ठोस वैकल्पिक नीतियां पेश कर ही विपक्ष भाजपा को मात दे सकता है

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हरियाणा चुनाव के नतीजों से रहस्य का पर्दा उठ चुका है। इन पंक्तियों के लेखक ने इसी पोर्टल पर लिखा था कि भाजपा को जनता शिकस्त देगी, बशर्ते कांग्रेस सेल्फ गोल न कर ले। आखिर वही हुआ जिसकी आशंका थी। कांग्रेस ने थाल में सजाकर हरियाणा भाजपा को सौंप दिया।

जनता नाराज भाजपा के दस साल के शासन से थी लेकिन उसे कांग्रेस ने अपने खिलाफ नाराजगी में बदल दिया। कुछ लोग अपने को संतोष भले दे लें कि कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ा है, लेकिन, वह तो दस साल की एंटी इनकंबेंसी के बावजूद भाजपा का भी बढ़ा है।

कांग्रेस की हार पर अनेक विश्लेषण किए गए हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण उसके सेनापति के नेतृत्व और उनकी मुख्य रणनीति में तलाशा जाना चाहिए। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने चुनाव को लेकर जो नैरेटिव बनाया उसमें तलाशा जाना चाहिए।

उस नैरेटिव में ऐसी क्या कमजोरी है कि लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष मोदी को फिर सत्ता में आने से नहीं रोक सका और हरियाणा में भी उसे लगातार तीसरी बार सरकार बनाने से नहीं रोक सका।

दरअसल विपक्ष जनता के जीवन के ज्वलंत सवालों पर कोई ठोस विकल्प नहीं पेश कर पा रहा है। उसके नेता विशेषकर राहुल गांधी जो वायदे कर रहे हैं उनके पीछे ठोस नीतिगत बदलाव का कोई संकेत नहीं है। चाहे वह रोजगार का सवाल हो या जाति जनगणना या अंबानी-अडानी की बात हो, वे कोई ठोस विकल्प नहीं पेश कर रहे।

लोग कहते हैं कि कांग्रेस की तमाम राज्य सरकारें अडानी अंबानी के साथ काम करती हैं। इससे राहुल की बातों की विश्वसनीयता भी कम हो जाती है।

वैसे तो हरियाणा के चौंकाने वाले नतीजों के बहुत से कारण गिनाए जा रहे हैं। वे सब अपनी जगह सही हैं। मसलन कांग्रेस ने एक नहीं अनेक सेल्फ गोल किए और अपनी जीत को हार में बदल दिया। सर्वोपरि तो हुड्डा को जो एकछत्र नेता के रूप में पूरी कमान दे दी गई, उससे कई नुकसान हुए।

गैर जाट जातियों में यह संदेश चला गया कि एक बार फिर हरियाणा की राजनीति और समाज में जाट वर्चस्व कायम होने जा रहा है। इससे भाजपा को गैर जाट जातियों को गोलबंद करने में मदद मिली।

सीएसडीएस के आंकड़ों के अनुसार जहां अपर कास्ट और शहरी मतदाताओं ने भाजपा को एकमुश्त वोट दिया, वहीं पिछड़े और गैर जाट दलित समुदाय में उसे क्रमशः 45-45% मत मिला जबकि कांग्रेस को 33-33% मत मिला। अहिरवाल क्षेत्र में भाजपा के पक्ष में बंपर वोटिंग हुई।

सच तो यह है कि चुनाव का फैसला वहीं हो गया जहां भाजपा को 21सीटें मिल गईं जबकि कांग्रेस मात्र 7 सीटों पर सिमट गई।

बसपा और आजाद समाज पार्टी के अलग-अलग गठबंधन ने जाटव समाज का वोट जो एकमुश्त कांग्रेस को मिलने की उम्मीद थी, उसमें सेंधमारी की। इसे तेज करने में गुटीय लड़ाई में कुमारी शैलजा की उपेक्षा ने भूमिका निभाई। मोदी ने इसे बड़ा मुद्दा बना दिया।

उन्होंने हुड्डा के राज में दलितों पर हुए मिर्चपुर, झज्जर जैसे हमलों की याद से इसे जोड़ दिया। रही सही कसर जाट वोटों के बिखराव ने पूरी कर दी। जाट वोट जो एकमुश्त कांग्रेस को मिलने की उम्मीद की जा रही थी, उसे कांग्रेस के बागियों और भारी संख्या में खड़े निर्दलियों ने पूरी तरह बिखेर दिया।

