‘द लैंसेट’ ने कहा- कोरोना आपदा के लिए मोदी सरकार जिम्मेदार

दुनिया की प्रतिष्ठित मेडिकल पत्रिका ‘द लैंसेट’ ने 8 मई 2021 के अपने संपादकीय में भारत में कोविड-19 से निपटने में मोदी सरकार के रुख, तौर-तरीकों, लापरवाहियों और कुप्रबंधन की तीखी आलोचना की है और कहा है कि सरकार ने खुद ही इस प्राकृतिक आपदा को एक भयावह मानवनिर्मित आपदा का रूप दे दिया है।

भारत आज जो विपदा भोग रहा है उसे समझना कठिन है। 4 मई तक, कोविड-19 के दो करोड़ दो लाख से अधिक मामले दर्ज किए जा चुके हैं, जो 3 लाख 78 हजार प्रतिदिन का औसत है। इसी के साथ दो लाख 22 हजार से अधिक मौतें हो चुकी हैं, हलांकि विशेषज्ञों का मानना ​​है कि ये काफी कम करके बताए गए आंकड़े हैं। अस्पताल अपनी औकात से बाहर भरे पड़े हैं। स्वास्थ्यकर्मी बुरी तरह से थक चुके हैं और रोज-ब-रोज संक्रमण का शिकार हो रहे हैं। सोशल मीडिया ऑक्सीजन, बेड तथा अन्य जरूरतों की मांग कर रहे डॉक्टरों और जनता की हताशा भरी चीख-पुकार से भरा हुआ है। जबकि मार्च के शुरू में ही, कोविड-19 के मामलों की दूसरी लहर शुरू होने से ठीक पहले, भारतीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन घोषणा कर रहे थे कि भारत महामारी के ‘खात्मे की कगार’ पर है।

कई महीने तक कम मामले आने के आधार पर सरकार की धारणा यह बन गयी थी कि भारत ने कोविड-19 को पराजित कर दिया है, जबकि दूसरी लहर और कोरोना के नये रूपों के आने के खतरों की चेतावनी लगातार आ रही थी। आईसीएमआर (इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च) ने जनता के बीच किये गये परीक्षणों के आधार पर जनवरी में घोषित किया था कि भारत की केवल 21% आबादी में ही सार्स-कोव-2 के विरुद्ध एंटीबॉडी पाई गई है।

इसके बावजूद सरकारी सांख्यिकीय मॉडल ऐसे झूठे आश्वासन दे रहे थे जैसे कि भारत ‘हर्ड इम्यूनिटी’ यानि सामुदायिक प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर चुका है। इस गलतफहमी ने एक आत्मसंतुष्टि का भाव पैदा किया और तैयारियां भी कमजोर पड़ गयीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार का इरादा महामारी को नियंत्रित करने की कोशिशों से ज्यादा ट्विटर पर की जा रही आलोचनाओं पर नकेल कसने का रहा।

महामारी को बड़े पैमाने पर फैलाने वाली सुपरस्प्रेडर घटनाओं के जोखिमों के बारे में चेतावनी के बावजूद, सरकार ने धार्मिक उत्सवों को आयोजित होने दिया, जिनमें देश भर से लाखों लोग शामिल हुए, और इसके साथ ही विशाल राजनीतिक रैलियां की गयीं जिनमें साफ-साफ दिख रहा था कि कोविड-19 के खतरों से बचने-बचाने के उपायों का बिल्कुल धdयान नहीं रखा गया। सरकार की ओर से ऐसे संदेशों की वजह से कि कोविड-19 दरअसल खत्म हो चुका है, भारत के कोविड-19 टीकाकरण अभियान की शुरुआत भी धीमी पड़ गई, परिणामतः आबादी के 2% से भी कम लोगों को टीका लग सका।

संघीय स्तर पर, भारत की टीकाकरण योजना जल्द ही छिन्न-भिन्न हो गई। सरकार ने राज्यों से कोई चर्चा किये बिना ही अचानक नीतियों को बदल डाला और  टीकाकरण अभियान का विस्तार 18 साल से बड़ी उम्र के सभी लोगों के लिए कर दिया। नजीजतन सारी आपूर्ति ही निचुड़ गयी। बड़े पैमाने पर भ्रम का वातावरण बन गया और टीकों का एक बाजार तैयार हो गया, जिसमें राज्यों को निजी अस्पतालों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी।

