पहलगाम में हुए पाक-प्रायोजित आतंकी हमले के बाद यह दुखद है कि भाजपा और संघी संगठन पूरे देश में मुस्लिम विरोधी माहौल बना रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप, कई स्थानों पर कश्मीरियों और मुस्लिमों पर हमले हो रहे हैं।
यह स्पष्ट समझने की आवश्यकता है कि हमारी वास्तविक लड़ाई पाकिस्तान के सत्ताधारियों और आतंकवादियों के खिलाफ है, न कि मुस्लिम समुदाय या पाकिस्तान की उस जनता के खिलाफ, जो भारत की तरह ही बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी, अज्ञानता और सरकारी दमन की भट्टी में जल रही है। दोनों देशों की आम जनता की लड़ाई एक है, लेकिन दोनों ओर के सत्ताधारी अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए इसका दुरुपयोग कर रहे हैं।
आतंकी हमले के कई दिन बीत जाने के बाद भी हमारे रक्षा मंत्री कश्मीर नहीं पहुँचे हैं। वे बिहार में प्रचार मंत्री बनकर आतंकवादियों को ललकार रहे हैं और पाकिस्तान पर गरज रहे हैं, लेकिन यह कार्रवाई कब होगी, इसका किसी को पता नहीं। संघी मीडिया इस हमले को हिंदुओं पर मुस्लिमों के हमले के रूप में चित्रित करने में जुटा है। सभी जानते हैं कि नफरत की यह फसल बिहार चुनाव में कटेगी और संघ-भाजपा को सत्ता के और करीब ले जाएगी।
पाकिस्तान और आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की घोषणाएँ भी इसी तरह की हैं। पूरे देश में युद्ध का उन्माद फैलाया जा रहा है, जैसा पुलवामा के समय देखा गया था। तब भी संघी संगठनों ने ऐसी ही कसमें खाई थीं, जैसी अब खाई जा रही हैं। लेकिन पुलवामा की सच्चाई आज तक जनता के सामने नहीं आई, और उस हमले की जिम्मेदारी मोदी सरकार ने कभी स्वीकार नहीं की। पहलगाम हमले का भी यही हश्र होने वाला है।
भारत में अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल की कृपा से पाकिस्तान परमाणु संपन्न देश बन चुका है। संघी संगठनों की विदेश नीति हमेशा विफल रही है, और मोदी सरकार इसका जीता-जागता प्रमाण है। आज भारत का किसी भी पड़ोसी देश के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं है। यदि अनचाहे युद्ध की स्थिति बनी, तो न चीन हमारा समर्थन करेगा, न अमेरिका हमारे साथ खड़ा होगा। भले ही भारत की सैन्य शक्ति पाकिस्तान पर भारी हो, उसकी परमाणु क्षमता उसे हमारे बराबर खड़ा करती है।
पिछले दस वर्षों में निजीकरण की नीतियों के कारण रक्षा उद्योग में हमारी आत्मनिर्भरता कमजोर हुई है। शोध और विकास पर किया गया खर्च मस्जिदों को खोदकर मंदिर ढूँढने में तो कारगर रहा, लेकिन दुश्मन देशों की सैन्य तकनीक का मुकाबला करने में नहीं। गोदी मीडिया से इतर रिपोर्ट्स बताती हैं कि पिछले एक दशक में हम हिंदू-मुस्लिम विवाद में उलझे रहे, जबकि पाकिस्तान उन्नत हथियारों और तकनीक से लैस होता गया। अग्निवीर योजना के तहत सैनिकों को ठेके पर भर्ती करने का परिणाम यह हुआ कि जल, थल और वायु सेनाएँ नियमित, प्रशिक्षित सैनिकों की भारी कमी से जूझ रही हैं।
युद्ध किसी का भला नहीं करता, खासकर युद्धरत देशों की जनता का। परमाणु संपन्न देशों के बीच युद्ध का परिणाम केवल तबाही होगा। लेकिन जनता की चिंता किसे है? दोनों ओर सत्ताधारियों को केवल अपनी कुर्सी की चिंता है। मोदी सरकार का पाकिस्तान को पानी रोकने का फैसला आतंकवादियों या पाकिस्तानी नेताओं को नहीं, बल्कि वहाँ की आम जनता को प्यासा मारने का है।
