ड्रेकोनियन कानूनों के बीज: औपनिवेशिक विरासत की निरंतरता

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“जहां तक मुआवज़े के सवाल का संबंध है, हम चाहते थे कि ‘कानून की उचित प्रक्रिया’(due process of law) के शब्द यहां हों। लेकिन हमारी बदकिस्मती यह थी कि इस ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ के सबसे बड़ी बाधा इस सदन के सबसे बड़े न्यायविद (B.N.Rao) से आई, और यह इस देश के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम इस ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ को पास करने में असमर्थ रहे। एक मौलिक अधिकार कार्यपालिका और विधायिका की शक्तियों को सिमित करता है। जो भी मौलिक अधिकार हमने इस संविधान में दिए हैं, हाल ही में उन्हें हटाने का प्रयास किया गया है। अनुच्छेद 15 (article 22 of Indian constitution) हमारी असफलताओं का ताज है क्योंकि जहां तक प्रक्रिया का संबंध है, अनुच्छेद 15 के तहत हमने कार्यपालिका और विधायिका को लोगों के साथ जैसा चाहें करने की शक्ति दी है।”

                                                                              “डॉ. बी.आर. अम्बेडकर, अनुच्छेद 22 पर संविधान सभा में”

बहस

उपरोक्त अम्बेडकर का वक्तव्य ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ के बजाय ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ को स्वीकार करने की उनकी दुविधा को दर्शाता है। उन्होंने आगे अपनी निराशा और मनःस्थिति व्यक्त की जब उन्होंने कहा, “मैं उस मनःस्थिति का वर्णन नहीं कर सकता जिसमें मैं खुद को पाया कि मैं इस सदन को ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ खंड से सहमत नहीं करा पाया।” डॉ. अम्बेडकर ऐतिहासिक सबक और देश की तत्कालीन समस्याओं के बीच खिंचे हुए थे।

सिद्धांततः लोकतांत्रिक अम्बेडकर को रोकथामात्मक निरोध के प्रश्न पर ठाकुर दास भार्गव ने सही रूप से चुनौती दी, जहां उन्होंने कानून कि उचित प्रक्रिया के पक्ष में बात रखते हुए यह स्पष्ट किया कि “रौलट एक्ट 1918 में पारित किया गया था, 1918 के XIV, मुझे पता है।

मेरी दलील यह है कि इस सदन या प्रांतीय विधानमंडलों को ऐसा कानून पारित करने से कौन रोकेगा? कोई भी व्यक्ति अनावश्यक प्रतिबंधों के अधीन नहीं ली जानी चाहिए या उस व्यक्ति या संपत्ति की अनुचित तलाशी नहीं ली जाएगी। इस खंड का अपना एक इतिहास है।” ठाकुर दास ने ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ के सार को प्रस्तावित करने का प्रयास किया।

एच.वी. कामथ ने ड्राफ्टिंग कमेटी की आलोचना की, जो ऐसा काम कर रही थी जैसे “एक अल्पकालिक संविधान तैयार कर रहे हों, जो शायद उतनी ही देर चले जितनी देर तक हम में से कुछ लोग सत्ता में रहने की उम्मीद रखते हैं।”

कानून की उचित प्रक्रिया को छोड़ने का मुख्य कारण यह था कि इस खंड से भविष्य के सुप्रीम कोर्ट को मनमानी विधायी कार्रवाई को रोकने का अधिकार मिल जाएगा। कल्याणकारी राज्य पर ध्यान केंद्रित करते हुए कहीं न कहीं राज्य की असीमित प्रकृति को उचित ठहराने के लिए उचित प्रक्रिया के विचार से समझौता किया गया। जहां राज्य के पास सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने की आड़ में अपने कृत्य को उचित ठहराने का दायरा है।

निवारक निरोध का विचार

कानून की उचित प्रक्रिया की व्याख्या बहुत स्पष्ट और व्यापक है। लेकिन अधिकांश न्यायविद कुछ बुनियादी बातों पर सहमत हैं, जो इस विचार के निर्माण आधार हैं। किसी भी विधायिका को न केवल क़ानून द्वारा निर्धारित सही प्रक्रिया से गुजरना चाहिए बल्कि इसकी निष्पक्षता और पूर्वाग्रहहीनता भी साबित करनी चाहिए।

न्याय के सही वितरण के लिए केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर्याप्त नहीं है। अगर हम इतिहास में न्यायशास्त्र संबंधी विकास की पूरी प्रकृति को देखें, तो कानून की उचित प्रक्रिया क़ानूनी दर्शन ‘मौलिक अधिकारों’ और ‘प्राकृतिक न्याय’ की विचारधारा को समर्थन देने वाला ‘शक्ति का स्तंभ’ है।

