टेक्नो-फ्यूडलिज़्म: पोस्ट कैपिटलिज्म दुनिया के नए क्लाउड लॉर्ड्स

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हाल के वर्षों में डिजिटल तकनीकों और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) की तेजी से वृद्धि ने हमें कैपिटलिस्ट दुनिया से निकाल कर एक नए पोस्ट कैपिटलिस्ट परिवर्तनकारी युग में पहुंचा दिया है जिसे ‘टेक्नो-फ्यूडलिज़्म’ कह सकते हैं।

‘टेक्नो-फ्यूडलिज़्म’ की दुनिया व्यक्तिगत उद्यमियों या प्रतिस्पर्धात्मक बाजारों द्वारा नहीं, बल्कि विशाल, शक्तिशाली तकनीकी समूहों, कॉर्पोरेट “क्लाउड लॉर्ड” द्वारा नियंत्रित है।

‘टेक्नो-फ्यूडलिज़्म’ की दुनिया के नए ये क्लाउड लॉर्ड्स डिजिटलीकरण और AI के माध्यम से समृद्धि प्राप्त करते हैं और न्यूनतम भौतिक श्रम पर निर्भर रहकर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर अनपेक्षित नियंत्रण स्थापित करते हैं।

‘टेक्नो-फ्यूडलिज़्म’ ज्यों-ज्यों बढ़ता जाएगा, भारत जैसे देशों, जहां युवा और महत्वाकांक्षी श्रमिकों की संख्या अधिक है, को अवसरों और गंभीर खतरों का सामना करना पड़ेगा। परंपरागत पूंजीवाद बाजार की शक्तियों, उद्यमी प्रतिस्पर्धा, और लाभ की खोज से प्रेरित होता है।

इस प्रणाली में, कंपनियां उपभोक्ताओं के लिए सामान और सेवाएं उत्पन्न करती हैं, जो बाजार की मांगों के अनुसार हैं और मुनाफे के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं। इसके विपरीत टेक्नो-फ्यूडलिज़्म में एकाधिकारवादी क्लाउड लॉर्ड अपना डिजिटल एकाधिकार स्थापित करते हैं।

ये पोस्ट कैपिटलिस्ट कंपनियां खुले बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की बजाय अपने लिए बंद पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण करती हैं, जिसमें सिर्फ डेटा ही नहीं, उपभोक्ताओं की लॉयल्टी पर भी अपना स्वामित्व स्थापित करती हैं।

‘टेक्नो-फ्यूडलिज़्म’ के “लॉर्ड” जानकारी, लेनदेन और यहां तक कि वैश्विक स्तर पर सामाजिक इंटरैक्शन के प्रवाह को भी नियंत्रित करते हैं। गूगल, अमेजन, फेसबुक और एक्स जैसी कंपनियां अब उपभोक्ताओं के हर क्षेत्र, व्यापार और मनोरंजन से लेकर स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा तक, प्रभाव डालती हैं।

ये तकनीकी दिग्गज प्रतिस्पर्धा में बाधाएं उत्पन्न करते हैं और किसी भी संभावित प्रतिस्पर्धा पर बंदिशें लगाते हैं। कुल मिलाकर इनका व्यवहार किसी लॉर्ड की तरह ही होता है।

‘टेक्नो-फ्यूडलिज़्म’ की इस नई संरचना में, उपभोक्ता और छोटे व्यवसाय किसी कॉर्पोरेट फ्यूडल प्रणाली के प्रजा की तरह बन जाते हैं, जो अक्सर ऐसे प्लेटफार्मों के नियमों के अधीन होते हैं, जिन पर वे अपना कोई प्रभाव ही नहीं डाल सकते। ये कंपनियां अपने पास मौजूद डेटा का हर स्तर पर मुद्रीकरण करती हैं।

एल्गोरिदम और AI का उपयोग करके उपभोक्ता के व्यवहार की भविष्यवाणी और हेरफेर करती हैं, और वो भी बिना किसी जवाबदेही या सीमित जवाबदेही के साथ। स्पष्ट है कि जितना अधिक डेटा एक कंपनी एकत्रित करती है, उतना ही वह अपनी सेवाओं को अनुकूलित कर सकती है, जिससे उपभोक्ताओं की उसके प्लेटफार्म पर निर्भरता बढ़ जाती है।

टेक्नो-फ्यूडलिज़्म की प्रमुखता का मुख्य कारण इसके AI और स्वचालन के उपयोग में निहित है। पारंपरिक श्रम के विपरीत, AI न तो सोता है, न मजदूरी की आवश्यकता होती है और न ही श्रमिक अधिकारों की सुरक्षा की आवश्यकता होती है।

