौक की खबर का असर हुआ है। मामले के मुख्य आरोपी शैलेंद्र सिंह को पुलिस [more…]

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ज़रूरी ख़बर

होली के दिन हरियाणा में दलित उत्पीड़न! जाट युवकों ने गाली-गलौच के साथ मिर्चपुर दोहराने की दी धमकी

बधावड़ (हरियाणा)। हरियाणा जहां दलित उत्पीड़न की घटनाएं ऐसे घटती हैं जैसे आप कपड़े बदलते हों। मिर्चपुर, भगाना, भाटला, डाबड़ा, मिरकां, छातर अनेक ऐसे गांव [more…]

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ज़रूरी ख़बर

ग्राउंड रिपोर्ट: एक मुस्लिम शिक्षक व उनकी पत्नी के साथ झारखंड पुलिस की बर्बरता

‘‘मेरे दोनों पैर बांध दिये गये और उसके बीच में एक डंडा घुसा दिया गया, मेरे दोनों हाथ को फैलाकर दो पुलिस वालों ने जमीन [more…]

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ज़रूरी ख़बर

आदिवासी सरकार में भी क्यों हो रहे हैं आदिवासी पुलिसिया उत्पीड़न के शिकार?

झारखंड अलग राज्य गठन के 21 साल हो गए, एक रघुवर दास को छोड़कर राज्य के सभी मुखिया आदिवासी हुए हैं बावजूद इसके राज्य में [more…]

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बीच बहस

बाबा साहेब के गहरे वैचारिक पक्षों को सामने लाती है ‘….आंबेडकर एक जीवनी’

डॉ. भीम राव आंबेडकर के व्यक्तित्व और उनके अवदान को लेकर भारत के बौद्धिक वर्ग में आम तौर पर दो तरह का नजरिया देखने को [more…]

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बीच बहस

खरसावाँ:आजाद भारत का जलियांवाला

” हमारे लोगों का पूरा इतिहास गैर-आदिवासियों के अंतहीन उत्पीड़न और बेदखली को रोकने के लिए किए गये विद्रोहों का इतिहास है। मैं आप सब [more…]

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ज़रूरी ख़बर

दलित उत्पीड़न: सामने आया ‘देवभूमि’ का दानवी चेहरा

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पिछले एक महीने में उत्तराखंड के चम्पावत जिले में दलित समुदाय के साथ हुई दो घटनाओं के बाद यह सोचने पर विवश कर दिया है [more…]

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ज़रूरी ख़बर

उत्तराखंड क्यों दलितों के लिये सबसे खतरनाक जगह है?

कई बार कह चुका हूँ कि उत्तराखंड दलितों के लिये सबसे खतरनाक जगह बन गयी है, क्योंकि यहाँ दलित उत्पीड़न एक सामाजिक सांस्कृतिक ताने बाने [more…]

