बुलडोजरों के ड्राइवरों को नींद में भी सुनाई देती हैं महिलाओं और बच्चों की रोती और चीखती हुई आवाजें

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दर्जनों मकान ध्वस्त करने वाले बुलडोजरों के ड्राइवरों की मानसिक पीड़ा का विस्तृत विवरण टाइम्स ऑफ इंडिया ने छापा है। टाइम्स ऑफ इंडिया के रिपोर्टर अनेक ऐसे ड्राइवरों से मिले जिनसे मकानों को ध्वस्त करने का काम करवाया गया है।

कल्याण म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के बुलडोजर के एक ड्राइवर से बात करते हुए उसने बताया कि रात को बार-बार मेरी नींद खुल जाती थी। रोती हुई माताएँ, चीखते हुए बच्चे, जहाँ मकान गिर रहा था, वहाँ बच्चे अपने खिलौनों को अपने सीने से लगाकर जोर-जोर से रो रहे थे। रोते हुए उनकी यह आवाजें मुझे सुनाई देती थीं। मैं बार-बार यह सोचता था कि सिर्फ अपने परिवार को पालने की खातिर मैं यह दुष्कर्म कर रहा हूँ।

एक ड्राइवर ने बताया कि मुझे कुछ ऐसे मकानों को भी तोड़ना पड़ा जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि उन्हें न तोड़ा जाए, परंतु मेरी आँखों के सामने कानून की धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं।

एक अन्य ड्राइवर ने बताया कि मुझे कुछ ऐसे मकान भी तोड़ने पड़े जिनके भीतर परिवार अभी भी रह रहे थे। मुझे महसूस होता था कि मैं उनकी सारी जीवन की कमाई छीन रहा हूँ। ध्वस्त हुए मकान के चारों ओर असहाय लोगों की चीत्कार सुनाई पड़ रही थी। ये चीत्कारें कई दिनों तक मुझे झकझोरती रहीं और मेरे कानों में सुनाई देती रहीं। एक मकान मैं ध्वस्त भी नहीं कर पाया था कि मुझे एक और मकान इसके बाद तोड़ना था। मुझे यह बताया जाता था कि मकान इसलिए तोड़े जा रहे हैं ताकि शहर इनके तोड़ने के बाद सुंदर दिखे, सड़कें चौड़ी हो जाएँगी और वी.आई.पी. के आवागमन में बड़ी सुविधा हो जाएगी।

ड्राइवरों ने बताया कि ये मकान इसलिए तोड़े जा रहे हैं क्योंकि यहाँ एक बगीचा बनेगा, जिस बगीचे में लाखपति, करोड़पतियों के बच्चे खेल सकेंगे। इनके तोड़ने के बाद कुछ लोगों को यह कहते हुए सुना कि अब हमारे चारों तरफ हरियाली होगी।

मामला उस समय और गंभीर हो जाता है जब जिनके मकान तोड़े जाते हैं, वे गरीब होते हैं। बरसों की कमाई में से एक रोटी कम खाकर इन लोगों ने यह मकान बनाए हैं। अपना मकान तोड़े जाने के बाद इन्हें सड़कों पर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

मुंबई कॉरपोरेशन के मेहरबख्श शेख कहते हैं कि खुदा ही जानता है कि जब हम यह दुष्कर्म करते हैं तो हमारे दिल पर क्या गुजरती है। शेख स्वयं एक गंदी बस्ती में रहते हैं। उन्हें ऐसे लोगों के मकान भी तोड़ने पड़े जो उनके आसपास थे। रोती हुई महिलाएँ अपना दर्द इस तरह बता रही थीं जैसे उनके ऊपर आसमान गिर गया हो।

हमें यह बताया जाता है कि जिन मकानों को हम तोड़ रहे हैं, वे अपराधियों के हैं और गैरकानूनी हैं। परंतु मैं सोचता था कि मैं ऐसे माफियाओं को जानता हूँ जिन्होंने कई मंजिला मकान बनाए हैं और ठाठ से रह रहे हैं। किसकी हिम्मत है कि उनके मकान गिराए जाएँ? मैं जानता हूँ कि हम लोग जमीन पर मकान बनाते हैं, झुग्गियाँ बनाते हैं और यदि हम ऐसी जमीन पर मकान न बनाएँ तो कहाँ बनाएँ? हमारा देश गरीबी में डूबा हुआ है। हमारे परिवार फुटपाथ पर रह रहे हैं। पुलों द्वारा दी गई छाँव में रह रहे हैं। क्या ऐसे लोगों को अपना मकान बनाने का अधिकार नहीं है?

