महाराष्ट्र में भाजपा गठबंधन की बंपर जीत हुई तो झारखंड में इंडिया गठबंधन को पुनः सरकार बनाने का जनादेश मिला। महाराष्ट्र में भाजपा गठबंधन ने 49.4% मत के साथ कुल 235 सीटें जीती, तो कांग्रेस गठबंधन 35.1% मत के साथ 49 सीट पर सिमट गया। वहीं झारखंड में इंडिया गठबंधन को 81 में 56 सीटें, एनडीए (NDA) को मात्र 24 सीटें मिलीं।
महाराष्ट्र में महायुति के प्रति प्रचंड समर्थन का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 138 सीटों पर उसे 50% से अधिक वोट मिला, अकेले भाजपा को 84 सीटों पर, जबकि एममवीए (MVA) को मात्र 16 सीटों पर आधे से अधिक वोट मिला।
महायुति के नेताओं ने उग्र ध्रुवीकरण से परहेज किया, इसका परिणाम यह हुआ कि 20% से अधिक मुस्लिम मत वाली 14 सीटें भाजपा ने जीत लीं जबकि कांग्रेस मात्र 5 सीट जीत पाई।
दोनों में कौन सरकार बेहतर थी, इसके जवाब में जहां पुरुषों में 32% ने एममवीए और 39% ने महायुति को बेहतर माना वहीं महिलाओं में केवल 27% ने एममवीए को और 39% ने महायुति को बेहतर बताया।यह मिथ कि भाजपा को शहरों में बेहतर समर्थन मिलता है और गांवों में कम, वह भी ध्वस्त हो गया। ग्रामीण क्षेत्र में एममवीए के 29% की तुलना में महायुति को 43% ने बेहतर माना। गरीबों में भी एममवीए के 24% की तुलना में 43% ने महायुति को बेहतर पाया। आयु वर्ग के हिसाब से भी 18से 25 आयु वर्ग में एममवीए के 31% की तुलना में महायुति को 40% ने बेहतर बताया। इस तरह महायुति की जीत दरअसल एक व्यापक जीत है।
दरअसल इस अभूतपूर्व सफलता के लिए महायुति ने विभिन्न स्तरों पर चौतरफा प्रयास किया। इसमें शायद सबसे महत्वपूर्ण था ओबीसी को अपने पक्ष में जीतने के लिए छोटे से छोटे ओबीसी वर्ग की हर जाति के लिए निगम बनाकर यह संदेश देना कि सरकार उनके हित के प्रति संवेदनशील है। इन निगमों के माध्यम से उनके शिक्षा, रोजगार व्यापार आदि के लिए सरकार की ओर से धन मुहैया कराया गया। मराठा आरक्षण आंदोलन के बाद बदले माहौल में इसके माध्यम से महायुति पिछड़ों के वोट अपने पक्ष में गोलबंद करने में सफल रही।
चुनाव नतीजों का सबसे बड़ा संदेश यह है कि जनता ने उग्र ध्रुवीकरण की राजनीति को खारिज किया है, झारखंड और महाराष्ट्र दोनों राज्यों के नतीजों ने इस तथ्य को रेखांकित किया है।
मोदी जी भले कहें कि जनता ने एक हैं तो सेफ है के लिए वोट किया है, तथ्यों की रोशनी में यह सच साबित नहीं होता। न सिर्फ अजीत पवार ने बल्कि भाजपा के भी कई नेताओं ने बंटेंगे तो कटेंगे जैसे नारों को खारिज किया। योगी की सभाएं रद्द की गईं।गडकरी की सभाएं आयोजित की गईं। मोदी ने भी बहुत प्रचार नहीं किया।
ठीक इसी तरह झारखंड में मोदी,अमित शाह,हिमांता शर्मा सबने बांग्लादेशी घुसपैठियों के सवाल को बड़ा मुद्दा बनाने का प्रयास किया। उसे झारखंड की जनता ने विशेषकर आदिवासियों ने पूरी तरह खारिज कर दिया।वहां भाजपा को पहले से भी 4% कम वोट मिला और मात्र 21सीटें मिलीं। संथाल परगना जहां इस मुद्दे को सबसे ज्यादा उछाला गया वहां जेएमएम (JMM) ने 52% मतों के साथ 18में से 17 सीटें जीत लीं। जेएमएम को अकेले ही 34 सीटें मिल गईं। दरअसल झारखंड में भाजपा के मत में वृद्धि नहीं हुई, लेकिन इंडिया गठबंधन का वोट पहले से बढ़ गया।