हम संकट के समय में जी रहे हैं जहां ‘निवारक निरोध’ का संवैधानिक प्रावधान कार्यपालिका के लिए देश के लोगों के मौलिक अधिकारों को दबाने का एक उपकरण बन गया है। संविधान को संविधान सभा की स्वीकृति और कई शहीदों के संघर्ष के कारण प्रभाव में लाया गया था। शहीद, जिन्होंने उस स्वतंत्रता और बुनियादी गरिमा के लिए जान दी जो औपनिवेशिक शासन द्वारा नकार दी गई थी।

अनुच्छेद 22(3) के भाग 3 के तहत, “उपखंड (1) और (2) में कुछ भी लागू नहीं होगा; (ख) किसी भी व्यक्ति के लिए जो किसी कानून के तहत गिरफ्तार या निरोध में रखा गया है, जो निवारक निरोध के लिए प्रावधान करता है।” दिलचस्प बात यह है कि उपखंड (ख) की शुरुआत इस पंक्ति से होती है कि ‘पूरी तरह कार्यकारी निरोध को तीन महीने से अधिक समय तक जारी न रहने दें बिना परामर्श बोर्ड की स्वीकृति के।’

भारतीय संविधान उन कुछ लिखित दस्तावेजों में से एक है जो स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा लिखा गया था, जिन्होंने कार्यपालिका को बिना कोई कारण दिए अपने नागरिकों को निरोध में रखने, बिना वारंट के तलाशी और ज़ब्ती का मौलिक अधिकार दिया। और हमने पहले चुनाव के तुरंत बाद क्या देखा, नेहरू सरकार ने निवारक निरोध अधिनियम (पीडीए) को बिना मुकदमे के कैद करने के लिए अधिनियमित किया।

पीडीए का अधिनियमन कानून की उचित प्रक्रिया के सिद्धांत का सरासर उल्लंघन था और इसे राज्य के हित में कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के विचार से समर्थित किया गया था।

सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, सत्ता के हस्तांतरण के पहले तीन वर्षों में पचास हजार राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया और तेरह हजार को मार दिया गया या घायल कर दिया गया। यह देश के लिए विडंबना है, जिसने स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए 200 साल तक औपनिवेशिक नियंत्रण के खिलाफ लड़ाई लड़ी, वह केवल संदेह के आधार पर लोगों को जेल में डाल रहा था कि वे कानून का उल्लंघन कर सकते हैं।

इतिहास से कोई सबक नहीं

1918 में, ब्रिटिश सरकार ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ क्रांतिकारी आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम को नियंत्रित करने और दबाने के लिए सिडनी रौलट की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। रौलट समिति की सिफारिश पर, रौलट एक्ट पूरे भारत में लागू किया गया था।

इस अधिनियम ने पुलिस को किसी भी स्थान की तलाशी, ज़ब्ती, छापा मारने और किसी भी संदिग्ध व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार करने की अत्यधिक शक्ति दी। इस कानून के माध्यम से मुकदमे का प्रावधान समाप्त कर दिया गया, जिसने वास्तव में आपराधिक न्याय प्रणाली के तहत न्याय की पूरी परियोजना को नष्ट कर दिया।

आश्चर्यजनक रूप से, महात्मा गांधी के रौलट को लिखे पत्र में उन्होंने बड़े दुख के साथ कहा कि, यह कानून अत्यधिक क्रूर है और हमारे देश में मेरे लाख प्रयासों के बावजूद भी इस कानून की रक्षा नहीं की जा सकेगी। इसके बाद, ब्रिटिश सरकार ने 1923 में गुण्डा अधिनियम पेश किया ताकि गुण्डों की गतिविधियों पर नियंत्रण रखा जा सके। समय के साथ, इस नए कानून के मातहत ब्रिटिश सरकार ने बंगाल क्षेत्र से हर संदिग्ध व्यक्ति को निर्वासित करना शुरू कर दिया।

रौलट एक्ट कानून का मुख्य हिस्सा भारत सरकार अधिनियम, 1935 में पेश किया गया था जो हमारे संविधान में निवारक निरोध के रूप में जारी रहा। कानून की उचित प्रक्रिया के विचार पर लंबी चर्चा के बाद, अम्बेडकर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए निवारक निरोध के विचार को पेश करने के समर्थन में थे।

उस संविधान सभा की बहस में अम्बेडकर की स्थिति देश समर्थक थी और कम ऐतिहासिक। भारत की अखंडता बनाए रखने का उद्देश्य एक दशक के भीतर ही बेनकाब हो गया, जब हर राज्य ने तीन से चार से अधिक कानून पेश किए जिनमें निवारक निरोध सीधे तौर पर लागू किया गया था।

इस बीच, संविधान के लागू होने के कुछ ही महीनों बाद, पीडीए एक हथियार के रूप में कार्यपालिका के हाथों में आ गया, जिसे अनुच्छेद 22(3) की संवैधानिक वैधता प्राप्त थी। पीडीए ने कार्यपालिका की संतुष्टि के लिए “उचित” शब्द को एक परीक्षण के रूप में हटाकर, और स्वतंत्र न्यायिक समीक्षा के दायरे को और सीमित करके, इस शक्ति का उपयोग करने वाले कार्यकारी अधिकारियों को नियंत्रित करने के लिए जांच के स्तर को औपनिवेशिक मानकों के स्थान पर ला खड़ा कर दिया।

