संसद की सुरक्षा भंग हुई, तो उस पर विपक्ष का उत्तेजित होना लाजिमी है। चूंकि कुछ तथ्य ऐसे हैं, जिससे इस मामले में सीधे तौर पर वर्तमान सरकार और सत्ताधारी पार्टी घिरती है, तो इस मामले में विपक्षी सांसदों का गृहमंत्री अमित शाह से इस्तीफा और प्रधानमंत्री से संसद में बयान देने की मांग करना जायज माना जाएगा। इस मामले में ये तथ्य महत्त्वपूर्ण हैं-
- सत्रहवीं यानी वर्तमान लोकसभा का कार्यकाल पूरा होने जा रहा है, लेकिन आज तक इसमें संसद परिसर में सुरक्षा से संबंधित संयुक्त संसदीय समिति का गठन नहीं हुआ है। यानी साढ़े चार साल गुजर गए, लेकिन सत्ता पक्ष ने यह समिति गठित करने की जरूरत महसूस नहीं की।
- विपक्षी सांसदों के मुताबिक उन्होंने ये मामला कई बार उठाया। 16वीं लोकसभा के दौरान इस समिति के सदस्य रह चुके तृणमूल कांग्रेस के सौगत राय ने बताया है कि पूर्व स्पीकर सुमित्रा महाजन इस समिति की नियमित बैठक आयोजित करती थीं। इससे संसद परिसर की सुरक्षा से जुड़े मसलों को लेकर चौकसी बनी रहती थी। 17वीं लोकसभा के दौरान ऐसी चर्चा की गुंजाइश ही नहीं रही।
- डीएमके के सांसद तिरुचि सिवा भी 16वीं लोकसभा के दौरान इस समिति के सदस्य थे। उन्होंने बताया है कि समिति ना गठित होने से जुड़े मसले को वे राज्यसभा सभापति के सामने उठा चुके थे।
- सिवा और अन्य विपक्षी सांसदों का कहना है कि अगर समिति होती, तो संसद के नए भवन में सुरक्षा संबंधी जो खामियां सांसदों को नजर आई थीं, उन पर चर्चा हो गई होती।
- कुछ सांसदों ने आरोप लगाया है कि संसद भवन में आने वाले दर्शकों को पास देने में इस लोकसभा के दौरान भारी भेदभाव हुआ है। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के सांसद हनुमान बेनीवाल ने आरोप लगाया है कि कुछ सांसदों की सिफारिश पर थोक भाव से दर्शक पास जारी हुए हैं, जबकि अनेक सांसदों को एक भी पास दिलवाने के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं।
इस घटना पर चर्चा करते हुए इन तथ्यों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए-
- संसद की सुरक्षा-व्यवस्था संसद पर 22 साल पहले हुए भीषण हमले की बरसी के दिन भंग हुई। यह बात आसानी से गले नहीं उतरती कि उस दिन भी सुरक्षा व्यवस्था इतनी लचर साबित कैसे हुई?
- ये सवाल खासकर यह देखते हुए और गंभीर हो जाता है कि खालिस्तानी उग्रवादी गुरपतवंत सिंह पन्नूं ने धमकी दे रखी थी कि 13 दिसंबर या उससे पहले फिर संसद को निशाना बनाया जाएगा। अब तक जितनी जानकारियां सामने हैं, उनसे ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि जिन लोगों ने संसद में घुसपैठ की, उनका पन्नूं या किसी अन्य राजनीतिक संगठन से संबंध है। फिर इस धमकी के मद्देनजर सुरक्षा चौकसी अचूक होनी चाहिए थी।
- कुछ नौजवानों ने अपने असंतोष को जताने के लिए संसद की सुरक्षा को भंग करने की योजना बनाई और वे इसमें सफल भी हो गए। जाहिरा तौर पर यह देश की कानून-व्यवस्था मशीनरी पर एक प्रतिकूल टिप्पणी है कि इतनी आसानी से सबसे बड़े स्थलों और सबसे बड़े मौकों पर सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लग जाती है।
- गौरतलब है कि अभी एक महीना नहीं गुजरा, जब अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम में क्रिकेट विश्व कप के फाइनल मैच के दौरान एक ऑस्ट्रेलियाई नौजवान फिलस्तीन की आजादी के समर्थन में संदेश देने के लिए तमाम सुरक्षा-व्यवस्था को धता बताते हुए मैदान में घुस गया। ऐसा उस रोज हुआ, जिस दिन खुद प्रधानमंत्री मोदी वहां पहुंचने वाले थे।
तो प्रश्न उठता है कि एक मजबूत सरकार, जो सुरक्षा के मामले में सख्त रुख को अपनी विशेषता बताती है, वह इस तरह फेल क्यों हो रही है? क्या इसका कारण सुरक्षा के मुद्दे का राजनीतिकरण है?