आदिवासी आरक्षित सीटों में भाजपा को मात्र दो सीटें मिलीं। घुसपैठिए वाले सवाल को एक तरह से केंद्रीय मुद्दा बना देने का भाजपा को कोई लाभ नहीं मिला, उल्टे अगर भाजपा ने रोजगार जैसे मुद्दों पर सोरेन सरकार को घेरा होता तो शायद उसे अधिक लाभ हो सकता था। जयराम महतो के नेतृत्व में बनी नई पार्टी JLKM ने कुर्मी वोटों में विभाजन कर भाजपा गठबंधन की पार्टी आजसू को भारी क्षति पहुंचाई। आजसू नेता सुदेश महतो खुद अपनी सीट हार गए।
इस चुनाव में यह भी साबित हुआ कि महिलाएं एक बड़ा वोट बैंक बन चुकी हैं। महाराष्ट्र में लाडकी बहन योजना को गेम चेंजर माना जा रहा है, जहां हाल ही में लाई गई योजना के तहत महिलाओं को 1500 रुपये हर महीने मिल रहा है और उसे बढ़ाकर 2100 रुपये करने का शिंदे सरकार ने ऐलान कर दिया था। स्वाभाविक रूप से शिंदे ने अपनी जीत का श्रेय महिलाओं और किसानों को दिया है और उन्हें धन्यवाद दिया है।
इसी तरह झारखंड में मैया सम्मान योजना के तहत पहले से बढ़ाकर 2500 रुपये देने का मुख्यमंत्री सोरेन ने ऐलान किया था। झारखंड में भाजपा भ्रष्टाचार, सरकार की नाकामी और सबसे बढ़कर हिंदुत्व के आधार पर ध्रुवीकरण की जीतोड़ कोशिश में लगी थी। उसने UCC और घुसपैठियों के सवाल को जोरशोर से उठाया। वहीं इंडिया गठबंधन अपने काम काज और आदिवासी प्रश्न को प्रमुख मुद्दा बना कर मैदान में था। इंडिया गठबंधन के पक्ष में ग्रामीण क्षेत्र, गरीबों और किसानों का भारी समर्थन था।SC, ST, मुस्लिम यादव जैसे तबकों में उसे व्यापक समर्थन मिला। CSDS के सर्वे के अनुसार 55%किसानों ने इंडिया गठबंधन का साथ दिया, जबकि मात्र 29% ने एनडीए का समर्थन किया।
यह साफ है कि महाराष्ट्र में कृषि संकट, आरक्षण, बेरोजगारी महंगाई जैसे जो जनता के ज्वलंत मुद्दे थे, उन्हें विपक्ष चुनाव के मुद्दे नहीं बना पाया।महायुति अपनी कल्याणकारी योजनाओं, जिन्हें मोदी जी विपक्ष के लिए रेवड़ी कहते हैं, के बल पर इन सारे सवालों को पृष्ठभूमि में धकेलने में कामयाब रही। वैसे तो भाजपा की चौतरफा जीत हुई है तो और उसका स्ट्राइक रेट 90% के आसपास रहा लेकिन विदर्भ और मराठवाड़ा में उसे अप्रत्याशित सफलता मिली, जबकि विदर्भ कांग्रेस का गढ़ रहा है और इस बार भी वहां उसके अच्छे प्रदर्शन की लोगों को उम्मीद थी। लेकिन विदर्भ की 62 में से 47सीटें और मराठवाड़ा में 46 में 40 सीटें जीतकर भाजपा ने बाजी पलट दी।
इस चुनाव ने जनता की अदालत में एक तरह से इस बात का भी फैसला कर दिया कि असली शिव सेना और असली एनसीपी कौन है। शिंदे की शिवसेना को जहां 12.4%मतों के साथ 57 सीटें मिलीं, वहीं उद्धव ठाकरे की शिवसेना को मात्र 10% मतों के साथ 20 सीटें मिलीं। इसी तरह अजीत पवार के दल को 9% वोट के साथ 41सीटें मिली तो शरद पवार वाले गुट को मात्र 10 सीटें और 11.3% वोट मिला। अपने गढ़ों में अजीत पवार ने सीधी टक्कर वाली सीटों पर अपने चाचा की पार्टी को तो शिंदे ने उद्धव ठाकरे के दल को बुरी तरह पराजित किया। जाहिर है लंबे समय तक दो एनसीपी और दो शिवसेना का अस्तित्व नहीं बना रह सकता है।
यह साफ हुआ कि दल तोड़ने के कारण उद्धव ठाकरे और शरद पवार को लोकसभा चुनावों में जो सहानुभुति मिली थी, वह इस बार नहीं मिली। बल्कि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि सहानुभूति का फायदा देवेंद्र फडणवीस को मिला जिन्होंने मुख्यमंत्री रहने के बाद नेतृत्व के दबाव में उपमुख्यमंत्री बनना स्वीकार किया था।