हालाँकि, इस फैसले को लागू करना उतना आसान नहीं, जितना सरकार सोचती है। इससे साफ है कि मोदी सरकार का निशाना पाकिस्तानी सरकार या आतंकवादी नहीं, बल्कि वहाँ का हिंदू-मुस्लिम अवाम है। इसके जवाब में पाकिस्तान की एयर स्ट्राइक का भारत की अर्थव्यवस्था पर तत्काल प्रभाव पड़ेगा। कुल मिलाकर, दोनों ओर के सत्ताधारियों के फैसलों से महँगाई, बेरोजगारी और गरीबी बढ़ेगी-यहाँ भी और वहाँ भी। आज युद्ध दोनों ओर के सत्ताधारियों की सत्ता बरकरार रखने की जरूरत बन गया है। देखना केवल यह है कि यह युद्ध किस रूप में लड़ा जाता है।
लेकिन क्या देश की जनता को विभाजित और कमजोर करके यह युद्ध लड़ा जाएगा? क्या भारत-पाकिस्तान युद्ध को देश के अंदर हिंदू-मुस्लिम युद्ध में बदलने की तैयारी चल रही है? पिछले एक सप्ताह के घटनाक्रम और सरकार व प्रशासन की भूमिका को देखें, तो ऐसा लगता है कि भारत-पाकिस्तान युद्ध भले ही प्रत्यक्ष रूप से न हो, लेकिन देश के मुस्लिमों के खिलाफ एक युद्ध छेड़ दिया गया है। संघी संगठन एक ही साँस में ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ का नारा लगाते हैं, पुतले जलाते हैं और उसी साँस में देश के मुस्लिमों के खिलाफ जहर उगलते हैं, उन पर हमले करते हैं।
भोपाल के हबीबगंज रेलवे स्टेशन पर नशे में धुत युवकों ने रेलवे पुलिस के हेड कांस्टेबल दौलत खान पर केवल उनके नाम की पट्टी देखकर हमला कर दिया। साफ है कि अब पुलिस और सैनिक भी संघी संगठनों के सांप्रदायिक हमलों से सुरक्षित नहीं हैं। स्थिति इतनी शर्मनाक हो गई है कि एक हिंदू डॉक्टर अपने मुस्लिम मरीज का इलाज करने से मना कर रहा है।
संघी संगठनों के हमलों से अब उनके प्रति निष्ठावान लोग भी नहीं बचे हैं। जनसत्ता के पूर्व संपादक राहुल देव की सोशल मीडिया पर टिप्पणी इसका उदाहरण है: “बेटी के साथ अपनी डीपी हटा दी है, उससे पूछकर, क्योंकि उसकी इच्छा से लगाई थी। फेसबुक सहित सोशल मीडिया पर ‘राष्ट्रवादी सनातनी देशभक्तों’ की अश्लील निगाहों और टिप्पणियों का शिकार बेटी अब और न बने, इसलिए। इस संस्कारी प्रजाति के सदस्य किसी की माँ, पत्नी, बेटी पर अपनी कुत्सा बरसाने में संकोच नहीं करते। मैं आशा करता हूँ कि वे अपने परिवार की महिलाओं को बख्श देते होंगे।”
राहुल देव का संघ के प्रति झुकाव जगजाहिर है, लेकिन इससे क्या? नफरत और कुत्सा की राजनीति किसी को नहीं छोड़ती-न मुस्लिम को, न हिंदू को। सूरत के दंगों में गर्भ में पल रहे उस अजन्मे बच्चे को भी नहीं, जिसकी माँ के पेट में तलवार घुसेड़कर भ्रूण को नोंक पर नचाया गया। उसका अपराध केवल यह था कि वह किसी गैर-हिंदू माँ के गर्भ में पल रहा था। यह नफरत की आग हिंदुओं तक भी पहुँच रही है। राहुल देव के साथ मेरा भी सिर शर्म से झुका है, क्योंकि नाम से हिंदू होने के बावजूद मेरा मैसेंजर भी ऐसी ही धमकियों और गालियों से भरा है, और मैं इन तथाकथित सनातनियों के खिलाफ कुछ करने में असहाय हूँ। राहुल जी का दुख और क्षोभ मेरा भी है।
भागलपुर, भिवंडी, मालेगाँव, अलीगढ़, बनारस, मेरठ, मुरादाबाद, मुजफ्फरनगर में हुए दंगों का इतिहास बताता है कि इन दंगों को आयोजित करने में भाजपा-संघ का बड़ा हाथ था। ये दंगे मुस्लिमों की घरेलू अर्थव्यवस्था को तोड़ने और उनके उद्योगों पर हिंदू पूँजीपतियों का कब्जा कराने के उद्देश्य से किए गए थे। यह कोई रहस्य नहीं है। आज भी भाजपा शासन में मुस्लिमों की आजीविका पर सुनियोजित हमले हो रहे हैं।
