दौर गुजर गया हेडलाइन से सियासत संभालने का!

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भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने राहुल और प्रियंका गांधी तथा इंडिया गठबंधन के अन्य नेताओं को “पढ़ा-लिखा अनपढ़” बताया। इसलिए कि वे देश में बेरोजगारी और महंगाई जैसी समस्याएं होने की बातें करते हैं। उन्होंने कहा कि देश में ऐसी समस्याओं की बात विपक्ष की बनाई कहानी है।(https://x.com/imChikku_/status/1812465240610914562)

मध्य प्रदेश में भाजपा के विधायक पन्नालाल शाक्य ने तो छात्रों से कह दिया कि कॉलेजों से डिग्रियां लेने का कोई फायदा नहीं है। उससे बेहतर है पंक्चर बनाने की दुकान खोल लो। दरअसल ‘रोटी नहीं है तो केक खाओ’ की तर्ज पर कही गई इस बात से शाक्य का तात्पर्य यह था कि जब नरेंद्र मोदी पीएम कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस खोल रहे हैं, तो तब ऐसे छात्र सामान्य कॉलेजों की डिग्रियों के आधार पर नौकरी पाना चाह रहे हैं! ये बात इंदौर में उन्होंने उस समारोह में कही, जिसमें गृह मंत्री अमित शाह ने 55 पीएम कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस का वर्चुअल उद्घाटन किया। शाह ने यहां इस सब्जबागी वादे को दोहराया कि 2047 तक भारत को विकसित देश बना दिया जाएगा। (‘डिग्रियां लेने से कोई फायदा नहीं, बाइक पंचर की दुकान खोल लो’, बीजेपी विधायक ने स्टूडेंट्स को दी अजीब सलाह | Jansatta)

तेरह जुलाई को प्रधानमंत्री ने मुंबई में 29 हजार करोड़ रुपये की सड़क, रेलवे और बंदरगाह परियोजनाओं की शुरुआत करते हुए दावा किया कि पिछले तीन-चार साल में इतने बड़े पैमाने पर नौकरियां उपलब्ध हुई हैं कि (बेरोजगारी की) “फर्जी कहानियां फैलाने वाले लोगों के मुंह बंद हो गए हैं।” प्रधानमंत्री ने कहा कि इस अवधि में आठ करोड़ नौकरियां पैदा हुई हैं। (Eight crore jobs created in last 3-4 years; it has silenced those spreading fake narratives: PM Modi (moneycontrol.com))

स्पष्टतः प्रधानमंत्री ने भारतीय रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के आधार पर यह दावा किया। रिजर्व बैंक फिलहाल 27 उद्योगों में उत्पादकता की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार कर रहा है। ये कारोबार मोटे तौर पर कृषि, आखेटन, वनीकरण एवं मछलीपालन, खनन, मैनुफैक्चरिंग, बिजली, गैस एवं जल आपूर्ति, कंस्ट्रक्शन और सेवा क्षेत्र से संबंधित हैं। अभी ये रिपोर्ट तैयार होने की प्रक्रिया में है, लेकिन इससे संबंधित अस्थायी आंकड़े रिजर्व बैंक ने नौ जुलाई को जारी कर दिए। उसी में चार साल में आठ करोड़ रोजगार पैदा होने की बात कही गई। इसके मुताबिक चार करोड़ 70 लाख नौकरियां तो सिर्फ 2023-24 में पैदा हुईं। (India added 4.7 crore jobs in FY24; 6% growth double of previous year: RBI data – Times of India (indiatimes.com))

रिजर्व बैंक ने अस्थायी आंकड़ों को जारी करने की जरूरत क्यों महसूस की, इस बारे में ज्यादा माथापच्ची की गुंजाइश नहीं है। आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी वजह उसके ठीक पहले आई दो रिपोर्टें थीं, जिनकी वजह से सरकार असहज सवालों से घिरती दिख रही थी। तो- कम-से-कम सियासी बहसों में उस घेरे से निकलने के लिए रिजर्व बैंक ने उसे रास्ता दे दिया। कुछ लोग कह सकते हैं कि हेडलाइन मैनेजमेंट के लिए एक बार फिर बनावटी आंकड़े पेश किए गए!