यह माना जा रहा है कि RSS ने इस चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। विदर्भ में जहां नागपुर में उसका मुख्यालय भी है, RSS की जबरदस्त सक्रियता को भाजपा की जीत में बड़ा कारक माना जा रहा है। आरक्षण आंदोलन का चुनाव पर कुल असर यह हुआ कि भाजपा और महायुति के पक्ष में ओबीसी मतों का ध्रुवीकरण हुआ, क्योंकि आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जरंगे पाटिल ने भाजपा को हराने का आह्वान किया था। उधर मराठों का वोट विभाजित हो गया। दलित समुदाय का भी लोकसभा चुनाव जैसा समर्थन एमवीए को नहीं मिला।इसके पीछे दो कारण लगते हैं। एक तो संविधान रक्षा का मुद्दा जिस तरह लोकसभा चुनाव में सर्वप्रमुख मुद्दा बन गया था, वह अबकी बार उस तरह नहीं बना। दूसरे दलित आरक्षण में उपवर्गीकरण के मुद्दे ने भी कहीं न कहीं भाजपा को लाभ पहुंचाया।
यह अनायास नहीं है कि समाज के अत्यंत ग़रीब और गरीब तबकों में एमवीए के मतों में क्रमशः लगभग 10%और 13% की गिरावट हुई है, मध्य वर्ग में 15% और धनिक तबकों में 10% की गिरावट हुई है। इन सभी तबकों में महायुति को 50%के आसपास मत मिले हैं। यहां तक कि जिन ग्रामीण क्षेत्रों को एमवीए का गढ़ माना जा रहा था वहां भी उसके वोट लोकसभा से दस प्रतिशत गिर गए।
उपचुनाव नतीजे कमोबेश अपेक्षित ही रहे। कर्नाटक में सभी 3 सीटें कांग्रेस ने जीत लिया तो प. बंगाल में सभी 6 सीटें टीएमसी ने जीती, पंजाब में AAP ने 3 तो कांग्रेस ने एक सीट जीत ली। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की खाली की हुई बुधनी सीट जरूर भाजपा जीत गई, लेकिन विजयपुर में एक मंत्री को हार का मुंह देखना पड़ा। नांदेड़ की लोकसभा सीट कांग्रेस ने जीत ली। वहीं वायनाड से प्रियंका गांधी ने 4 लाख से ऊपर वोटों से बड़ी जीत हासिल की।
उत्तर प्रदेश में NDA ने 7सीटें जीतीं, सपा ने दो सीटें। लेकिन यहां राष्ट्रीय स्तर पर जो बात सुर्खी बनी वह मतदान के दिन अल्पसंख्यक समुदाय को जगह जगह वोट डालने से रोका जाना था, जिसमें चुनाव आयोग को भी कुछ पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी। अभी संभल में मस्जिद के सर्वे को लेकर हुए टकराव में, जिसमें 5 लोगों की मौत हो गई है, उसे भी विपक्षी नेताओं ने चुनावी धांधली से ध्यान हटाने की कवायद बताया है।
बिहार में चारों सीटें NDA ने जीत लीं। भाकपा माले तरारी में अपना कब्जा बनाए नहीं रख पाई। उधर झारखंड में अब भाकपा माले के दो विधायक हैं। निरसा और सिंदरी में पार्टी जीतने में सफल रही, हालांकि बगोदर की अपनी पुरानी सीट वह नहीं बचा पाई। उधर महाराष्ट्र में माकपा ने एक सीट हासिल की है।
महाराष्ट्र चुनाव नतीजों से सारे राजनीतिक विश्लेषक भौंचक रह गए हैं। केंद्रीय चुनाव आयोग की निष्पक्षता, चुनाव की शुचिता और EVM पर फिर सवाल खड़े हो गए हैं। कांग्रेस अध्यक्ष ने EVM की जगह बैलट पेपर से चुनाव करवाने की मांग को लेकर भारत जोड़ो यात्रा जैसे राष्ट्रीय अभियान का आह्वान किया है और सभी दलों से इसमें शामिल होने की अपील किया है, हालांकि उच्चतम न्यायालय ने इसी आशय की एक जनहित याचिका को 26 नवंबर को खारिज कर दिया।
जाहिर है भाजपा को मुकम्मल शिकस्त दे पाने में समर्थ होने के लिए इंडिया गठबंधन और लोकतांत्रिक ताकतों को अभी वैचारिक राजनीतिक सांगठनिक आंदोलनात्मक हर स्तर पर लंबी जद्दोजेहद से गुजरना है।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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