स्वचालन कंपनियों को न्यूनतम मानव संसाधनों के साथ अभूतपूर्व दक्षता प्राप्त करने की अनुमति देता है, जिससे उन कार्यों का स्थानांतरण होता है जो कभी बड़े कार्यबल द्वारा किए जाते थे। इतना ही नहीं, इसमें मानव निगरानी भी न्यूनतम होती है।

हालांकि, AI केवल मैनुअल नौकरियों का स्थान नहीं लेता है, बल्कि इसे स्वास्थ्य देखभाल, कानून और वित्त जैसे कुशल क्षेत्रों में भी तेजी से उपयोग किया जा रहा है।

उदाहरण के लिए, AI एल्गोरिदम अब चिकित्सा स्थितियों का निदान मानव डॉक्टरों की भांति बेहद सटीकता के साथ कर सकते हैं, जबकि वित्तीय क्षेत्र में ट्रेडिंग एल्गोरिदम तेजी से ट्रेड निष्पादित कर सकते हैं, जो मानव क्षमताओं से बहुत आगे निकल जाते हैं।

यह मनुष्य की नौकरी के विस्थापन को न सिर्फ तेज करता है बल्कि एक ऐसे कार्यबल की मांग करता है, जो तेजी से बदलती दुनिया में खुद को बार-बार रिकंस्ट्रक्ट करके भविष्य की नौकरियों के लिए उपयुक्त बने रहने को तैयार हो।

आज श्रम बाजार एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जिसके आगे दुनिया एकदम अलग तरह की मिलने वाली है। जैसे-जैसे तकनीक आगे बढ़ती जा रही है, स्थिर, दीर्घकालिक रोजगार की पारंपरिक धारणा को गिग इकोनॉमी और कॉन्ट्रैक्ट लेबर द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है।

यह बदलाव न केवल नौकरी की सुरक्षा को प्रभावित करता है बल्कि श्रमिकों के अधिकारों और लाभों को भी कमजोर करता है, जिससे अलग तरह के संवेदनशील आर्थिक वातावरण का निर्माण होता जा रहा है।

आने वाली ‘टेक्नो-फ्यूडलिज़्म’ की दुनिया में पढ़ने और सीखने की कोई उम्र नहीं होगी। यह जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया बनी रहेगी।

आने वाले दिनों में तो 50-60 साल का व्यक्ति भी आपको नई चीजें सीखते और पढ़ते मिलने वाला है, क्योंकि पहले जो दुनिया पचास सालों में भी नहीं बदलती थी, अब वो महज 10-15 सालों में इतनी बदल जाती है कि जीवन में कई बार खुद को रिकंस्ट्रक्ट करना पड़ता है।

याद कीजिए कि तकरीबन दो ढाई दशक पहले जब बैंकों का कंप्यूटरीकरण हुआ था, तब रिटायरमेंट के करीब पहुंचे तमाम कर्मचारी भी कंप्यूटर चलाना सीखते नजर आने लगे थे।

आने वाले दिनों में विशेषज्ञता के दिन लदने वाले हैं, क्योंकि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वह सब बेहतर ढंग से कर सकता है जो एक विशेषज्ञ करता है। आने वाले दिनों में बेशक कुछ नए पेशे भी सामने आएंगे लेकिन नए क्षेत्रों में मौजूदा नौकरियों की तुलना में शायद अधिक रचनात्मकता और लचीलेपन की आवश्यकता होगी।

कल्पना कीजिए कि क्या एक 40 वर्षीय विशेषज्ञ खुद को रिकंस्ट्रक्ट कर सकता है? और अगर वह किसी तरह ऐसा कर भी लेता है तो प्रगति की गति ऐसी होती है कि अगले एक दशक के भीतर ही उसे खुद को फिर से रिकंस्ट्रक्ट करना पड़ सकता है।

भारत जैसे देशों के लिए, जहां हर वर्ष युवाओं का एक बड़ा हिस्सा कार्य करने की उम्र में प्रवेश करता है, यह चुनौती और भी बढ़ जाती है। लाखों स्नातकों के साथ, शैक्षिक प्रणाली को उन कौशलों के साथ अधिक निकटता से जुड़ने की आवश्यकता है जो तकनीक आधारित अर्थव्यवस्था में आवश्यक हैं।

अनुकूलित न होने की स्थिति में, देश की जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण भाग आर्थिक उथल-पुथल के बीच बेहद असुरक्षित जीवन जीने को विवश होगा।