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संस्कृति-समाज

अन्यायी और अत्याचारी सिस्टम पर ‘जय भीम’ का पर्दा

“जय भीम” फ़िल्म आजकल चर्चे में है। जो भी इस फ़िल्म को देख रहा है। वो अपने-अपने अंदाज में फ़िल्म की समीक्षा लिख रहा है। संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियां जिनको किसी फिल्म में बस लाल झंडा दिख जाए या किसी दीवार पर पोस्टर या दराती-हथौड़ा का निशान दिख जाए, बस इसी बात से वो फ़िल्म को कम्युनिस्ट फ़िल्म घोषित कर देते हैं।इस फ़िल्म को देख कर भी ऐसे कम्युनिस्ट लोट-पोट हो रहे हैं। इस फ़िल्म को संशोधनवादी कम्युनिस्टों ने बेहतरीन फ़िल्म बताया है वहीं कुछेक कम्युनिस्टों ने इसकी सार्थक आलोचना भी की है।   इसके विपरीत लाल झंडा देखकर ही विदकने वाले या डॉ अम्बेडकर के नाम को सिर्फ जपने वाले इस फ़िल्म के खिलाफ ही बात कर रहे हैं। उनको इस फ़िल्म की कहानी पर चर्चा करने की बजाए आपत्ति इस बात से है कि पूरी फिल्म में डॉअम्बेडकर की न कहीं फोटो है, न अम्बेडकर पर चर्चा है।इसके विपरीत कम्युनिस्टों के झंडे हैं, लेनिन हैं, मार्क्स हैं लेकिन कहीं भी अम्बेडकर नहीं हैं।इसलिए ये सब फ़िल्म के खिलाफ खड़े हैं।इनका फ़िल्म निर्माता पर ये आरोप कि  फ़िल्म का नाम “जय भीम” सिर्फ लोकप्रिय नारे “जय भीम” को भुनाने के लिए रखा गया है। मूर्खता की चरम सीमा है। फ़िल्म की कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है यह फिल्म 1993 में हुई सच्ची घटना से प्रेरित है।इरुलर जनजाति के राजाकन्नू नाम के एक व्यक्ति को चोरी के झूठे मामले में फंसाया जाता है। फ़िल्म दक्षिण भारत की ‘इरुलर’जाति के उन आदिवासी लोगों की कहानी कहती है जो चूहों को पकड़कर खाते हैं। मलयालम में इरुलर का शाब्दिक अर्थ “अंधेरे या काले लोग” है। वास्तव में यह मामला कोरवा जनजाति के लोगों के पुलिस द्वारा किए गए उत्पीड़न का था। पीड़ित की पत्नी सेनगेनी वकील चंद्रू के पास मदद के लिए जाती है और पुलिस हिरासत में दी गई यातना चंद्रू के लिए एक चुनौतीपूर्ण और ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई बन गई। चंद्रू बाद में मद्रास हाई कोर्ट के जज भी रहे। मद्रास हाईकोर्ट ने इस केस का फैसला 2006 में सुनाया था।   “जय भीम” का फिल्माकंन व एक्टिंग काबिले तारीफ है। फ़िल्म को 4.5 स्टार रेटिंग मिली है। फ़िल्म में दिखाया गया अमानवीय अत्याचार जो आम आदमी के रोंगटे खड़ा कर देता है। लेकिन असलियत जिंदगी में सत्ता, पुलिस व तथाकथित उच्च जातियों ने सदियों से गरीब, दलित, आदिवासियों पर अत्याचार किये हैं व वर्तमान में भी ये अत्याचार जारी हैं। फ़िल्म देख कर जिस दर्शक के रोंगटे खड़े हो रहे हैं। जब उस दर्शक के इर्द-गिर्द अत्याचार हो रहे होते हैं, उस समय उसको ये अत्याचार कभी नहीं दिखायी देते हैं। बस फ़िल्म में ही दिखाया जाए, तभी ये अत्याचार उसको दिखायी देते हैं।   अगर दर्शक को असली सिस्टम के ये अत्याचार दिखते तो सोनी सोरी दिखतीं, तेजाब से जलाया उनका चेहरा दिखता, अनगिनत आदिवासी महिलाएं दिखतीं, जिनकी फोर्स के जवानों ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी या जेलों में डाल दिया। हजारों आदिवासियों के सलवा जुडूम के गुंडों द्वारा जलाए गए मकान दिखते, फोर्स द्वारा आदिवासियों का हर रोज होता जन संहार दिखता, पुलिस लॉकअप में होते बलात्कार दिखते, हर रोज देश के किसी न किसी थाने के लॉकअप में पुलिस द्वारा की गई हत्या दिखती, हरियाणा के मिर्चपुर व गोहाना की वो दलित बस्ती दिखती, जिसको जातिवादी गुंडों ने जला दिया था। लेकिन आपको ये सब नहीं दिखेगा क्योंकि आपको अत्याचार बस तब दिखता है जब कोई फिल्मकार उसको आपके सामने पर्दे पर पेश करे। पर्दे पर दिखाए अत्याचार को देख कर आप थोड़े भावुक होते हो, ये ही आपकी असलियत है।  फ़िल्म इस दौर में कहना क्या चाहती है…   फ़िल्म निर्माता ने फ़िल्म का नाम “जय भीम” बड़े ही शातिराना तरीके से रखा है। किसी भी मुल्क में न्याय प्रणाली का चरित्र मुल्क में स्थापित सत्ता के चरित्र जैसा होता है। जैसी सत्ता वैसी ही न्याय प्रणाली।भारत की न्याय प्रणाली का चरित्र भी भारतीय सत्ता के चरित्र जैसा ही अर्ध सामंती-अर्ध पूंजीवादी है। सत्ता अगर थोड़ी सी प्रगतिशील होती है तो न्याय प्रणाली भी प्रगतिशील दिखती है। वर्तमान में सत्ता धार्मिक फासीवादी है तो न्याय प्रणाली का भी चरित्र धार्मिक फासीवाद है।   भारत मे न्याय प्रणाली किसी भी दौर में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, [more…]