फासीवादी राष्ट्रवाद का असली चेहरा: स्वार्थ, संपत्ति और सत्ता की भूख

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राष्ट्रवाद, ऐसा शब्द जो समय-समय पर सत्ता के खेल में सबसे प्रभावशाली हथियार बनकर उभरता है। इतिहास गवाह है कि राष्ट्रवाद के नाम पर जाने कितनी ही बार जनसमुदायों को संगठित किया गया, उन्हें प्रभावित किया गया और फिर उनके अधिकारों और संसाधनों का शोषण किया गया। फ़ासिस्टों के लिए, राष्ट्रवाद उसकी विचारधारा की बुनियाद होता है, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह राष्ट्रवाद सच्चा होता है? जब फासीवादी चीखता है कि “हमारा देश महान है,” तो यह विचारधारा के प्रचार से अधिक, उसके स्वार्थों की रक्षा का नारा होता है। फासीवादी विचारधारा राष्ट्र को महिमामंडित करने का दावा करती है, लेकिन वास्तव में इसका उद्देश्य स्वार्थ और निजी संपत्ति की सुरक्षा होता है।

राष्ट्रवाद, जब तक वह अपने मूल रूप में ईमानदार और सच्चा हो, तब तक वह किसी भी देश के लिए प्रगति और विकास का माध्यम बन सकता है। लेकिन जब यह राष्ट्रवाद स्वार्थी विचारधारा का मुखौटा बन जाता है, तब यह समाज के लिए विनाशकारी साबित होता है। फासीवादी राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि वह राष्ट्र को सर्वोपरि बताता है, लेकिन केवल तब तक जब तक उसके अनुयायियों के निजी स्वार्थों को खतरा नहीं होता।

फासीवादी अपने भाषणों में जोर-जोर से चिल्लाते हैं कि “हमारा देश महान है,” लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि क्या वे अपनी निजी संपत्ति और संसाधनों को देश के हित में समर्पित करेंगे, तो वे तुरंत अपने स्वर बदल लेते हैं। वह चीखने लगते हैं: “नहीं-नहीं, यह तो सही विचारधारा नहीं है, इसे वे अस्वीकार करते हैं।” तार्किक तौर पर देखा जाए तो यह विरोधाभास उजागर करता है कि उनका राष्ट्रवाद सच्चे देशभक्ति के बजाय निजी संपत्ति और संसाधनों की रक्षा के लिए औजार मात्र है।

सच्ची देशभक्ति का मतलब केवल यह नहीं है कि आप अपने देश की महानता की प्रशंसा करें या उसके इतिहास और संस्कृति की महिमा का गुणगान करें। देशभक्ति का वास्तविक रूप तब प्रकट होता है जब आप अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर अपने देश के हित के लिए त्याग करने को तैयार होते हैं। यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि “मेरा देश महान है,” तो उसे यह साबित भी करना चाहिए कि वह उस महानता को बनाए रखने और बढ़ाने के लिए क्या योगदान दे रहा है।

देश की समृद्धि और उन्नति तब संभव होती है जब देश के सभी संसाधन-चाहे वो आर्थिक हों, सामाजिक हों, या बौद्धिक-सामूहिक रूप से समाज के कल्याण के लिए उपयोग किए जाएं। निजी संपत्ति और संसाधनों का संचय केवल कुछ लोगों के हाथों में रहना न केवल असमानता को बढ़ावा देता है, बल्कि यह समाज के बड़े हिस्से को विकास के अवसरों से वंचित भी करता है। अगर कोई यह दावा करता है कि “राष्ट्र सर्वोपरि है,” तो उसे इस बात पर भी विचार करना होगा कि क्या उसकी निजी संपत्ति और संसाधनों का उपयोग राष्ट्र के कल्याण के लिए हो रहा है, या फिर वह केवल अपने निजी लाभ के लिए उनका उपयोग कर रहा है।

फासीवादी विचारधारा की जड़ें गहरी पूंजीवादी व्यवस्थाओं में हैं। ये व्यवस्थाएं व्यक्तिगत संपत्ति और लाभ के अधिकार को सबसे ऊपर रखती हैं। फासीवाद इस प्रणाली का समर्थन करता हैऔर राष्ट्रवाद का नारा लगाकर इसे और मजबूत करता है। फासीवादी मानते हैं कि राष्ट्र के नाम पर राज्य की शक्ति का उपयोग किया जा सकता है, लेकिन वह शक्ति केवल उन लोगों के हित में होनी चाहिए जिनका पहले से ही संपत्ति और संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित है।

जब बात निजी संपत्ति को राष्ट्रीयकृत करने की आती है-यानि देश के संसाधनों को समग्र समाज के हित में उपयोग करने की-तब फासीवादी इसका विरोध करते हैं। उनके लिए राष्ट्रवाद का मतलब केवल अपने निजी हितों की रक्षा है, न कि समाज के व्यापक हित के लिए कोई वास्तविक कदम उठाना। वे चाहते हैं कि राज्य की शक्ति का उपयोग उनके संपत्ति और लाभ को सुरक्षित रखने के लिए किया जाए, लेकिन वे नहीं चाहते कि उनकी संपत्ति और संसाधनों का उपयोग समाज के बाकी लोगों के हित में किया जाए।