न्यायपालिका का आधे-अधूरे हस्तक्षेप

किसी देश में न्यायिक समीक्षा की शक्ति रखने के लिए अदालत की स्वीकृत सक्रिय भूमिका के बिना, ‘कानून का शासन’ एक संत के सपने का मिथक है। निवारक निरोध और संबंधित कानूनों के मामले में, शीर्ष अदालत का ऐतिहासिक हस्तक्षेप बहुत सीमित है। ए.के.गोपालन मामले में, जब पीडीए की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी।

दो न्यायाधीशों की पीठ ने कानून को असंवैधानिक घोषित किया, लेकिन बाद में, चार न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय को पलट दिया और माना कि “निवारक निरोध के लिए कार्यपालिका के लिए व्यापक शक्तियां आवश्यक थीं।” ए.के.गोपालन के फैसले ने न केवल निवारक निरोध के मामले में न्यायिक समीक्षा के दायरे को सीमित किया, बल्कि विधायिका को और अधिक दमनकारी कानून बनाने के लिए स्वतंत्र हाथ दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने हरीधन शाह मामले में निवारक निरोध मामलों में यू-टर्न लिया, जब थोड़े खुले रूप में ही सही यह स्पष्ट कर दिया कि, “निवारक निरोध कानून की जांच अनुच्छेद 22 की संकीर्णता में नहीं, बल्कि अन्य मौलिक अधिकारों के संदर्भ में भी की जाएगी।”

लेकिन उसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि, “भले ही निवारक निरोध के संदर्भ में अनुच्छेद 19 की जांच की जाए, यह निवारक निरोध के आदेशों के संबंध में आवश्यक उचित सामग्री को नहीं बढ़ाता है।” अर्थात कानून और न्यायपालिका दोनों की नजर में निवारक निरोध कानून की व्यापक सार्थकता को न्यायपालिका ने मुहर लगा दी।

न्यायपालिका ने निवारक निरोध के संदर्भ में अपनी भूमिका को कैसे देखा, इसमें बहुत कुछ नहीं बदला था, 1980 तक यह स्पष्ट हो गया था, जब कोर्ट ने सर्वसम्मति से राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980, को मंजूरी दी थी, जिसमें पीडीए, 1950 की कठोरता को सही ठहराने के लिए संविधान सभा द्वारा दिए गए लगभग अनियंत्रित कार्यकारी शक्ति के उसी तर्क को फिर से दोहराया गया था।

यही तर्क यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम) के संशोधन में दिया गया और टाडा (TADA) और POTA के सभी दमनकारी प्रावधानों को इस नए कानून में शामिल कर लिया गया। भारतीय सरकारें हमेशा राष्ट्र पर असुरक्षा और खतरे की तस्वीर पेश करने की कोशिश करती हैं ताकि दमनकारी कानूनों को सही ठहराया जा सके।

एनसीआरबी (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार, यूएपीए मामलों की संख्या में पिछले साल (2022) की तुलना में 23% की वृद्धि हुई है। दूसरी ओर, हम देशद्रोह के मामलों में पिछले वर्ष (2022) की तुलना में 75% की तेज कमी देख रहे हैं। अपने संसदीय भाषण में, गृह मंत्री अमित शाह ने सदन को संबोधित करते हुए दावा किया कि ‘हम देशद्रोह की औपनिवेशिक विरासत को छोड़ रहे हैं’।

दमन और अवैध निरोध की कहानी अभी भी यूएपीए के रूप में जारी है, जैसे एमआईएसए (आंतरिक सुरक्षा अधिनियम) को निरस्त करने के तीन साल बाद 1980 में एनएसए (राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम) पेश किया गया था। नए में पुराने क़ानून के सभी दमनकारी हथियार थे।

‘अपवादों’ का युग (age of exceptions) भारत में भारतीय शासक सरकार की इच्छा के माध्यम से विस्तारित हो गया है और इसका क्षितिज ऊपर से नीचे तक विस्तारित हो रहा है। ‘राजनीतिक बंदियों’ या ‘विवेक के कैदियों’ का सवाल भारतीय लोकतांत्रिक चेतना के लिए चिंता का विषय बन रहा है।

लोकतांत्रिक संरचना की निश्चितता और एक न्यायपूर्ण कल्याणकारी राज्य का निर्माण जनता की लोकतांत्रिक चेतना के बिना एक मिथक है। केवल सरकार बदलने या पसंदीदा व्यक्ति को वोट देने से अपने आप समानता की चेतना नहीं आएगी।

इसके लिए, लोगों को आगे आना होगा और मौजूदा औपनिवेशिक चेतना को केवल सांस्कृतिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि मुद्दों की बारीकियों में भी चुनौती देनी होगी।

(निशांत आनंद पेशे से एडवोकेट हैं।)

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