फिलहाल, गिरफ्तारी के बाद संसद की सुरक्षा तोड़ने की योजना में शामिल रहे पांचों युवाओं पर यूएपीए कानून के तहत आतंकवादी गतिविधि संबंधी धाराएं लगा दी गई हैं। इससे यह गंभीर सवाल उठा है कि अगर ये नौजवान आतंकवादी गतिविधि में शामिल हुए, तो दो नौजवानों को संसद भवन के अंदर पहुंचाने में सहयोगी बने सांसद पर भी इस कानून के तहत पूछताछ क्यों नहीं होनी चाहिए? आखिर आतंकवादी से संपर्क और संबंध रखना भी अपराध है।
चूंकि दो नौजवानों- मनोरंजन डी और सागर शर्मा के लिए पास मैसूर से भाजपा सांसद प्रताप सिम्हा ने बनवाया था, इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि विपक्ष उनकी घेराबंदी कर रहा है। विपक्षी सांसदों ने सिम्हा को संसद से निलंबित करने और 13 दिसंबर की घटना के मामले में शुरू हुई जांच के दायरे में उनको भी लाने की मांग की है।
यह सचमुच परेशान करने वाली बात कि इतनी बड़ी घटना को सरकार के साथ-साथ लोकसभा अध्यक्ष ने भी पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया है। वरना, स्पीकर खुद गृहमंत्री को सदन में आकर बयान देने का निर्देश देते। अगर इतनी बड़ी घटना के अगले दिन विपक्षी सांसदों को गृहमंत्री से बयान की मांग पर जोर डालने के लिए हंगामा करना पड़े, तो यह सवाल मौजूं हो जाता है कि आखिर संसद की प्रासंगिकता ही क्या बची है?
बहरहाल, बात यहीं तक नहीं है। उलटे बयान की मांग करने वाले 14 विपक्षी सांसदों को इस पूरे सत्र के लिए संसद से निलंबित कर दिया गया है। निलंबन के बावजूद सदन से बाहर जाने से इनकार करने के लिए तृणमूल कांग्रेस के डेरिक ओ’ब्रायन का मामला राज्यसभा की विशेषाधिकार समिति को भेज दिया गया है। मुमकिन है कि इसको लेकर ओ’ब्रायन की सांसदी भी खतरे में पड़ जाए।
बहरहाल, ये सारी घटनाएं सुरक्षा संबंधी चूक प्रकरण का सिर्फ एक पहलू हैं। इसका दूसरा पहलू कहीं अधिक गंभीर है। इस पहलू का संबंध इस प्रश्न से जुड़ता है कि देश के अलग-अलग राज्यों के छह नौजवान आखिर क्यों ऐसी गतिविधि के लिए एक साथ आए, जिसमें भाग लेने के बाद उनकी पूरी जिंदगी का तबाह होना पहले से तय था। अभी तक उपलब्ध खबरों से यह साफ है कि इन नौजवानों का मकसद किसी को क्षति पहुंचाना नहीं था। वे सिर्फ एक संदेश देना चाहते थे।
पूरे घटनाक्रम पर ध्यान देः
- कर्नाटक के मनोरंजन डी और लखनऊ के सागर शर्मा लोकसभा में दर्शक दीर्घा से कूदे और वहां पीली गैस छोड़ी।
- हरियाणा की नीलम और महाराष्ट्र के अमोल शिन्डे ने संसद भवन के बाहर कनिस्तर से ऐसी ही गैस छोड़ी और नारेबाजी की। (इन चारों को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया।)
- बताया गया है कि इस पूरी योजना का संचालन पश्चिम बंगाल के ललित झा ने किया। बताया गया है कि घटना का वीडियो बनाने के बाद झा अपने एक दोस्त के पास राजस्थान में नागौर चला गया, लेकिन जब मालूम हुआ कि पुलिस ने उसे गिरफ्तार करने का बड़ा अभियान छेड़ दिया है, तो वह वापस दिल्ली आ गया और खुद पुलिस के पास जाकर समर्पण कर डाला।
- छठे व्यक्ति विक्की की भूमिका के बारे में अभी ज्यादा कुछ नहीं मालूम है। अभी पुलिस यह तय नहीं कर पाई है कि उसकी भूमिका अपने परिचित ललित झा के कहने पर योजना में शामिल सभी नौजवानों को ठहरने की जगह उपलब्ध कराने तक सीमित थी, या वह भी इस योजना में सक्रिय भागीदार था।
तो ये नौजवान देश के अलग-अलग इलाकों से आए। आरंभिक जानकारी के मुताबिक ये फेसबुक पेज- शहीद भगत सिंह फैन्स- के जरिए संपर्क में आए थे। इन सबमें समान पहलू (कॉमन फैक्टर) सिर्फ ये बातें थी-
- ये सभी उच्च शिक्षित हैं।