यहां यह स्पष्ट हो जाता है कि फासीवादी राष्ट्रवाद सतही और स्वार्थी विचारधारा है, जो केवल उन लोगों के हितों की रक्षा करती है जिनका पहले से ही शक्ति और संपत्ति पर नियंत्रण है। राष्ट्र के नाम पर यह जनता को भ्रमित करता है, लेकिन उसका असली उद्देश्य केवल अपने समर्थकों के निजी स्वार्थों की रक्षा करना है।

फासीवादी विचारधारा न केवल राष्ट्रवाद का दुरुपयोग करती है, बल्कि यह समाज को विभाजित भी करती है। वे लोगों को “देशभक्त” और “देशद्रोही” के खांचों में बांटते हैं, जिससे समाज में ध्रुवीकरण बढ़ता है। वे यह तर्क देते हैं कि जो उनकी विचारधारा से सहमत नहीं हैं, वे राष्ट्र के दुश्मन हैं। इस प्रकार वे समाज में भय और घृणा का माहौल बनाते हैं और इसका फायदा उठाकर सत्ता और संसाधनों पर अपना नियंत्रण मजबूत करते हैं।

यह रणनीति न केवल समाज को कमजोर करती है, बल्कि यह उन असमानताओं और शोषण को भी बनाए रखती है, जिनके खिलाफ असल में संघर्ष किया जाना चाहिए। फासीवादी राष्ट्रवाद यह सुनिश्चित करता है कि आम जनता उन मुद्दों पर ध्यान न दे, जो वास्तव में उनके जीवन को प्रभावित करते हैं-जैसे कि आर्थिक असमानता, बेरोजगारीऔर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। इसके बजाय, वे उन्हें नकली मुद्दों में उलझा देते हैं, जिससे केवल फासीवादी एजेंडे को बल मिलता है।

फासीवादी राष्ट्रवाद की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह आम जनता से बलिदान की मांग करता है। वे यह तर्क देते हैं कि राष्ट्र की महानता बनाए रखने के लिए लोगों को त्याग करना होगा। लेकिन यह त्याग हमेशा आम जनता से ही अपेक्षित होता है, न कि उन लोगों से जो सत्ता और संपत्ति के शीर्ष पर हैं। वे चाहते हैं कि लोग अपनी आजादी, अपने अधिकारों और अपनी जरूरतों को त्याग दें, लेकिन वे खुद अपनी संपत्ति और शक्ति का त्याग करने के लिए कभी तैयार नहीं होते।

यह विरोधाभास तब और स्पष्ट हो जाता है जब वे जोर देकर कहते हैं कि राष्ट्र को सर्वोच्च मान्यता मिलनी चाहिए, लेकिन जब उनसे निजी संपत्ति को राष्ट्र के हित में समर्पित करने की बात की जाती है, तो वे इसे तुरंत खारिज कर देते हैं। यह दिखाता है कि उनका राष्ट्रवाद केवल दिखावा है, जो उनकी निजी संपत्ति और शक्ति की रक्षा के लिए है।

अगर वास्तव में राष्ट्र की समृद्धि और विकास की बात की जाए, तो यह स्पष्ट है कि देश के संसाधनों और संपत्तियों का राष्ट्रीयकरण करना महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। यह सुनिश्चित करेगा कि देश की संपत्ति और संसाधन कुछ गिने-चुने लोगों के हाथों में न रहकर, पूरे समाज के हित में उपयोग किए जाएं। राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य यह है कि समाज के हर वर्ग को विकास के समान अवसर मिलें और संपत्ति और संसाधनों का वितरण अधिक न्यायसंगत हो।

यह कदम उन असमानताओं को भी समाप्त करेगा, जो समाज में गहरे तक फैली हुई हैं। जब समाज के सभी संसाधनों का उपयोग समग्र विकास के लिए किया जाएगा, तब राष्ट्र वास्तव में महान बन सकेगा। लेकिन यह तभी संभव है जब हम उस दिखावटी राष्ट्रवाद को खारिज करें, जो केवल निजी स्वार्थों की रक्षा करता हैऔर उसकी जगह ऐसा विचार अपनाएं, जो सच्चे अर्थों में समाज के कल्याण और समृद्धि की ओर ले जाए।

फासीवादी विचारधारा का राष्ट्रवाद केवल भ्रम है, जो लोगों को असली मुद्दों से भटकाने का काम करता है। यह नारा जोर-शोर से लगता है कि “हमारा देश महान है,” लेकिन इसके पीछे का असली उद्देश्य केवल उन लोगों के स्वार्थों की रक्षा करना है जो सत्ता और संपत्ति के शीर्ष पर हैं। जब बात देश के हित में निजी संपत्ति और संसाधनों को समर्पित करने की आती है, तो उनका स्वर तुरंत बदल जाता है।

राष्ट्र की सच्ची सेवा और देशभक्ति का मतलब केवल नारे लगाना नहीं है, बल्कि अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर समाज के व्यापक हित के लिए कार्य करना है। अगर हम वाकई में महान राष्ट्र चाहते हैं, तो हमें उस असमानता को समाप्त करना होगा, जो समाज को कमजोर करती है। इसके लिए जरूरी है कि देश के संसाधनों और संपत्तियों का राष्ट्रीयकरण किया जाए, ताकि सभी को समान अवसर मिल सकें और राष्ट्र वास्तव में समृद्ध और महान बन सके।

(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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