लेकिन जो बिग पिक्चर है और पराजय के बड़े कारण हैं, उन पर फोकस करने की जरूरत है। वह यह है कि राहुल गांधी कोई ऐसा ठोस नैरेटिव नहीं बना पाए जो व्यापक जनता को इस पैमाने पर आकर्षित कर सके कि वह कांग्रेस को जिता दे।

सबसे ज्यादा जोर वे जाति जनगणना पर देते रहे लेकिन पिछड़ा समुदाय बहुत प्रभावित नहीं हुआ, क्योंकि उन्हें समझ में नहीं आया कि इससे उनकी जिंदगी में क्या बड़ा बदलाव आयेगा।

राहुल उन्हें यह समझाने में नाकाम रहे कि सामाजिक आर्थिक सशक्तिकरण के लिए उनके पास सचमुच कोई ठोस योजना है। इसके विपरीत मोदी ने नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाकर और क्रीमी लेयर की सीलिंग आदि बढ़ाकर, उन्हें बड़े पैमाने पर आकर्षित कर लिया। बेरोजगारी जो सबसे बड़ा मुद्दा था, उस पर भी राहुल कोई बड़ा नीतिगत बदलाव करने का आश्वासन नहीं दे पाए।

रोजगार कैसे मिलेगा इसका कोई रोड मैप वे नहीं पेश कर पाते। मोदी से अलग बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन का उनके पास क्या रास्ता है, इस पर वे मौन हैं। प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्री और रोजगार आंदोलन चलाने वाले युवा मांग कर रहे हैं कि सुपर रिच तबकों पर टैक्स लगाकर संसाधन जुटाया जाय और उसे बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के लिए लगाया जाय।

लेकिन राहुल अपनी पार्टी की वर्गीय सीमाओं के चलते ऐसा कोई वायदा करने में असमर्थ हैं। यह साफ है कि नवउदारवादी नीतियों में बदलाव के बिना रोजगार शिक्षा स्वास्थ्य आदि की बेहतरी की दिशा में कोई वास्तविक प्रगति नहीं हो सकती।

ऐसी स्थिति में जाति और सांप्रदायिक विभाजन का इस्तेमाल तथा सीट वार माइक्रो मैनेजमेंट करते हुए भाजपा कांग्रेस पर भारी पड़ गई। राहुल की तमाम बातें वाग्जाल बन कर रह गईं। नतीजा कांग्रेस की अप्रत्याशित पराजय रही।

जम्मू कश्मीर के नतीजे संवेदनशील सीमावर्ती राज्य में पिछले 5 साल से जिस तरह भाजपा ने शासन किया है, जो बड़े नीतिगत कदम उठाए हैं, उन पर जनादेश है। धारा 370 हटाकर, राज्य का विभाजन करके और उनका राज्य का दर्जा समाप्त कर जो बड़े बड़े बदलाव किए हैं, उन पर जम्मू कश्मीर की जनता ने अपनी सामूहिक राय दे दी है।

सरकार ने अपने इन कदमों के फलस्वरूप जो आतंकवाद खत्म करने के बड़बोले दावे किए थे, वे तो पहले ही ध्वस्त हो चुके थे। अब उनके नीतिगत कदमों के गैर लोकतांत्रिक होने पर जनता ने जनादेश की मुहर लगा दी है।

बहरहाल, मोदी हरियाणा की जीत को राष्ट्रीय ट्रेंड के बतौर पेश कर रहे हैं और महाराष्ट्र झारखंड में परचम फहराने का ऐलान कर रहे हैं। यह विशुद्ध प्रोपेगंडा है।

सच्चाई यह है कि हर राज्य की अलग राजनीतिक विशिष्टताएं हैं। भाजपा को जरूर मनोवैज्ञानिक बढ़त मिली है। लेकिन विपक्ष अगर अपनी गलतियों से सीख सके और बड़े नीतिगत बदलाव का ठोस आश्वासन दे सके तो आगामी विधानसभा चुनावों में और यूपी के उपचुनाव में वह बाजी पलट सकता है।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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