तो आइए, इसी महीने आई दो अन्य रिपोर्टों पर ध्यान देते हैं।

एक रिपोर्ट तो खुद सरकार की अपनी है। यह विश्वसनीय सर्वे एजेंसी– नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की है। एनएसएसओ ने 2021-22 और 2022-23 की Annual Survey on Unincorporated Sector Enterprises (ASUSE) रिपोर्ट जारी की है। यह वार्षिक रिपोर्ट उन इकाइयों के बारे में होती है, जिनका कंपनी ऐक्ट के तहत पंजीकरण नहीं कराया गया होता है। यानी वे “कॉरपोरेट” श्रेणी में नहीं होती हैं। इस रिपोर्ट से सामने आया कि 2015-16 से लेकर 2022-23 के बीच 18 में से 13 राज्यों में अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों की संख्या में लगातार गिरावट आई है। (Nearly half of Indian states and three union territories saw informal sector job losses over seven years: NSSO – Hindustan Times)

इस रिपोर्ट का विश्लेषण करते हुए अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने बताया कि 2015-16 की तुलना में 2022-23 में अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों की संख्या 16 लाख 45 हजार कम थी। यानी सात वर्ष की अवधि में इस क्षेत्र में मौजूद श्रमिकों की संख्या डेढ़ प्रतिशत घट गई, जबकि बढ़ती आबादी के साथ इसमें बढ़ोतरी होना सामान्य परिघटना होती। खासकर उस हाल में तो ऐसा निश्चित ही होना चाहिए था, जब औपचारिक क्षेत्र में रोजगार का विस्तार नहीं हुआ है। इस विश्लेषण में लिखा गया- “2015-16 के बाद पहली बार उपलब्ध हुए आंकड़ों से (अर्थव्यवस्था को लगे) बाहरी (यानी गैर आर्थिक) तीन सदमों के प्रभाव को समझने में मदद मिलती है। ये तीन झटके थेः नवंबर 2016 में हुई नोटबंदी, जुलाई 2017 में लागू वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), और मार्च 2020 में आई कोविड-19 महामारी। गैर-कंपनीकृत (unincorporated) क्षेत्र में वृद्धि दर और ऐसी इकाइयों में मौजूद रोजगार इन झटकों से (बुरी तरह) प्रभावित हुए।” (After three shocks, 16.45 lakh jobs lost in informal sector over 7 years | Business News – The Indian Express)

इस बात पर यहां अवश्य ध्यान दे लेना चाहिए कि उपरोक्त घटनाओं में दो फैसले (नोटबंदी और जीएसटी) तो पूरी तरह से सरकार के अपने थे। कोविड महामारी में भी अनियोजित लॉकडाउन का बुरा असर हुआ था। तात्पर्य यह कि इनसे हुए नुकसान की सीधी जिम्मेदारी केंद्र सरकार पर आती है।

उधर इसी महीने सिटी ग्रुप ने भारत में रोजगार की स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी की। उसमें कहा गया कि भारतीय अर्थव्यवस्था में रोजगार उत्पन्न करना सबसे प्रमुख चुनौतियों में एक बना हुआ है। भारत सरकार रोजगार की सूरत में परिवर्तन लाने में विफल रही है। सिटी ग्रुप के मुताबिक आवश्यकता इस बात की है कि भारत में हर साल एक करोड़ 20 लाख रोजगार के नए अवसर उत्पन्न किए जाएं। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास की जो दिशा है, उसके बीच ऐसा करना मुश्किल बना हुआ है। सिटी ग्रुप ने कहा कि जीडीपी की वृद्धि दर सात प्रतिशत भी बनी रहे, तब भी भारत आवश्यकता के अनुरूप रोजगार पैदा नहीं कर पाएगा। इसलिए सिटी ग्रुप ने सलाह दी है कि सरकार को आर्थिक विकास के साथ स्वाभाविक रूप से रोजगार बढ़ने के आसरे नहीं बैठे रहना चाहिए, बल्कि उसे सामाजिक क्षेत्र में निवेश से इसके लिए विशेष प्रयास करने चाहिए।