टेक्नो-फ्यूडलिज़्म की ओर संक्रमण कई आर्थिक और सामाजिक परिणामों के साथ आ रहा है। आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था, जो श्रम-संचालित उद्योगों पर काम करने के लिए डिज़ाइन की गई है, ऐसी दुनिया में संघर्ष कर सकती है जहां पारंपरिक रोजगार के अवसर ही समाप्त हो जाते हैं।

रोजगार खत्म होने का प्रभाव महज़ आय से परे भी फैला होता है। यह सामाजिक पहचान, स्थिरता और मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है।

रोजगार अक्सर एक व्यक्ति की स्थिति और समाज में उसकी भूमिका को परिभाषित करती है, और उस भूमिका का अचानक खत्म हो जाना एक बड़े संकट को जन्म दे सकता है।

अधिकांश श्रमिकों की आजीविका समाप्त होने पर कर राजस्व में भी कमी आती है, जिससे सरकारों के लिए सामाजिक कार्यक्रमों और बुनियादी ढांचे को वित्तपोषित करना कठिन हो जाता है।

जैसे-जैसे व्यवसाय अधिक स्वचालित और कुशल होते जाते हैं, वे सार्वजनिक कोष में कम योगदान करने वाले हो सकते हैं, जिससे उन सरकारों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है।

स्वचालित श्रम शक्ति के साथ, आर्थिक असमानता बढ़ने की भी संभावना है। भारत में, इसका अर्थ शहरी गरीबी में वृद्धि, अपर्याप्त सामाजिक सुरक्षा और राजनीतिक अशांति हो सकता है। युवा, जो जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाते हैं।

यदि वे देखते हैं कि अर्थव्यवस्था उनके हितों की पूर्ति नहीं कर रही है या उनके लिए पर्याप्त अवसर नहीं प्रदान कर रही है, तो वे निराश और असंतुष्ट हो सकते हैं।

नीति निर्माताओं को इस बात पर विचार करना चाहिए कि कैसे देश के कार्यबल को उभरते क्षेत्रों की ओर स्थानांतरित किया जाए और उन लोगों के लिए वैकल्पिक आर्थिक भागीदारी के रूपों को बढ़ावा दिया जाए जो डिजिटल अर्थव्यवस्था से बाहर रह गए हैं।

अत्याधुनिक मशीनों और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दिन प्रति दिन प्रयोग बढ़ते जाने से आने वाले दिनों में बेरोजगारी की दर घटने की बजाय बढ़ती ही जाएगी। इसलिए सरकार को न्यूनतम आय योजना शुरू करनी चाहिए, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए न्यूनतम आय की गारंटी हो।

अगर न्यूनतम आय और शिक्षा एवं स्वास्थ्य की गारंटी मूल अधिकार के तौर पर हो तो देश में सामाजिक सुरक्षा और नागरिकों की मनःस्थिति में स्थिरता आएगी, आत्महत्या की दर कम होगी और लोग निश्चिंत होकर अपने काम पर ध्यान दे सकेंगे।

निजी क्षेत्रों में भी श्रमिकों का शोषण कम हो सकेगा क्योंकि जीने की न्यूनतम आवश्यकताओं की तरफ से व्यक्ति निश्चिंत हो चुका होगा।

आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने इसे सम्भव बना दिया है कि आपके मन मे क्या चल रहा है इसे डेटा पॉवर पर कंट्रोल करने वाली कोई भी कंपनी जान सकती है।

आज सिरी और एलेक्सा को पता है कि आप क्या लिखते हैं, क्या सोचते हैं, किस बारे में जानकारी चाहते हैं। आज गूगल को पता है कि आप कहां हैं, वहां ट्रैफिक कैसा है, ऐसे ट्रैफिक में आप घर से निकलना चाहते हैं या नहीं?

इसीलिए डेटा पॉवर भविष्य की सबसे बड़ी पॉवर है। इसका कुछ कंपनियों और चंद पूंजीपतियों के पास संकेंद्रित होना खतरनाक है।

पूंजीवाद कितना भी कंस्ट्रक्टिव डिस्ट्रक्शन यानी रचनात्मक विनाश करता हो, यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि इस डेटा पॉवर के संकेंद्रण को कैसे रोक पाता है? रोक भी पाता है या नहीं।

अगर डेटा पॉवर संक्रेंद्रित रह गया, तो निश्चित तौर पर कैपिटलिस्ट दुनिया टेक्नो-फ्यूडलिज़्म के दौर में पहुंच जाएगी जहां चंद क्लाउड लॉर्ड्स की बादशाहत कायम होगी।

(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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