पूरी दुनिया अमेरिका की विदेशी कर-नीति से खुद कराह उठी है। खुद अमेरिका इससे अछूता नहीं रहा। वहाँ के लोग सड़कों पर उतर आए हैं। वे खुलकर ट्रंप और मस्क का विरोध कर रहे हैं। जबकि अमेरिकी राज्य की पुलिस ‘फिलीस्तीन के समर्थकों’ के नाम पर विश्वविद्यालयों में रेड डालने का अभियान चला रही है। विश्व के सबसे अच्छे विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का माहौल बिगड़ता हुआ दिख रहा है।
इतिहास गवाह है कि जब भी ऐसी विदेशी कर-नीतियाँ अपनाई गईं, विश्व में युद्धों का सिलसिला शुरू हुआ। शुरूआती दौर में यह यूरोपीय हिस्सों में लड़ा गया। उपनिवेशों पर कब्जा जमाने की प्रक्रिया में यह बढ़ते हुए पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया। लेकिन इसका मूल केंद्र यूरोप ही बना रहा। दूसरे विश्वयुद्ध के अंत में निश्चित ही इसने अपना दायरा एशिया तक बढ़ा लिया। आज पूंजीवादी साम्राज्यवाद के भूगोल में चीन और कोरिया बड़े नाम बन चुके हैं। 1990 के दशक में मध्य एशिया की तबाही से शुरू हुआ सिलसिला युद्ध के रुख को किस तरह मोड़ेगा और इसका केंद्र क्या होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन आशंकाएँ किसी भी इंसान के भीतर सिहरन पैदा कर सकती हैं।
जब हम अपने देश के भीतर के हालात देखते हैं, तब यहाँ हैरान करने वाली घटनाएँ घटते हुए हम देख रहे हैं। देश के सबसे बड़े पूंजीवादी घराने का मालिक परिवार और अन्य लोगों के साथ रामनवमी के अवसर पर 100 किमी से अधिक की लंबी यात्रा पर निकला हुआ दिख रहा है। बंगाल से लेकर उत्तर प्रदेश में तलवार, भाला, गड़ासा और अन्य हथियारों के साथ रामनवमी की शोभायात्राएँ दिख रही हैं। मजारों पर भगवा झंडा लहराया जा रहा है और खुलेआम मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरत का प्रदर्शन किया जा रहा है। वहीं दूसरी ओर अयोध्या में ‘राम लला’ को अब राजा की तरह प्रतिष्ठित करने और उनके शाही दरबार के निर्माण की तैयारियाँ जोर-शोर से चल रही हैं।
संसद में वक्फ बोर्ड पर नए कानून बनाने को लेकर जिस तरह का माहौल बनाया गया और बहस के नाम पर जिस तरह भू-स्वामित्व का हवाला दिया गया, उससे यही लगा मानो इस पर पेश किए गए बिल के नियम बन जाने से भ्रष्टाचार और विकास की एक बड़ी समस्या हल हो जाएगी। दुनिया ट्रंप के टैरिफ से कराह रही थी, भारत वक्फ बोर्ड पर लंबे-चौड़े दावे कर रहा था। प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू विदेश यात्रा पर निकल गए। ऐसा लग रहा है मानो देश की अर्थव्यवस्था विश्व-पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से बाहर बना हुआ एक टापू है, जहाँ एक बार फिर से आदिम साम्यवाद से पूंजीवाद और समाजवाद की कहानी लिखी जाएगी।
केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल समय-समय पर भारत में पूंजीवादी उद्यमिता को लेकर सवाल उठाते रहे हैं। एक बार फिर जब अमेरिकी टैरिफ की मार से दुनिया कराह रही थी और भारत में इस पर चुप्पी साधी गई थी, पीयूष गोयल ने अपना मुँह खोला। वह स्टार्टअप को लेकर बोल रहे थे। उन्होंने जो बात कही, उसका सीधा अर्थ था, लेकिन जब इस सीधे अर्थ पर बात शुरू हो गई, तब उन्होंने सफाई दी कि उनकी बात का गलत अर्थ न निकाला जाए। उनकी बात का सीधा अर्थ यही था कि स्टार्टअप उद्योग से जुड़ा हुआ है, दुकान खोलने से नहीं जुड़ा है। यह बात भारत के आधुनिक आर्थिक इतिहास की मूल सच्चाई है।
भारत का पूंजीपति मूलतः लंबे समय से दुकानदारी ही कर रहा है। भारत की विशाल कंपनियाँ आधुनिक टेक्नोलॉजी के नाम पर ‘सर्विस’ बेचती हैं। इसमें टाटा समूह भी शामिल है। तकनीकों का आयात मूलतः यहाँ के संसाधनों के दोहन से आगे नहीं जाता है। यह कभी भी नई तकनीकों के विकास का रास्ता नहीं खोलता है। इस तरह के विकास को मार्क्सवादी भाषा में ‘दलाल विकास की नीति’ नाम दिया जाता है, क्लासिक आर्थिक भाषा में इसे ‘निर्भर विकास नीति’ और आधुनिक भाषा में इसे ‘पार्टनरशिप’ नाम दिया गया है।