- उच्च शिक्षा के बावजूद उन्हें अपनी योग्यता के अनुरूप काम नहीं मिला। बल्कि उनमें से कई युवा आर्थिक मुश्किलों में जी रहे थे।
- ये सभी देश की मौजूदा दिशा से असंतुष्ट हैं। संभवतः इसीलिए उन्होंने ‘तानाशाही नहीं चलेगी’, जैसे नारे लगाए।
- संकेत हैं कि ये सभी अमर शहीद भगत से प्रभावित हैं। पुलिस के मुताबिक उनके सोशल मीडिया पेज पर चंद्रशेखर आजाद और फिदेल कास्त्रो सहित कई क्रांतिकारियों के कथन पाए गए हैं।
- संभवतः भगत सिंह के प्रभाव के कारण ही उन्होंने विरोध जताने का वह तरीका अपनाया, जो शहीद भगत सिंह ने 94 वर्ष पहले अपनाया था।
चूंकि इन नौजवानों ने कानून तोड़ा, इसलिए उन्हें इसकी सजा मिलेगी। इसका अंदाजा खुद उन्हें भी रहा होगा। लेकिन इस मामले में अगर सारी चर्चा उन्हें सख्त सजा देने तक सीमित रह गई, तो इसका मतलब उन कारणों की सिरे से अनदेखी करना होगा, जो देश की आबादी के एक बड़े हिस्से में हताशा और असंतोष पैदा कर रहे हैं।
इस घटना ने बेशक संसद और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल को राष्ट्रीय एजेंडे में ऊपर ला दिया है। मगर अगर बारीक नजर से देखें, तो इस मामले का संबंध देश में सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा की बिगड़ती स्थिति से भी जुड़ा नजर आएगा। दरअसल, ये घटना “विकसित भारत” के तमाम शोर के बीच जमीनी स्तर पर रोजमर्रा की बढ़ती मुश्किलों की ओर ध्यान खींचती है। ये मुश्किलें अब कई लोगों- खासकर नौजवानों- में असंतोष पैदा कर रही हैं।
इस तथ्य को अवश्य रेखांकित किया जाना चाहिए कि नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों पर अमल के बाद से आबादी के बहुसंख्यक हिस्से को आर्थिक एवं सामाजिक सुरक्षाओं से वंचित किया गया है। दूसरी तरफ ये नीतियां देश में तकाजे के मुताबिक रोजगार के अवसर पैदा करने में नाकाम रही हैं। पिछले आठ-नौ साल में तो रुझान पहले से मौजूद नौकरियों के भी खत्म होने का भी है। ऐसे में देश की युवा आबादी अगर हताशा और आक्रोश का शिकार हो रही है, तो इस पहलू को संवेदनशीलता के साथ समझा जाना चाहिए।
इस संदर्भ में इस तथ्य का उल्लेख भी जरूरी है कि देश में शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीकों से विरोध जताने के अवसर लगातार सीमित किए गए हैं। उदारवादी लोकतंत्र को इसलिए एक सेफ्टी वॉल्व कहा जाता है, ताकि इसमें उबलती भावनाओं के इजहार के माध्यम मौजूद रहते हैं- ठीक उसी तरह जैसे प्रेसर कूकर में दबाव बनने पर सीटी के जरिए वाष्प निकल जाती है। लेकिन जब सीटी जाम हो जाए, तो उसका नतीजा विस्फोट के रूप में सामने आता है। देश के कर्ता-धर्ताओं के लिए यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या भारतीय लोकतंत्र के सेफ्टी वॉल्व को जाम कर दिया गया है?
यह साफ है कि इस घटना ने कई गंभीर प्रश्न उठाए हैं। इनमें एक का संबंध कानून-व्यवस्था संबंधी सुरक्षा व्यवस्था से है। लेकिन बाकी सवालों का रिश्ता सामाजिक सुरक्षा की स्थितियों और देश की आर्थिक दिशा से भी है। इस रूप में इस घटना ने हमारी आज की कुछ अप्रिय हकीकतों की तरफ इशारा किया है।
इन हकीकतों का सही नजरिए से सामना किए बगैर कानून-व्यवस्था संबंधी सुरक्षा को सुनिश्चित करने की कोशिशें संभवतः किसी मुकाम तक नहीं पहुंच पाएंगी। यह बात सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष को भी समझनी चाहिए, जिनके निगाहों से यह प्रश्न ओझल बना हुआ है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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