यह संकट सभी राज्यों में एक जैसा नहीं है। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्य कोविड के मामलों में इस अचानक बढ़ोत्तरी के लिए तैयार नहीं थे, इस वजह से वहां जल्दी ही चिकित्सा में इस्तेमाल होने वाली ऑक्सीजन खत्म हो गयी। अस्पतालों में खाली बेड नहीं बचे और दाह-संस्कार के लिए आने वाले शवों की संख्या श्मशानों की क्षमता के वश में नहीं रहीं। कुछ राज्य सरकारें तो ऑक्सीजन या अस्पताल में बेड की मांग करने वालों पर रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा कानून) लगाने की धमकी तक देने लगी हैं। दूसरी तरफ केरल और ओडिशा जैसे अन्य राज्य हैं जहां तैयारी बेहतर थी, वे पर्याप्त मात्रा में चिकित्सकीय ऑक्सीजन का उत्पादन करने में सक्षम रहे हैं और कोविड की इस दूसरी लहर में उन्होंने यह ऑक्सीजन अन्य राज्यों को भी दी।

भारत को अब द्विस्तरीय रणनीति अपनानी होगी। सबसे पहले, असफल हो चुके टीकाकरण अभियान को तर्कसंगत बनाना होगा और इसकी गति बढ़ानी होगी। इससे उबरने की राह में दो तात्कालिक अड़चनें हैं: टीके की आपूर्ति को बढ़ाना (कुछ हिस्सा विदेशों से मंगाना होगा) और एक ऐसे वितरण अभियान की स्थापना करनी होगी, जिसके दायरे में न केवल शहरी, बल्कि ग्रामीण और गरीब नागरिक भी आ सकें, जो कि आबादी का 65% हिस्सा (80 करोड़ से ज्यादा लोग) हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें सार्वजनिक स्वास्थ्य और प्राथमिक देखभाल सुविधाओं के हताशाजनक अभाव का सामना करना पड़ता है। इसके लिए सरकार को स्थानीय और प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों के साथ मिलकर काम करना होगा ताकि टीके के वितरण की एक न्यायसंगत प्रणाली बनायी जा सके, क्योंकि ये केंद्र अपने समुदायों को भलीभांति जानते हैं।

दूसरा, इस टीकाकरण अभियान के दौरान भारत को सार्स-कोव-2 के संक्रमण के फैलाव को रोकने की हर संभव कोशिश करनी होगी। जैसे-जैसे मामले बढ़ते हैं, सरकार को समयबद्ध ढंग से सही आंकड़े प्रकाशित करने होंगे और हर पंद्रहवें दिन जनता को स्पष्ट रूप से बताना होगा कि इस समय क्या स्थिति है और महामारी के चक्र को मोड़ने के लिए और क्या-क्या करने कि जरूरत है, जैसे कि जरूरत पड़ने पर एक नये संघीय लॉकडाउन को लागू करने की संभावना, वगैरह।

इस विषाणु के जीनोम का और बेहतर तरीके से अध्ययन करना और उसके नये उत्परिवर्तित हो रहे रूपों पर निरंतर नजर बनाये रखना जरूरी है, ताकि सार्स-कोव-2 के नये उभर रहे और ज्यादा तेजी से फैल रहे रूपों को जाना, समझा और नियंत्रित किया जा सके। स्थानीय सरकारों ने बीमारी की रोकथाम के उपाय करना शुरू कर दिए हैं, लेकिन मास्क लगाने, सामाजिक दूरी बनाये रखने, सामूहिक समारोहों को रोकने, स्वैच्छिक तौर पर खुद को क्वारंटाइन करने और कोविड टेस्ट कराने की बात को जनता को समझाने में केंद्र सरकार की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। संकट के दौरान आलोचना और खुली चर्चा के प्रयासों का गला घोंटने वाले मोदी के कदम अक्षम्य हैं।

‘द इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन’ का अनुमान है कि पहली अगस्त तक भारत में कोविड-19 से 10 लाख लोगों की मौत हो जाएगी। यदि यह अनुमान सही साबित होता है तो मोदी सरकार खुद पैदा की हुई इस राष्ट्रीय आपदा के लिए जिम्मेदार होगी। भारत ने कोविड-19 को नियंत्रित करने में अपनी शुरुआती सफलताओं को गंवा दिया। अप्रैल तक तो सरकार की कोविड-19 टास्क फोर्स की महीनों से कोई मीटिंग तक नहीं हुई थी।

ऐसे रुख के नतीजे हमारे सामने आ चुके हैं, और जिस तरह से यह संकट भयावह हो चुका है, कम से कम अब तो भारत को इसके प्रति अपना रुख बदलना होगा और इससे निपटने के तौर-तरीक़ों को पुनर्गठित करना होगा। ऐसे प्रयास की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि सरकार अपनी गलतियों को स्वीकार करे, उनकी जिम्मेदारी ले, जिम्मेदार नेतृत्व और पारदर्शिता का रास्ता इख्तियार करे और सार्वजनिक स्वास्थ्य की एक ऐसी व्यवस्था लागू करे जिसके अंतःकरण में विज्ञान विराजमान हो।

अनुवादः शैलेश

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