दूसरी ओर, मालेगाँव बम धमाका, समझौता एक्सप्रेस धमाका, मक्का मस्जिद धमाका जैसी घटनाओं से पुष्टि हुई है कि मुस्लिमों को आतंकवादी साबित करने के लिए संघी संगठनों ने स्वयं इन आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया था। सबूत इतने पुख्ता हैं कि मोदी सरकार के अधीन काम करने वाली एनआईए को भाजपा की पूर्व सांसद और कथित साध्वी प्रज्ञा ठाकुर सहित सात हिंदुत्ववादी आतंकवादियों के लिए फाँसी की सजा की माँग करनी पड़ी।
नफरत की राजनीति को पालने-पोसने वाले इतने गिर चुके हैं कि वे स्वयं आतंकी बन गए हैं और जिंदा बम बनकर घूम रहे हैं। ये सभी दंगे और आतंकी घटनाएँ, जिनमें संघी संगठनों की सीधी संलिप्तता है, और उनका मुस्लिम-विरोधी रवैया, अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की नजर में है। इससे भाजपा और मोदी सरकार का आतंकवाद के खिलाफ लड़ने और पहलगाम हमले को पाक-प्रायोजित बताने का दावा कमजोर पड़ता है।
मोदी सरकार की इस कमजोरी का पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में पूरा फायदा उठा रहा है। उसने पहलगाम की घटना की “निष्पक्ष अंतरराष्ट्रीय जाँच” की माँग की है, जिसे चीन ने समर्थन दिया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 25 अप्रैल को सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर पहलगाम में आतंकी हमले की निंदा की है, लेकिन इसमें पाकिस्तान और लश्कर-ए-तैयबा का नाम शामिल नहीं किया गया, हालाँकि उनके शामिल होने के पर्याप्त प्रमाण हैं। संयुक्त राष्ट्र में भारत के गर्जन-तर्जन का कोई असर नहीं हुआ। ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका और रूस जैसे मित्र देशों ने भी भारत के पक्ष में रुचि नहीं दिखाई। कूटनीति के स्तर पर यह भारत की पराजय है। ऐसी स्थिति में किसी संभावित युद्ध में भारत को शायद ही किसी शक्तिशाली देश का सक्रिय समर्थन मिले।
सबसे अच्छी बात यह है कि पहलगाम की घटना के बाद भाजपा द्वारा अपेक्षित सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अभी तक नहीं हुआ। कश्मीर की हिंदू और मुस्लिम जनता, साथ ही वहाँ की पार्टियाँ और संस्थाएँ, आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होकर खड़ी हुई हैं। कश्मीर की सभी मस्जिदों में मुस्लिम भाइयों ने आतंकवाद की निंदा करते हुए पहलगाम हमले में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि दी और पीड़ित परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त की।
इस संकटकाल में कश्मीरी मुस्लिम परिवारों ने हर हिंदू के लिए अपने दरवाजे खुले रखे। इस घटना से मानवीयता और संवेदनशीलता के कई प्रेरक उदाहरण सामने आए, जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को नई धार दी और दोनों समुदायों के बीच भाईचारे के नए रिश्ते विकसित किए। बिना किसी देरी के कश्मीर में पर्यटकों की वापसी हुई, जिसने आतंकवादियों के पर्यटन उद्योग को नष्ट करने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मंसूबों को नाकाम कर दिया।
सबसे बुरी बात यह है कि संघी संगठन किसी भी सकारात्मक पहल से सबक लेने को तैयार नहीं हैं। वे अपने चुनावी लाभ के लिए देश को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने की नीति पर अडिग हैं। नफरत और सांप्रदायिकता पर आधारित विभाजित देश न तो पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद का मुकाबला कर सकता है, न ही अमेरिका-प्रायोजित आर्थिक हमलों का। आज की सबसे बुरी खबर यह है कि संघ-भाजपा की सांप्रदायिक और साम्राज्यवादी नीतियों ने हमारे देश को कहीं का नहीं छोड़ा।
(संजय पराते अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं)
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