मगर नरेंद्र मोदी सरकार को ना तो हकीकत की तस्वीर देखना पसंद है, और ना ही उसे यह गवारा है कि कोई उसे सलाह दे। मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था में यकीन करने वाले एक अमेरिकी बैंक से जुड़ी एजेंसी की सलाह भी अच्छी नहीं लगती। तो नाराज सरकार ने सिटी ग्रुप की रिपोर्ट पर तीखी प्रतिक्रिया जताई। कहा कि सिटी ग्रुपी रोजगार के बारे में उपलब्ध “व्यापक एवं सकारात्मक” आंकड़ों पर ध्यान देने में नाकाम रहा। सरकार ने दावा किया कि इन आंकड़ों के मुताबिक 2027-18 से 2021-22 के बीच भारत में आठ करोड़ नौकरियां पैदा हुईं। (India Government Rebuts Citigroup Report on Job Generation, Citing Positive Employment Data (ndtvprofit.com))

तो लीजिए, और क्या चाहिए! नरेंद्र मोदी 2014 के आम चुनाव में जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे, तो उन्होंने वादा किया था कि उनकी सरकार हर साल दो करोड़ नौकरियां पैदा करेगी। वही तो अब हो रहा है- चार साल में आठ करोड़ नौकरियां! वादा पूरा हुआ!

लेकिन यह वादा किस तरह पूरा हुआ है, उसकी पोल मुख्य विपक्षी दल- कांग्रेस ने खोली है। अपने बयान में उसने नौकरियां पैदा होने के दावे में जो छेद हैं, उनका जिक्र किया है। इसके मुताबिक,

Ø रोजगार की संख्या में जो कथित वृद्धि दिखाई गई है, वे दरअसल बिना वेतन वाले घरेलू काम हैं, जिनमें अक्सर महिलाएं शामिल होती हैं।

(ध्यान रहे, मोदी सरकार ने खेती या घरेलू कारोबार में कार्यरत घर के सभी सदस्यों को अलग-अलग रोजगारशुदा व्यक्ति के रूप में गिनने की शुरुआत कई साल पहले की थी। इसके जरिए दावा किया गया कि भारत में कार्यरत लोगों की संख्या लगभग 18 प्रतिशत बढ़ गई है।)

Ø असल हाल यह है कि खराब आर्थिक माहौल के कारण औपचारिक क्षेत्र में कार्यरत वेतनभोगी कर्मचारियों की संख्या में गिरावट आई है, जिस वजह से बेरोजगार हुए लोग निम्न उत्पादकता और कम वेतन वाले अनौपचारिक क्षेत्र में काम ढूंढने को मजबूर हुए हैं।

Ø आठ करोड़ नई नौकरियों का दावा करते समय यह नहीं बताया गया है कि ये नौकरियां किस क्षेत्र में हैं और किस किस्म की हैं। उनमें वेतन का स्तर क्या है।

Ø कांग्रेस ने कहा है कि इसी नजरिए के कारण रिजर्व बैंक ने 2020-21 में भी रोजगार बढ़ने का दावा कर दिया था, जब कोविड-19 महामारी के कारण मोटे तौर पर अर्थव्यवस्था लॉकडाउन का शिकार थी।

(https://x.com/Jairam_Ramesh/status/1812806869368652090)

जिस दौर में बाजार केंद्रीकरण (market concentration) अभूतपूर्व स्तर (Market concentration increased across India’s key industries in FY24 | Economy & Policy News – Business Standard (business-standard.com) पर पहुंच गया हो- यानी अर्थव्यवस्था पर एकाधिकार (monopoly), द्वि-अधिकार (duopoly) या कुछ कंपनी-समूहों (cartelization) का नियंत्रण हो गया हो, और जिसके परिणामस्वरूप जमीनी स्तर पर आय तथा उपभोग गिरते चले गए हों, उस समय रोजगार में तीव्र उछाल के दावे सिरे से अतार्किक लगते हैं। इसके बावजूद मोदी सरकार ऐसे दावे करती चली जा रही है।

जाहिर है, वह 2024 के आम चुनाव और हाल के उप-चुनाव के नतीजों से कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। अगर वह इन चुनाव नतीजों का संदेश समझती, तो उसके कर्ता-धर्ताओं के सामने यह सहज ही स्पष्ट हो जाता कि आंकड़े गढ़ कर मीडिया की सुर्खियां चमका लेने से असल में जमीनी सूरत चमक नहीं जाती। ताजा चुनाव नतीजों का संदेश यह है कि ऐसी सुर्खियों से सत्ता पक्ष देश की आबादी के बहुत बड़े हिस्से को कई वर्षों तक भरमाए रखने में सफल रहा। लेकिन उन जन-समूहों के बीच अब एक बड़ा तबका ऐसा है, जिसे ऐसे इस सब्जबाग की हकीकत समझ में आने लगी है।