एक पूंजीवादी देश में आर्थिक विकास की नीतियों के केंद्र में पूंजी और उसके मालिकों की प्रधानता होती है। इस सरल से वाक्य को भारत पर लागू करें, तो यहाँ विविध परिदृश्य दिखाई देगा। भारत अपने कुल श्रम, पूंजी और पूंजीगत संरचना निर्माण के कुल खर्चों का ब्यौरा देखें, जिसके केंद्र में निश्चित ही बाजार होता है, तब इसकी प्रकृति को समझना ज्यादा आसान हो जाएगा।
आज ही के इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय के अनुसार, भारत शोध और विकास संबंधी खर्च के लिए अपने कुल सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.64 प्रतिशत खर्च करता है। इस छोटे से हिस्से को यदि हम 100 मान लें, तब इसका लगभग एक तिहाई हिस्सा खर्च निजी कंपनियाँ करती हैं। श्रम निर्माण के लिए शिक्षा सबसे अहम हिस्सा है।
पिछले दस सालों में सरकारी स्कूलों के बंद होने की संख्या लाख का आँकड़ा छूने को है। जाहिर है, ये जितने ही बंद होंगे, सरकार इनकी जिम्मेदारियों से मुक्त होगी। प्राथमिक शिक्षा को जिस तेजी से एनजीओ और निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, उससे भारत के श्रम का भविष्य उतना ही अंधकारमय होता जा रहा है।
उच्चतर शिक्षा की हालत और भी बदतर होती जा रही है, जबकि कोचिंग संस्थान एक समानांतर शिक्षा व्यवस्था की तरह उभरकर आए हैं। संरचनागत निर्माण में सड़क निर्माण एक अलग ही मुकाम हासिल कर रहा है। यह भारत की आर्थिक संरचना में डायनासोर की एक नई प्रजाति की तरह ‘विकसित’ होता जा रहा है।
यहाँ एक आँकड़ा देखना उपयुक्त होगा। 2014 में भारत में चार लेन से अधिक वाली सड़कें कुल का 20 प्रतिशत थीं। दो लेन और उसके साथ बनी संरचना का हिस्सा 50 प्रतिशत था। दो लेन से कम वाली सड़कें 30 प्रतिशत थीं। 2023 में दो लेन से कम वाली सड़कों का कुल में से हिस्सा महज 10 प्रतिशत रह गया। चार से अधिक लेन वाली सड़कों का हिस्सा 32 प्रतिशत हो गया। चार लेन वाली सड़क मामूली बढ़त के साथ 58 प्रतिशत पहुँच गई है। सड़कों का निर्माण और उसके साथ टोल टैक्स की वसूली एक समानांतर अर्थव्यवस्था की तरह उभरी है। 1970 की तरह अमेरिका के ऑटोमोबाइल रिवॉल्यूशन का ख्वाब का अंतिम नतीजा दोपहिया वाहनों तक से टोल टैक्स वसूली में बदल गया है।
भारत में जिस तेजी से ‘गॉड मार्केट’ का विकास हुआ है, इसने सभी को पीछे छोड़ दिया है। इसे कई उत्साही लोग ‘धर्मो-इकोनॉमिक्स’ नाम दे रहे हैं। धार्मिक कॉरिडोर के निर्माण में खूब पैसा डाला गया है। इसके प्रचार-प्रसार में सीधे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री शामिल हो रहे हैं। लेकिन इस अर्थव्यवस्था के केंद्र में हिंदू धर्म को रखा गया है। संभवतः भारत के पूर्व मध्यकालीन दौर में तीर्थयात्राओं के निर्माण से बने नए शहर, अर्थव्यवस्था और धर्म का नए सिरे से पुनरुत्थान को ध्यान में रखते हुए, और यूरोपीय पूंजीवादी विकास में धर्म-युद्धों से सीख लिया गया है।
ऐसा लगता है कि इस सरकार के आर्थिक चिंतक भारत के कुल आर्थिक विकास की संभावना को हिंदुत्व के सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद में ही देख पा रहे हैं। यही वह कारण है, जिसका परिणाम हम सामने देख रहे हैं। जिस समय मरणासन्न पूंजीवाद युद्ध की विभीषिका जैसे हालात में रेंगते हुए गुजर रहा है, जबकि भारत की संसद में वक्फ बोर्ड पर बहस चल रही है, उद्योगपति रामनवमी के उपलक्ष्य में पैदल यात्रा कर रहा है, प्रधानमंत्री विदेश यात्रा कर रहा है, सड़कों पर भगवा रंग हथियारों के साथ लहरा रहा है, और वाणिज्य मंत्री उद्यमियों से कह रहे हैं कि स्टार्टअप का अर्थ दुकान खोलना नहीं है।
वाणिज्य मंत्री सफाई में ठीक बोल रहे हैं, उनके कहे का अर्थ ठीक से समझा नहीं गया है। दरअसल, भारत का जो राजनीतिक अर्थशास्त्र दिख रहा है, उसका अर्थ कुछ और ही है। मार्क्सवादी भाषा में यह राजनीति का घोर पतनशील प्रतिक्रियावादी रूप है, जिसकी पीठ पर फासीवाद सवार हो चुका है और अपना झंडा लहरा रहा है। चुप्पियाँ उन्हें आगे बढ़ने का रास्ता दे रही हैं।
(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)