नागपुर कॉरपोरेशन के एक ड्राइवर ने बताया कि मुझे सिर्फ 15 मिनट पहले बताया जाता है कि कौन-सा मकान तोड़ना है। मुझे तुरंत जाना पड़ता है। मुझे आदेश दिया गया कि मैं 15 मिनट में संजय बाग कॉलोनी पहुँचूँ। जब मैं वहाँ पहुँचा तो बड़ी संख्या में वहाँ पुलिसवाले, कैमरावाले पहले से पहुँच गए थे और उस दृश्य को अपने कैमरे में शामिल करने के लिए तैयार थे, जो मुझे अपने बुलडोजर से बनाना था।

मुझे एक व्यक्ति का मकान तोड़ना था, जिस पर दंगे में शामिल होने का आरोप था। ठीक 10:40 पर मकान तोड़ने का काम शुरू हो गया। पहले खिड़कियाँ तोड़ी गईं, फिर दीवारें तोड़ी गईं। वैसे इस बात के कोई पुख्ता सबूत नहीं थे कि फहीम खान, जिनका मकान तोड़ा जा रहा था, वे दंगे में शामिल थे, परंतु अधिकारियों का कहना था कि उन्हें मालूम है। थोड़ी देर में वह मकान तोड़ दिया गया।

उत्तर प्रदेश के देवेंद्र सिंह बताते हैं कि स्टीयरिंग व्हील पर मेरे हाथ काँपते हैं। पहले भी काँपते हैं और बाद में भी काँपते हैं। ये उस समय भी काँपते हैं जब मैं किसी अपराधी का मकान भी तोड़ता हूँ। यह हो सकता है कि परिवार में रहने वाला एक सदस्य अपराधी हो, परंतु क्या उस परिवार में रहने वाले बच्चे, महिलाएँ, वृद्धजन अपराधी हैं? उन्हें तो पता ही नहीं होता कि उनके परिवार का एक सदस्य अपराधी है।

मुझे मार्च माह का वह दिन याद है जब मुझे एक मकान तुरंत तोड़ना था। मेरे बुलडोजर के पीछे खड़े अधिकारी कह रहे थे कि जल्दी करो, जल्दी करो। एक तरफ उनका आदेश था और दूसरी तरफ मैं चिल्लाती हुई औरतों से घिरा था। वे जानना चाह रही थीं कि उनका मकान क्यों तोड़ा जा रहा है। मुझे रोना आ रहा था, पर क्या करता, आदेश था। कभी-कभी मुझे लगता था कि बुलडोजर छोड़ मैं इन महिलाओं की चीत्कार में शामिल हो जाऊँ।

जो लोग प्रभावित होते थे, वे बुलडोजर को घेर लेते थे, बुलडोजर पर चढ़ जाते थे और उस पर चारों तरफ से हमला करते थे। मैं बुलडोजर में लगे काँच की खिड़कियों को बंद कर देता था ताकि मुझे लोगों की गालियाँ न सुननी पड़ें। इस तरह का विरोध कई अवसरों पर हिंसा का रूप लेता था। मैं स्वयं टूटे हुए काँचों से घायल हुआ हूँ। लोग लगातार पत्थर फेंक रहे थे। सभी बुलडोजरों के ड्राइवरों की समान शिकायत थी, जो खतरों से भरा काम करते हैं। ड्राइवरों का कहना था कि इसके बाद भी हमारी तनख्वाह ना के बराबर है।

एक ड्राइवर ने बताया कि मेरी तनख्वाह सिर्फ 18 हजार मासिक है। मेरे पिता की मृत्यु के बाद सारे परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी मेरी है।

इसी तरह लगभग सभी ड्राइवर शिकायत कर रहे थे कि वे अपनी जान पर खेलकर यह काम करते हैं। एक-दो को छोड़ दें तो सभी बुलडोजर चलाने वाले नगरपालिकाओं के कर्मचारी हैं, वे भी ठेके पर। इस तरह के कर्मचारियों को 500 रुपये दिन के हिसाब से 10 घंटे काम करने पर मिलते हैं। यदि तोड़ने वाला मकान बहुत बड़ा है तो कुछ ज्यादा मिल जाता है।

एक ड्राइवर ने बताया कि वह ठेके पर काम करता है और एक मकान तोड़ने पर 2000 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से मेहनताना मिलता है। परंतु इस गंदे काम के लिए मिला पैसा मैं कभी-कभी गरीब लोगों को दान दे देता हूँ।

कुछ ड्राइवर ऐसे भी मिले जिन्होंने इस अमानवीय काम को करने से इनकार कर दिया। उनमें से एक सुमित पटेल ने बताया कि मैंने एक मशीन खरीद ली है और मैं लगातार पुलिस को घर तोड़ने के काम से इनकार करता रहा। ईश्वर की कृपा से इस समय मेरे पास बहुत काम है और मुझे अब घर तोड़ने का काम करने की जरूरत नहीं है, जिससे मेरी आत्मा दुखी हो।

मेरी मशीन ने अभी तक न तो कोई दुकान तोड़ी है, न ही कोई मकान तोड़ा है। मैंने घरों की छत तोड़ने का काम नहीं किया है।

मुकेश पाटिल बताते हैं कि मेरे बुलडोजर से 25 मकान ध्वस्त किए गए हैं। इसमें संतोष अम्बेकर का मकान भी शामिल है, जिसकी कीमत 10 करोड़ आँकी गई है। संतोष अम्बेकर एक जाना-माना अपराधी है। (टाइम्स ऑफ इंडिया से साभार)

(एल.एस. हरदेनिया राष्ट्रीय सेक्युलर मंच के संयोजक हैं)

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