जब नोटबंदी की गई थी, तब आम जन के बीच ऐसे लोग बड़ी संख्या थे, जो कहते थे कि नरेंद्र मोदी के इस कदम से उन्हें भारी दिक्कत हुई है। श्रमिक वर्ग के ये लोग अपनी परेशानियों की कथा सुनाते थे। लेकिन उनमें बड़ी संख्या ऐसे लोगों की थीं, जो लगे हाथ कह देते थे कि थोड़े समय की दिक्कत है- मोदीजी ने कहा है, तो आगे अच्छा ही होगा। यानी ‘अच्छे दिन’ आने का भरोसा इतना मजबूत था कि लोग फौरी दिक्कतों को प्रसव पीड़ा की तरह देख रहे थे। वे इसे खुशी-खुशी झेल लेने को तैयार थे।

लेकिन आज उनमें ही बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो यह समझ गए हैं कि ये सब भ्रामक बातें हैं। उन्हें यह बात समझ में आने लगी है कि ‘अच्छे दिन’ की उम्मीद में उन्होंने अपने वर्तमान में जो कुछ अच्छा था, उसे भी गंवा दिया है। अब हाल यह है कि महंगाई ने उनकी थाली छोटी कर दी है और घर के नौजवानों के लिए सम्मानजनक रोजगार की दूर-दूर तक संभावना नहीं है। कुल मिलाकर अवसरहीनता का आलम है। इसी से पैदा हुए अंसतोष का इजहार कई राज्यों में 2024 के आम चुनाव में मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने किया।

पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता अरुण शौरी का जब नरेंद्र मोदी से मोहभंग होने लगा, तब उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि मोदी सरकार की दिलचस्पी अर्थव्यवस्था बेहतर बनाने में नहीं, बल्कि सुर्खियां बनाने में है। उसी इंटरव्यू में उन्होंने आंकड़ों से हेरफेर का जिक्र किया था और सिंगापुर में हुए एक सेमिनार का हवाला देते हुए कहा था कि विदेशों में भारत के आर्थिक एवं विकास संबंधी आंकड़ों पर अब शक किया जाने लगा है। तभी उन्होंने मोदी और उनके सहयोगियों को एक सलाह दी थी। कहा था कि “होशियारी काम नहीं आती। इससे कोई फायदा नहीं होता।” अंग्रेजी में उनका वाक्य था- claver-ness never pays.

यह सलाह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। मगर मोदी सरकार ने ना तो तब इस पर गौर किया, ना आज उससे ऐसा करने की आशा की जा सकती है। चुनावी झटके लगने के बावजूद वह पिछले लगभग डेढ़ महीने से यही दिखाने कोशिश में है कि कुछ भी नहीं बदला है, हालात पर उसका पहले जैसा ही नियंत्रण है! जैसा पहले था, वैसा अभी है- यानी निरंतरता- continuity.

मगर हकीकत यह है कि continuity टूट चुकी है। लोग अब बनावटी सुर्खियों और तोड़-मरोड़ कर तैयार किए गए आंकड़ों से भ्रम में नहीं आ रहे हैं। बल्कि संभावना यही है कि हर ऐसी कोशिश पर उलटी प्रतिक्रिया होगी। ऐसा नहीं होता, तो गुजरे शनिवार को आए उप चुनाव नतीजों में भाजपा को हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड में वैसी शिकस्त नहीं मिलती, जहां सवा महीने पहले आम चुनाव में उसे भारी जीत मिली थी। इसी तरह के संकेत मध्य प्रदेश (जहां भले हार ना हुई हो) और बिहार से भी आए।

निष्कर्ष यह कि मोदी सरकार के लिए सुर्खियां संभाल कर सियासत को संभाल लेने के दिन लद गए हैं। इस कोशिश में उसने अपनी साख को बहुत नुकसान पहुंचाया है। फिलहाल, वह सत्ता के समीकरण मैनेज कर लेने में भले कामयाब दिखती हो, मगर जमीनी सूरत को भी वह इससे संभाल लेगी- ऐसा होता नहीं दिखता है। बल्कि ऐसा हो पाने की गुंजाइश लगातार सिकुड़ती जा रही है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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